राधावल्ल्भ सम्प्रदाय: सखीभाव की गोपीभाव से श्रेष्ठता

हितराधावल्लभ सम्प्रदाय : एक परिचय श्रीराधावल्लभ श्री हितहरिवंश  श्रीहित सम्प्रदाय अपने श्रृंगाररस को लेकर बहुत चर्चित और लोकप्र...


हितराधावल्लभ सम्प्रदाय : एक परिचय

श्रीहित सम्प्रदाय अपने श्रृंगाररस को लेकर बहुत चर्चित और लोकप्रिय सम्प्रदाय है, इस सम्प्रदाय द्वारा पूजित और सेवित श्री विग्रह राधावल्लभ लाल जी की शोभा भी अतुलनीय, अवर्णनीय,और आलौकिक है, इस विग्रह का स्वरुप अति सौम्य और आनंदनीय है, जो दर्शन मात्र से भक्तो के मन को अपनी और आकर्षित कर लेता है, आइये इस सम्प्रदाय के कुछ महत्वपूर्ण तत्व को जानते है,

श्रीवल्लभ एवं श्रीचैतन्य सम्प्रदायों से श्रीहित सम्प्रदाय की सबसे बड़ी भिन्नता यह है कि,इन दोनों सम्प्रदायो ने 'प्रेमस्वरूप भगवान'को परम् तत्व माना है,जबकि हितसम्प्रदाय में 'भगवत्स्वरूप प्रेम' को अंतिम तत्व माना गया है, इन दोनों में यही भेद है कि एक में भगवान् कि प्रधानता है और दूसरे में प्रेम कि प्रधानता है,इसके फलस्वरूप श्रीवल्लभ एवं श्रीचैतन्य सम्प्रदायो में भक्ति एवं प्रेम सिद्धांतो का विकास भगवान श्रीनन्दनन्दन को लेकर हुआ है,और श्रीराधावल्लभ सम्प्रदाय में प्रेम को ही श्री नंदनंदन कि अंतरंगा आह्लादिनी शक्ति का सार माना जाता है,यहां श्री नंदनंदन और श्री वृषभानुनंदिनी को पराम् प्रेम कि लीला के लिए नित्य प्रकट दो अभिव्यक्ति -दो स्वरुप माना गया है, ध्रुवदास जी ने लिखा है, "प्रेम के खिलौना दोऊ,खेलत है प्रेम खेल" अर्थात प्रेम के जो खिलाडी प्रियाप्रितम है वही खिलौना भी बनकर अनादि-अनंत प्रेम लीला का खेल कर रहे है, परातपर प्रेम कि इस अद्भुत आत्म-क्रीड़ा को ही 'नित्यविहार' कहा जाता है, 


यह उपासना का एकमात्र लक्ष्य जीव को  दिव्यातिदिव्य प्रेम क्रीड़ा का अनुभव कराकर उसको इसी लीला का प्रेम के खेल का एक अंग बना देना है, इस उपासना पढ़ती के अनुसार स्वयं जीव श्री प्रियाप्रितम कि प्रेम क्रीड़ा के खिलोने बन जाए और नित्यविहार का अनुभव निजात्मा से करे और भगवान के परिकर बन जाए


श्री श्याम गौर का अद्भुत पारस्परिक प्रेम-सम्बन्ध प्रत्यक्ष होने पर भी इन दोनों के सहायक है सहचरी गण एवं वृन्दावन और इसी स्वरुप में इस सम्प्रदाय में भक्ति की जाती है, सब सखियाँ श्री राधा-किंकरी किंवा दासी है और उनके जीवन का एकमात्र उदेश्य अपनी स्वामिनी एवं उनके प्रियतम को अपनी सहज प्रेममयि सेवा एवं लाड चाव के द्वारा सुख पहुँचाना है और उनके सुखानंद में ही स्वयं आनंद अनुभव करना है, सखियों का यही प्रसिद्ध 'तत्सुखमय भाव' है इसमें स्वयं सुख की लेशमात्र भी कामना नहीं है,सम्प्रदाय में सखियों के भाव अनुसरण करके भजन किया जाता है,सभी पढ़ती सखीभाव में ही निहित है यहाँ,


सखी भाव को अधिक स्पष्ट करने के लिए इसे गोपीभाव से सेवा भी कहा गया है जैसे गोपिकाये अपना सर्वस्व त्यागकर केवल श्रीराधामाधव का सुख चाहती है, उसी भाव को इस सम्प्रदाय में सखीभाव सेवा बतलाया गया है, इस सम्प्रदाय में सखीभाव को गोपीभाव से भी उच्च बतलाया गया है क्योंकि गोपियों ने कात्यायनी व्रत द्वारा श्री माधव को पति रूप में माँगा है, और रास द्वारा जब माधव ने उनकी कामना पूर्ति की तब उन्हें अभिमान हो गया जिससे प्रभु अंतर्ध्यान हो गए है,किन्तु सखीभाव में सखियों का माधव से कोई सम्बन्ध नहीं बताया गया, केवल वो तो श्रीजी की सेवा करती है और क्योंकि माधव श्रीजी के पति है उसी नाते से वह उन दोनों के सुख की व्यवस्था में रहती है, सखी राधा माधव के प्रेम से प्रेम करती है न कि सीधे माधव से, सखियाँ उनके प्रेम का आनंद और उनके सुख सेवा को ही अपना आनंद मानती है, इसलिए किंचित मात्र भी निज सुख का भाव ही इसमें उतपन्न ही नहीं होता,

इस सम्प्रदाय में श्रीराधा-माधव को एक ही माना गया है, श्रीकृष्ण और श्रीराधा सदा एक दूसरे के सन्मुख है,उनका परस्पर नित्य संयोग है,श्रीकृष्ण ही श्री राधा है,श्रीराधा ही श्रीकृष्ण है,इन दोनों का प्रेम ही वंशी है,


रूप बेलि प्यारी बनी, (सु ) प्रीतम प्रेम तमाल।
दोऊ मन मिलि एक भये, श्री राधाबलभ लाल।।

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