व्रजेवसंतम नवनीत चोरम (माखनचोरी लीला का गोपीभाव अवलोकन) बालगोपाल श्री कृष्ण माखनचोर है, और येन केन प्रकारेण सदैव गोपियों...
व्रजेवसंतम नवनीत चोरम
(माखनचोरी लीला का गोपीभाव अवलोकन)
बालगोपाल श्री कृष्ण माखनचोर है, और येन केन प्रकारेण सदैव गोपियों के यहां से नवनीत चोरी कर खाते है, ऐसा क्यों करते है? नटखट नंदलाल, क्या नन्द बाबा के यहां माखन का कोई अभाव है? क्या माँ यशोदा जी उन्हें माखन खाने को नहीं देती है? नहीं ऐसा बिलकुल नहीं है यह आप. मैं और सभी जानते है,
आइये माखनचोरी लीला का मर्म गोपीभाव से आस्वादन करते है, :
गोपियाँ कोई साधारण स्त्रियाँ नहीं है, गोपियाँ जोकि पूर्व जन्म में ऋषि,महृषि और कृष्ण प्रेम में उन्मादित प्रेमियों का नाम है गोपियाँ, जिन्होंने पूर्व जन्मो में अपने कांता भाव, कृष्ण प्रेम की अभिलाषा का गोपन किया हुआ था, और श्री कृष्ण से प्रेम करने की अभिलाषा, उनका आलिंगन पाने की पिपासा को गोपनीय रखा था, वे ही तपस्वी आज अपनी उन अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिए गोपी रूप से बृज मंडल में उपस्थित हुयी है,
गोपियाँ भौर में जब दधि- मंथन करती है तो यह कोई दूध,दही का साधारण बिलोनी द्वारा किया हुआ मंथन नहीं है, यह तो उनके हृदय में उपस्थित कृष्ण प्रेम का नवनीत पाने के लिए उनके विचारो, उनके मन और अभिलाषाओं का मंथन होता है,
जब अनेकानेक जन्मो की चिरअभिलाषित कृष्ण प्रेम की कामनाओ का मंथन होता है, तो उस मंथन से जो नवनीत निकलता है, वह केवल और केवल कृष्णप्रेम नवनीत होता है, यह तो बात हुयी नवनीत की, अब बात आती है की श्री कृष्ण न केवल माखन चुराते है, किन्तु साऱी मटकियाँ भी फोड़ देते है, साधारण लीला में तो ये माटी की मटकिया फूटती दिखाई दे रही है, किन्तु क्या दिव्यातिदिव्यं, परमपुरुष,स्वयं परमात्मा की लीला में कुछ भी ऐसा साधारण हो सकता है, क्या? कदापि नहीं,
यहां श्री कृष्ण मिटटी की हँड़िया नहीं फोड़ रहे, बल्कि ऐसी कोई विषय-वासना, मान-अभिमान, लोकैषणा- तृष्णा, विकार-पापाचार, घृणा-अहिंसा या कोई स्वार्थ का आवरण (मटकी) यदि किसी कारणवश इन गोपियों के मन में या हृदय में रह गया हो, तो उसका नाश कर देना चाहिए, जिससे की गोपियों के हृदय में बसने वाले कृष्णप्रेम रुपी नवनीत और स्वयं कृष्ण के मध्य कोई आवरण ही ना रहे, और भगवान् अपनी प्रिय सखियों, गोपांगनाओं, बृजबालाओ के प्रेम को भरपूर लूट सके और उनकी चिरअभिलाषित अभिलाषाओं को तृप्त कर सके, इसीलिए श्रीकृष्ण माखन चोर बन जाते है,
जब अनेकानेक जन्मो की चिरअभिलाषित कृष्ण प्रेम की कामनाओ का मंथन होता है, तो उस मंथन से जो नवनीत निकलता है, वह केवल और केवल कृष्णप्रेम नवनीत होता है, यह तो बात हुयी नवनीत की, अब बात आती है की श्री कृष्ण न केवल माखन चुराते है, किन्तु साऱी मटकियाँ भी फोड़ देते है, साधारण लीला में तो ये माटी की मटकिया फूटती दिखाई दे रही है, किन्तु क्या दिव्यातिदिव्यं, परमपुरुष,स्वयं परमात्मा की लीला में कुछ भी ऐसा साधारण हो सकता है, क्या? कदापि नहीं,
यहां श्री कृष्ण मिटटी की हँड़िया नहीं फोड़ रहे, बल्कि ऐसी कोई विषय-वासना, मान-अभिमान, लोकैषणा- तृष्णा, विकार-पापाचार, घृणा-अहिंसा या कोई स्वार्थ का आवरण (मटकी) यदि किसी कारणवश इन गोपियों के मन में या हृदय में रह गया हो, तो उसका नाश कर देना चाहिए, जिससे की गोपियों के हृदय में बसने वाले कृष्णप्रेम रुपी नवनीत और स्वयं कृष्ण के मध्य कोई आवरण ही ना रहे, और भगवान् अपनी प्रिय सखियों, गोपांगनाओं, बृजबालाओ के प्रेम को भरपूर लूट सके और उनकी चिरअभिलाषित अभिलाषाओं को तृप्त कर सके, इसीलिए श्रीकृष्ण माखन चोर बन जाते है,
"ब्रजे वसंतम नवनीत चौरम, ब्रजांगनानाम वसनैकाचौरम अनेक जन्मार्जित पाप चौरम , चौराग्र गण्यम पुरुषम नमामि"
अर्थ - जिसने ब्रज में रहकर माखन चुराया , ब्रज की गोपियों का मोह लज्जा रुपी वस्त्र चुराया , जो जीवात्मा द्वारा जन्म -जन्मान्तर में संचित किये गये पापों को चुराता हैं मै उन चोरों के शिरोमणि भगवान को नमस्कार करता हूँ
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