Home Vikas Aggarwal Gopi Geet गोपी गीत : प्रथम श्लोक (आत्मभाव) Gopi geet pratham shlok ka sampuran arth hindi mein go...
Gopi geet pratham shlok ka sampuran arth hindi mein gopi geet ki vyakhya meaning of gopi geet krishna
भगवान् कृष्ण गोपियों के अभिमान को देख कर स्वयं को गोपियों के मध्य से अन्तर्ध्यान कर लेते है , और किशोरी जी के साथ रास-स्थल से आगे चले जाते है, कुछ समय पश्चात् किशोरी जू को भी अभिमान हो जाता है , तब ठाकुर जी राधा रानी को छोड़ कर लुप्त हो जाते है।
गोपियां और किशोरी जी भगवान के विरह में व्याकुल हो तड़पने लगती है।
हम लोग भौतिक जगत की वस्तु के लिए तड़पने लगते है कहीं हमारी कोई प्रिय वस्तु खो जाए तो घण्टो तक तडपते है लेकिन यहां तो जीव और शिव अर्थात भगत और भगवान् का मिलन और विरह हो रहा है, जिसने जन्मो जन्मो तक केवल गोबिंद मिलन की आस में ही जीवन बिताये हो उसे किसी और भौतिक वस्तु की चाह नही होती और गोपिया तो स्वयं गोबिंद मिलन की प्यास में गोपी रूप में प्रगट भई है फिर उनके विरह का क्या वर्णन हो सकता है? जब कृष्ण विरह की वेदना अनंतगुना हृदय में लावा की नाइ (भांति)प्रचंड वेग से प्रवाहित होने लगे और ज्वारभाटा के रूप में प्रस्फुरित होकर एक विस्फोट के रूप में बहने लगे तो वह भाव गोपीगीत बन जाता है.. इसीलिए स्वयं गोपियन ने इस गोपीगीत को गाया है है और अपनी वेदना का अविरल प्रवाह किया है,
गोपिया कहती है,
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि
" हे प्रिय ! यह जो बृज है यह ऐसे ही बृज नही बन गया है,आपके जनम लेने के कारण इस स्थान का महत्व इतना अधिक है,अर्थात गोबिंद यह बृज क्षेत्र जहाँ अनेकानेक जीव मुक्ति प्राप्त कर रहे है यह सब आपकी कृपा और यहां आपके जन्म लेने के कारण ही है, आप बैकुंठ, गोलोक, क्षीरसागर और अन्यान्य लोको में बिलकुल भी सुलभ नही हो अर्थात आपका दर्शन व् मिलन सम्भव नही है, यह तो आपकी अनुकंपा है की आप केवल बृज में ही इतने सहज रूप से मिल जाते है,
जिनके चरण श्री लक्ष्मी जी अपने आँचल में वक्षस्थल के पास छिपा कर रखती है वही कमल चरण यहां ब्रजभूमि की ऱज़ में डोलते फिरते है,यह सब आपके यहा जन्म लेने के कारण और हम जैसे अधमीयो पर उपकार करने के लिए ही तो हुआ है, यहां श्री लक्ष्मी जी भी सेवा हेतु नित प्रतिदिन आने लगी है,जो श्री लक्ष्मी जी क्षीर सागर में नित आपके कमलाचरण पलोटति रहती है और किसी अन्य को इनके दर्शन का अधिकार भी नही देती इस बृज में आपकी सेवा के लिए घूमती रहती है यह आपके यहा जन्म लेने के कारण हुआ है, आपने ही इस बृज को बैकुंठ गोलोक स्वर्ग और अन्य उच्च लोकों से भी उच्च बना दिया है,
लोकन कौ लोक मैंने एक ब्रज लोक देख्यौ ,
ब्रजहूँ कौ तत्व श्री वृन्दावन धाम है ....
वृन्दावन धाम हूँ कौ तत्व साधू-संतजन ,,,
साधून कौ तत्व गोपी-ग्वालिनी कौ नाम है ,,,,,,
,ग्वालिनी कौ तत्व प्यारो कृष्ण घनश्याम जहाँ ,,,,,,,
,यहाँ कृष्ण हूँ कौ तत्व श्री राधारानी जू को नाम है ,,
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते
आपकी कृपा से बहुत से राक्षस योनि के जीव जैसे अघासुर,बकासुर,कालिया नाग और पूतना जैसे राक्षस भव से पार हो गए है, जो गति बड़े बड़े महात्माओं को नही मिलती वह इस ब्रज क्षेत्र में सभी को प्राप्त हो रही है,आप यहां जो लीलाये कर रहे है वह युगों युगों तक जीवमात्र को आनंद देने वाली है, हम गोपिया जो अपना सर्वश्व लूटा कर, घर बार छोड़ कर ही नही अपितु अपने पति बच्चो सभी को भूलकर यहां वन में भटक रही है, केवल और केवल हे मनमोहन आपके दर्शनों के लिए ही,
हमने युगों युगों तक आपको पाने के लिए अनेकानेक तप किये,कष्ट सहन किये है विरहवेदना में अपने हृदय को तप्त किया है और आज हम आपको पाकर भी नही पा रही है, इस अर्धरात्रि में गहन वन में आपको ढूंढती हुयी यहां वहां भटक रही है, आपको हम पर करुणा नही होती क्या? आपने अपनी करुणा से अनेक अधमीयो को भी उच्च गतियां प्रदान की है फिर हमारे लिए इतने निष्ठुर क्यों बन गए हो,हमने केवल और केवल तुमसे स्नेह किया और कोई भाव किसी के प्रति कभी अपने हृदय में नही लाया यहां तक की अपने गृहस्थ जीवन को भी भूल गयी है,इतना सब त्याग कर हम आज यहाँ आपके निकट है फिर भी आप हम से छिप रहे है न जाने कहां अंतर्ध्यान हो गए है, जैसे एक बछड़ा अपनी माता से बिछुड़ जाने पर तड़प उठता है और वन वन माँ माआ करता हुआ भटकने लगता है अश्रुधारा उसके नेत्रों से अविरल बहने लगती है और कभी वह मूर्छित हो जाता है ऐसी ही दशा हमारी हो रही है, हमे अपने तन की कोई सुध नही है न ही भूख प्यास की परवाह है हमे केवल और केवल आपसे मिलना है, हे माधव ! आप कहाँ हो? हम आपको पाने के लिए भटक रही है,
रे निरमोही, छबि दरसाय जा।
कान चातकी स्याम बिरह घन, मुरली मधुर सुनाय जा।
ललितकिसोरी नैन चकोरन, दुति मुखचंद दिखाय जा॥
भयौ चहत यह प्रान बटोही, रुसे पथिक मनाय जा॥
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