पदावली विरहणी-भाव-2 (वृन्दा सखी) _________________________ पद - विकास अग्रवाल स्वान जो बनिहो तो तेरे निकुंज के द्वारन ...
पदावली
विरहणी-भाव-2 (वृन्दा सखी)
_________________________
पद - विकास अग्रवाल
स्वान जो बनिहो तो तेरे निकुंज के द्वारन को
धरु रसिकन चरणरज निज मस्तक सँवारन को
श्रवण तेरो नाम होवे हेतु है जो सब भवतारन को
प्रसादी मिले तेरी खावण और चरणामृत पीबन को
_____________________________धरु रसिकन चरणरज निज मस्तक सँवारन को
श्रवण तेरो नाम होवे हेतु है जो सब भवतारन को
प्रसादी मिले तेरी खावण और चरणामृत पीबन को
ये छलिया है गिरधर दिल को गिरवी रखकर भूल गया हमको,
आँसू का मूल और ब्याज खूब चुकाया फिर भी भूल गया हमको
बढ़ गयी हिये की पीर कौन बंधावे धीर ये छलिया छल गया हमको
प्रीत की लग्न लगाई पहिले वृंदा सो फिर रोते हुए छोड़ गया हमको
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आँसू का मूल और ब्याज खूब चुकाया फिर भी भूल गया हमको
बढ़ गयी हिये की पीर कौन बंधावे धीर ये छलिया छल गया हमको
प्रीत की लग्न लगाई पहिले वृंदा सो फिर रोते हुए छोड़ गया हमको
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तड़प रही गिरधर दासी एकबार तो दर्श दीजै I
करुणा दृष्टि प्रेम झलका दासी को अपना लीजै II
बाँट निहारु जन्मो जन्मो से आस मेरी पूरी कीजै I
कहे वृंदा सखी बहुत भरमाया अब तो हाथ पकड़ लीजै II
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गिरधर मेरो दर्द हिये कौ,औषध गिरधर गिरधर उपाय,
जरत हृदय अग्नि गिरधर है,शीतलता गिरधर अगन बुझाये
गिरधर ही अमृत विष गिरधर है,मारत गिरधर गिरधर जिवाये
गिरधर ही जीवन मरण गिरधर है,देय दर्श (वृंदा सखी) मोहन लेओ बचाय
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श्याम विरहणी के बड़े भाग सखी बरौ गिरधर गोपाल
अटल सुहाग बन्यो बाको अटल बैंदी लगी है भाल
बैरागन बन गई रागी श्याम की छुटे सब जग जंजाल
जोगन से बन गई सुहागन जबतें वर पायो नंदलाल
जग को वर मिले और बिछुरे वरयो अनश्वर गोपाल
वृंदासखी बलिहारी श्याम विरह की जो पायो गोपाल
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मैं कठपुतली गिरधर के हाथ की ,गिरधर नचावे मैं नाचता जाऊ
जैसो जैसो डुलावे प्रेम डोरी से मोहि मैं तो डोलता ही जाऊ
हरषे मनमोहन देख मेरो नाच मैं मुस्कन पे बलि बलि जाऊ
जैसे खींचे डोरी खड़ा हो जाऊ जैसे छोड़े ढीलो वही बैठ जाऊ .
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मैं कठपुतली गिरधर के हाथ की ,गिरधर नचावे मैं नाचता जाऊ
जैसो जैसो डुलावे प्रेम डोरी से मोहि मैं तो डोलता ही जाऊ
हरषे मनमोहन देख मेरो नाच मैं मुस्कन पे बलि बलि जाऊ
जैसे खींचे डोरी खड़ा हो जाऊ जैसे छोड़े ढीलो वही बैठ जाऊ .
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चांदनी रात की शीतलता जल रही है तन-मन
बिरहनि तरपै आकुल होये देख धरा का कन-कन
मधुर चांदनी शरद पूर्णिमा रास रच्यो मनमोहन
मेरे रोम रोम आग लगै होवे महारास सुमिरन
कौन हेतु ठुकराई वृंदसखी जो चित्त लाई कमल चरण
आवो गिरधर हिय से लगा लो होये शीतल हिय- अगन
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लखि मोहन मुख छटा तीर कँटीला नयनो का हिये धसां
दासी बिलपत होये विकल अकेली,जैसे कोई विषधर डसा
निज आलिंगन दान देओ मेरे स्वामी छुटे झूठा सब नशा
चरण धुर हो धूसरित भटकत हु बन देखत सब जग हँसा
निरखत मृदु नयन मुस्कान लुभानी सुधरे मोरी अन्तर्दशा
वृंदसखी कहे हे मोहन दो प्रेमदान अब क्यों विरह पाश कसा
किशोरी लाडिली,अलबेली कृपामयी गुण सागर
महिमा तुम्हारी तिंहु लोकन में हो रही है उजागर
वश में रहते तुम्हारे त्रिलोकी के नाथ नटवर नागर
कहे वृंदा करो कृपा अब निज नेह रस भर दो गागर
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महिमा तुम्हारी तिंहु लोकन में हो रही है उजागर
वश में रहते तुम्हारे त्रिलोकी के नाथ नटवर नागर
कहे वृंदा करो कृपा अब निज नेह रस भर दो गागर
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कौन भांति रीझे मनमोहन कहा करू वा कौन विधि,
बतावो सद्गुरु उपाय वही जा विध रीझेंगे कृपानिधि
दासी जड़मति सुधि नही मोहि हारी कर कर सब विधि
वृंदसखी कहौ विधि वाही जासु आय मिले मोहे सुखनिधि
जतन कौन मन्त्र है जाहि किये रिझेगे श्याम दयानिधि
बेगि करो उपाय सद्गुरु अब प्राण रहे न बिन प्राणनिधि
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मोहन बिनु कछु ऐसी लागै हौ जु पतित सब भांति अभागी
स्वामी अब कृपा नाही करें मोपर कैसे मेरे धीरज लागि
काँपत देह थरथर मोरि,भटकै इत-उत बन गिरधर बैरागी
वृंदसखी कैसे आरत टेरे, श्वास -श्वास नाम रटन लागि
साधन नेम नाहि ठौर ठिकानो, चित्त चरण कमल लागि
कहौ कृपा करि के मनमोहन आपणौ करो मोहे बड़भागी
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आवो हरि जी दर्श दे दो होत आस मोरे हिय माहीं
बचपन नही रह्यो गयो योवन अब ये दशा रही नाहि
ठांनस-धीर धरूँ मैं कैसे? बावरी कबहुँ ते है बिलगाहीं
अब नाहीं मानु जीवन त्यागू आवो हृदय सौ लगाहिं
मैं दीन-हीन कर्महीन बिलपत कहत हूँ तौ सकुचाहीं
निष्ठुर क्यों भये वृंदसखी बेर,हिय अति अकुलाहिं
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कबहुँ आवोगे गिरधर जब मिट जाएगा यह जीवन
रो-रो कर फुट जायेगी अँखियाँ फिर कैसे होगा दर्शन
सांसो की धरा सुख जायेगी काया जल जायेगी अगन
रोम रोम की राख बनेगी फिर कैसे पखारूँगी मैं चरण
नश्वर काया मिट जाएगी फिर कैसे होगा मुझसे भजन
वृंदसखी कहे अब देर न करो गिरधर मेटो विरह की अगन
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दुरी क्यों बनी है मेरी अब तुम से मेरे प्रीतम
कमी है मेरे इश्क में या कोशिश मेरी है कम
भँवरा बन मैं घूम रहा हूँ पाने आनंद मकरंद
या जला दू खुद को जैसे जरै कोई कीट-पतंग
लोक-लाज जग सब तजकर आयी हु शरण
कहे वृन्दासखी बेगि आवो छूट रहा अब जीवन
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उपजै गाढ़ हृदय विरह दुःख, कब मौसौं बनी आवे II
कोमल कनक कमल कर कबहुँ ,आवे कृपानिधि उठावै
रटन ऐसी कौन दिन करि हौ, बरबस धीर छुड़ावै
कोमलचित कृपालु नन्दनन्दन ,अति आतुर ऊटी धावै
तन-मन की न संभार रहे मोहि,भूषण बसन भुलावै
धीरज धरत बनै नही केहिं भांति, पल-पल अति अकुलावै
वृंदसखी है मेरी कहौ मुख सौ ,बार बार हृदय लगावै
बलिहारी इस विरह अगन की,जौ प्रीतम संग मिलावै
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हे रासेश्वरी ! स्वामिनी राधे कब मेरी और निहारोगी ?
दान निज - दर्शन का देकर कब मोहे पार उतारोगी ?
हा वृंदा ! ओ वृंदा !मेरी वृंदा ! कहे कहे मोहे पुकारोगी ?
चरण की चेरी रख मोहे,कब मेरी किस्मत सँवारोगी ?
दान निज - दर्शन का देकर कब मोहे पार उतारोगी ?
हा वृंदा ! ओ वृंदा !मेरी वृंदा ! कहे कहे मोहे पुकारोगी ?
चरण की चेरी रख मोहे,कब मेरी किस्मत सँवारोगी ?
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कीट बना दो वृन्दाविपिन को जो पड़ा रहे तेरी देहरी पर,
सोवत-जागत रूपनिधि मोहन पीबत रहे तेरी देहरी पर
धुर पर रसिक चरनन की आवत जावै तेरी देहरी पर,
किनका प्रसादी मिलती रहे जीवन बीते तेरी देहरी पर
बन पतंग जरउँ आरती लौ राख गिरे तेरी देहरी पर,
कहे वृंदा सखी भाग बड़े जो मिटे यह काया तेरी देहरी पर
https://sangkirtna.blogspot.in/2018/02/1.html
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