श्रीराधा-माधव-चिंतन (महाभावा श्रीराधा जी)
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श्रीराधा-माधव-चिंतन (महाभावा श्रीराधा जी)

महाभावा श्रीराधा जी जगजननी श्रीकृष्ण स्वरूपा भगवती श्रीराधिका जी बहुत से मायाप्रेरित जीवो के लिए पहेली बनी हुयी है,और यह विलक्षण प...

श्रीराधा-माधव-चिंतन-(‘नासौ रमणो नाहं रमणी’)
श्रीराधा-माधव-चिंतन-(श्रीराधामाधव नित्य निरन्तर- महाभाव स्वरूप)
श्रीराधा_माधव_चिन्तन-(श्रीराधा जी के प्रेम का स्वरूप)


महाभावा श्रीराधा जी

जगजननी श्रीकृष्ण स्वरूपा भगवती श्रीराधिका जी बहुत से मायाप्रेरित जीवो के लिए पहेली बनी हुयी है,और यह विलक्षण पहेली तब तक बनी रहेगी जब तक पूर्ण श्री राधाकृपा प्राप्त नहीं हो जाती है, अर्थात जब तक श्रीराधा जी के गूढ़ातिगूढ़ तत्व रहस्य को कोई नहीं जान लेता है,श्रीराधा जी रहस्य सभी रहस्यों की चरम सीमा और सर्वोच्च रहस्य है, श्री राधा तत्व केवल और केवल उन्ही की कृपा से और उन्ही के किसी कृपापात्र की कृपा से मिल पाना सम्भव होते है, श्रीराधा-माधव महारास और प्रेम का अलौकिक दर्शन केवल अलौकिक भावो को पुष्ट करने से ही प्रॉपर हो सकता है, श्रीराधिक जी महाभावा है, उनका हर भाव माधव में स्थित है,माधव के अल्वा उन्हें कुछ नहीं सूझता,वह अपना सर्वस्व गोबिंद को समर्पित करती है, उनका हर श्रृंगार,भाव,त्याग सब माधव प्रेम है त्याग और प्रेम की अनूठी उपस्थिति है महारास,

(Shree Radhika ji is a Divine personality. Radhika ji is beyond the materialistic world. She is beyond the thoughts of a common human-being who is affected with selfishness, who want to enjoy the worlds comfort and never dedicated his heart whom he loves. even his love is not love but a way to satisfy his needs mentally or physically, nothing else.)  

भगवान् से कुछ भी चाहना यहाँ तक की मोक्ष की चाह भी रखना सही नहीं है,जिससे प्रेम किया जाए उसी से कुछ माँगना या चाह रखना ये तो प्रेम नहीं है, यह भक्ति भी नहीं है,गोपियाँ पूर्ण श्रृंगारित और सम्पूर्ण भोगो सहित भक्ति में लीन रहती है किन्तु उनके श्रृंगार, प्रत्येक स्वास, मन की प्रत्येक सुखम से सूक्ष्म वृतिका और शरीर की प्रत्येक क्रिया का प्रयोग और उपयोग केवल और केवल रसराज प्रभु श्रीकृष्ण-सुखेच्छा के लिए है,कोई स्वयं का स्वार्थ नहीं रहता, इस प्रकार सम्पूर्ण त्याग और भोगो के साथ साथ होने पर लोगो की बुद्धि में भरम उतपन्न कर देता है,और यह पहेली और भी गूढ़ और दुरूह हो जाती है,

नित्यनंद ब्रह्मानंद स्वरूप में परिनिष्ठित, किन्तु इस महान रस-रहस्य के मर्मज्ञ श्रीशुकदेव जी मरणासन्न परीक्षित को रासलीला सुनते हुए प्रफुल्लित और मंत्र्मुग्ध होकर गुह्य रहस्य खोलने लगते है,जहां प्रेम भक्ति के मूर्तिमान अर्थात प्रेमावतार श्री चैतन्य महाप्रभु श्रीगोपीजन और श्रीराधिकाभाव का स्मरण, श्रवण, और गान करके ब्रह्मज्ञान शून्य होकर आनंद राज्य में पहुँच जाते है अर्थात ऐसे संसार में जहां केवल श्रीराधामाधव प्रेम और उनकी लीलाये ही है, कोई तर्क-वितर्क और खोटी बुद्धि का सम्राज्य नहीं है, चारो और केवल प्रियपरितम प्रेम रस-रास बहता है, ऐसा राज्य जो पूर्ण प्रेम और महाभावा श्रीराधिका जी की इच्छाशक्ति के आधीन है, यह वह रस है, जहाँ श्रीविद्यापति जैसे भावुक कवि बड़ी पवित्र भावना से  मधुरतम भावो का गान करते है,ऐसे दिव्यतम दिव्य दम्पति की लीलाये उनका महारास मनुष्य की बुद्धि और विवेक से परे की बात है, जिस रस-गान का अनुभव करने से योगी मुनि अपना वैराग और ज्ञान भूल जाते है, जिस महारास का रस-चाखन स्वयं काम को भष्म कर देने वाले शिव गोपी रूप धारण करके आते है,

वहीँ अनेक प्रसिद्ध विद्वान और विख्यात कवियों ने उन्ही दिव्य प्रेम-रसमय श्रीराधा-कृष्ण का वर्णन सधारण नायक नायिका के रूप में किया है,और उसी भाव से उनके हाव-भाव,आकृति-प्रकृति, भाव-मुद्रा और अभिनय को चित्रित किया है,इसके कारण भी बहुत अनर्थ हो रहा है, अखिल ब्रह्माण्ड नायक श्रीकृष्ण और नायिका श्रीराधिका जी के परम् अलौकिक दिव्यातिदिव्यं रूप को भूलकर लोग अत्यंत मलिन और दोषपूर्ण भावो से तथा अपवित्र दृष्टि से उन्हें देखने लगे है,रीतिकालीन परम्परा से प्रभावित सभी कवियों ने अपनी कल्पना से दिव्य महारास और महानायक-महानायिका का स्वरूप ही बदल डाला है, सच्चे कवि और भक्त सूरदास, नंददास,चंडीदास आदि, जयदेव और विद्यापति आदि, जिन्होंने महाभाव में स्थित होकर ही महाभावा श्रीराधिका और श्रीकृष्ण को परम् परब्रह्म भगवान् जानकर ही उज्जवल पवित्र मधु पीयूषधारा बहायी थी, उनकी महाभाव पोषित रचनाये भी भद्दे लीलाचित्रण और काम को पोषित करने में प्रयुक्त होने लगी, दिव्य प्रेम की परकाष्ठा श्रीराधामाधव की प्रेम लीलाओ के नाम पर मलिन वासनाओ की पूर्ति की जाने लगी है, 

जब मूल ही बिगाड़ दिया गया है, तो ऊपरी निर्माण कैसे बढ़िया हो सकता है? जड़ो में ही काम-वासना का कीड़ा लग गया है, तो राधा-माधव विशुद्ध प्रेम का वृक्ष कैसे पनप  सकता है?

(Now a days, people who are known as poet, writers or directors has changed the meaning of true ShreeRadhamadhav's love and Maharass they sing, they write they produce only what, that they thoughts with his selfish thoughts, to satisfy his thoughts and to achieve his mentally and physically needs. they have totally no relations with devotion or bhakti or prem. they can't do any sacrifices for his love, they have to satisfy only their self greed. so they have destroyed the true meaning, true and holy feelings of Shree Radhamadhav love.)

आज के युगकालीन कवियों,साहित्यकारों और चलचित्रण निर्देशक और लेखकों ने बड़ा भारी विनाश किया है, झूठी और कामवासित कोरी कल्पनाओ से, जैसा सोचते है वैसा ही प्रस्तुत करते है, केवल अपने मन की मलिन भावो को प्रस्तुत करने हेतु श्रीराधामाधव जी की लीलाओ के नाम पर अपनी गन्दी कल्पनाये प्रस्तुत करते है,

'काम' अंधतम है,काम की दृष्टि सदैव अधो: गति में और इन्द्रियों की तृप्ति में रहती है, कामातुर व्यक्ति की वृति सदैव अधोगामी रहती है, जबकि त्यागमय प्रेम की दृष्टि दिव्य होती है, उसके भाव की गति ऊध्र्वगामी अर्थात भगवान् के स्वरुप की और ऊपर की और होती है, काम अधः पात करता है और भगवत प्रेम दिव्य भगवदानंद का आस्वादन करवाता है अर्थात, प्रभु प्रेम हमेशा ऊध्र्वगामी होता है, कामकलुषित ह्रदय मानव के पतन का कारण बनता है वही प्रभु प्रेम उसे दिव्यता की और परमानंद भगवान् के श्री चरणों में ले जाता है,  

श्रीराधिका चरण रति और पवित्र मति और पूर्ण शरणागति ही ऐसा सूत्र है जो श्रीराधिका जी तत्व की पहेली का रहस्य समझने में समर्थ है,और कोई उपाय ऐसा नहीं है जो किसी को इस गूढ़ प्रेम रहस्य और राधामाधव विशुद्ध महारास का रहस्य खोल सके,केवल त्यागमय विशुद्ध प्रेमी हृदय  ही सदैव श्रीराधामाधव जी के  चरणों का दास बन सकता है वहीँ श्रीराधिका जी की किरपा का पात्र बन सकता है, इसलिए किसी भी यत्न से अपने कामातुर,विषयी मन को काबू करके विशुद्ध  त्याग युक्त प्रेम का आचरण करना चाहिए......
श्रीराधा-माधव-चिंतन (श्री राधिकाजी)
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DIVINE LOVE: श्रीराधा-माधव-चिंतन (महाभावा श्रीराधा जी)
श्रीराधा-माधव-चिंतन (महाभावा श्रीराधा जी)
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