महाप्रभु के भीतर विरहा की दसो दशाओं का प्रगट होना विरह की दशाएं और महाप्रभु के शरीर में उन दशाओं का मार्मिक प्रगटीकरण अपने पूर्...
विरह की दशाएं और महाप्रभु के शरीर में उन दशाओं का मार्मिक प्रगटीकरण
विरह की दस दशाएं बतायी गयी हैं। वे ये हैं–
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विरह की दशाएं |
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कृष्ण मिलन की चिंता एवं स्वयं राधा बन जाना और मित्रो के नाम की विस्मृति |
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श्रीराधिका के भाव में स्थापित महाप्रभु |
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कृष्ण प्रेम में विरह की दशा |
विरहव्याधि से आतप महाप्रभु तड़प उठते है जैसे तीव्र ज्वर से सम्पूर्ण शरीर ज्वलित हो उठता है, वैसे ही विरह के ज्वर में महाप्रभु का शरीर तप रहा है,
महाप्रभु गम्भीरा मंदिर के भीतर घूमते रहते है, बिना बात ही खिल-खिलाकर हँसने लगते है। चेतनावस्था में हो या अचेतनावस्था में, तुम्हारे ही सम्बन्ध के उद्गार निकालते है। कभी धूलि में ही लोट जाते है, कभी थर-थर कांपने ही लगते है, हे मुरारे! हे कृष्ण ! हे प्रियतम ! पुकारते पुकारते वह कृष्ण विषम विरह खेद से विभ्रान्त से हुये विचित्र ही चेष्टाएँ करने लगते है।’कभी कोई उन्हें पागल समझता है, कभी कोई उन्मादी और विरह से युक्त प्रेमी समझता है, ऐसी महाप्रभु की दिव्य दशा का क्या वर्णन किया जाए?
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विरह से पीड़ित एवं आतप दशा |
प्रेम की डगर को फूलो की राह नहीं है I
प्रेम मस्ती में निज की परवाह नहीं है II
प्रेम की डगर कठिन दो धारी तलवार है I
दर्द भुला कर जो चला वही हुआ पार है II
किन्तु प्रेम में विरह की पीड़ा मरने भी नहीं देती है और प्रेमी को मृत्यु के समान पल पल पीड़ा भी देती है,ऐसी ही दशा महाप्रभु की है अत्यंत पीड़ायुक्त है किन्तु मृत्यु नहीं आती केवल मृत्यु के जैसी पीड़ा कृष्ण प्रेम में सह रहे है,
महाप्रभु की दशा ठीक उन मछलियों की सी है जो थोड़े जल वाले गड्ढे में पड़ी हों और सूर्य उस गड्ढे के सब जल को सोख चुका हो, वे जिस प्रकार थोड़ी-सी कीच में सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से तड़फती रहती हैं उसी प्रकार वे तुम्हारे विरह में तड़फ रहे हैं। यह जीते हुए ही मरण है, यही नहीं किन्तु विरह से पीड़ित इस जीवन से तो मरण ही लाख दर्जे अच्छा।
अन्त के बारह वर्षों में प्रभु अपने को राधा मानकर ही श्रीकृष्ण के विरह में तडपते रहे।कविराज गोस्वामी कहते हैं–
राधिकार भावे प्रभुर सदा अभिमान। सेइ भावे आपनाके हय ‘राधा’ ज्ञान।
दिव्योन्माद ऐछे हय, कि इहा विस्मय ? अधिरूढ भावे दिव्योन्माद-प्रलाप हय।।
अर्थात ‘महाप्रभु राधाभाव में भावान्वित होकर उसी भाव से सदा अपने को ‘राधा’ ही समझते थे। यदि फिर उनके शरीर में ‘दिव्योन्माद’ प्रकट होता था तो इसमें विस्मय करने की कौन सी बात है। अधिरूढ भाव में दिव्योन्माद प्रलाप होता ही है’
महाप्रभु जी की विरह दशाओ में होने वाले भावो का वर्णन किया, आगे के लेख में हम जानेगे की इन भावो में वह कैसी - कैसी लीलाये करते है ? उनकी कैसी - कैसी भाव लीलाओं का प्रगटीकरण होता है? क्रमशः
महाप्रभु जी की विरह दशाओ में होने वाले भावो का वर्णन किया, आगे के लेख में हम जानेगे की इन भावो में वह कैसी - कैसी लीलाये करते है ? उनकी कैसी - कैसी भाव लीलाओं का प्रगटीकरण होता है? क्रमशः
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