गम्भीरा लीला संन्यास के अंतिम लगभग बारह वर्षो तक महाप्रभु गम्भीरा मंदिर में रहे , गम्भीरा का स्थान...
संन्यास के अंतिम लगभग बारह
वर्षो तक महाप्रभु
गम्भीरा मंदिर में रहे,
गम्भीरा का स्थान
बहुत ही छोटा
एवं एकांत में
था, यह एक
गुफानुमा बहुत ही
छोटा स्थान था
किन्तु महाप्रभु इसी में
एकांत में रहना
पसंद करते थे,
अब महप्रभु की
दशा पूर्ण कृष्णप्रेम
से सिंचित महाभावो
से परिपूर्ण हो
गयी है, उनके
रोम रोम से
कृष्ण प्रेम के
दिव्य भावो का
प्रदर्शन उद्दीपन और प्रागट्य
होने लगा है,महाप्रभु निरन्तर
वियोगिनी श्री राधिका
जी के भाव
में भावान्वित रहते।
स्वरूपगोस्वामी
और राय रामानन्द जी
को वे अपनी
ललिता और विशाखा
सखी समझते।दिव्य भावो
के उन्माद में
उन्हें ये ही
दोनों सँभालते है,
ये दोनों महानुभाव
ललिता और विशाखा
की भाँति प्रभु
की विरह-वेदना
को कम करने
में सब भाँति
से उनकी सहायता
करते और सदा
प्रभु की सेवा-शुश्रुषा में ही
तत्पर रहते।
स्वरूपगोस्वामी मधुर कंठा
होने के कारण
उन्हें गीतगोबिन्द, गोपीगीत इत्यादि
का गान करके
सुनाया करते है, जिससे महाप्रभु को
बहुत आनंद प्राप्त
होता है, महाप्रभु
की दशा को
शब्दों में वर्णित
करना बहुत कठिन
है, किन्तु स्वरूपदामोदर
गोस्वामी जी ने
कुछ भावो को
उसी समय संकलित
किया और प्रत्यक्ष
महाप्रभु के भावो
का वर्णन किया,
जो आज भक्तो
को आनंद और
अवलंब प्रदान करते
है,
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महाप्रभु की उन्मादित दशा |
महाप्रभु तो
सदैव चेतनाहीन, ज्ञानशून्य
बने रहते है,
उन्हें किसी भी
लौकिक क्रियाकलाप का
कोई भान ही
नहीं है, चेतना
शून्य स्वास स्वास
से हा कृष्ण
! हा कृष्ण ! पुकारते
है, दौड़ते है,
जैसे की सामने
स्वयं मुरली मनोहर
को देख रहे
है और उन्हें
पकड़ने भागते है,
कृष्ण, कृष्ण केवल कृष्ण
नाम पुकारते है,
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केवल और केवल राधामाधव चिंतन |
उन्हें कुछ और
नहीं सूझता, भागते
भागते कभी दिवार
से टकरा जाते
है, कभी किसी
शिला से टकराकर
लहू लुंठित हो
जाते है, किन्तु
उन्हें किसी दर्द
का एहसास ही
नहीं, कृष्ण विरह-वेदना के आगे
कोई शारीरिक वेदना
उन्हें महसूस ही नहीं
होती है,
प्रभुर गंभीरा लीला ना
पारि बूझिते।
बुद्धि प्रवेश नाहि ताते
ना पारि वर्णिते।।
अर्थात ‘महाप्रभु की गम्भीरा लीला
कुछ जानी नहीं
जा सकती, बुद्धि
का तो वहाँ
प्रवेश ही नही,
फिर वर्णन कैसे
हो सकता है?’
बिरहा बिरहा मत कहौ,
बिरहा है सुलतान।
जेहि घट बिरह
न संचरै, सो
घट जान मसान।।
विरह की पराकाष्ठा
को जानना है,
तो महाप्रभु की
उन्मादित लीला का
दर्शन मात्र करने
से प्रेमी का
हृदय रोमांचित हो
उठता है,
महाप्रभु
उठते है, और
कृष्ण कृष्ण पुकारते
है, जैसे ही
उठते है प्रीतम
को प्रत्यक्ष न
जानकर विरह से
पीड़ित धड़ाम से
भूमि पर उनका
शरीर गिर पड़ता
है, विरह का
इतना दर्द की
प्रत्येक इन्द्रिय निर्बल हो
जाती है, और
यह शरीर पृथिवी
पर गिर जाता
है, कभी शिलाओं
से पूछते है,
की कृष्ण कहाँ
है? कभी शिलाओं
में कृष्ण को
देखकर उनका आलिंगन
करते है, कभी
माथा फुट जाता
है इतनी जोर
से दीवारों को,
शिलाओं को आलिंगन
करते है, गिरते
है, पड़ते है,
बेसुध से पड़े
रहते है,
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महाप्रभु की अचेतन दशा |
कृष्णहा कृष्ण पुकारतेपुकारते अचेतन हो जातेहै, उनका चित्त श्रीकृष्ण में
अत्यन्त
ही आसक्त
हो रहा हैं,
जो एक क्षण
के भी विरह-दु:ख को
स्मरण करके
घबड़ाये हुए
नाना भाँति के आर्तवचनों
से सही कृष्ण
को ही पुकार
रहे है, लोक
लाज आदि बात
की भी परवाह
न करते हुए
बृजगोपियो की भांति
वे ऊंच स्वर से
चिल्ला-चिल्लाकर हा
गोविन्द ! हा
माधव ! ! हा दामोदर
! ! ! कह-कहकर रुदन
करने लगते है।
महाप्रभु के विरह की दशाओ का वर्णन अगले भाग में करेंगे.......क्रमशः
"निताई गौर राधे श्याम हरे कृष्णा हरे राम"
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