कृष्णचैतन्यामृतं - गोपीभाव विरह वेदना लीला

गोपीभाव विरह वेदना लीला निमाई पंडित गयाजी में विष्णुपाद मंदिर में दर्शन किये, और ब्राह्मणो द्वारा बार बार विष्णु चरणों की महिमा सुन कर ...

गोपीभाव विरह वेदना लीला
निमाई पंडित गयाजी में विष्णुपाद मंदिर में दर्शन किये, और ब्राह्मणो द्वारा बार बार विष्णु चरणों की महिमा सुन कर हाल-बेहाल हो गए,सब कुछ भूल गए,उन्हें अपनी देह का भान भी नहीं रहा, आँखों से अश्रु बह रहे है, कुछ होश नहीं है उन्हें, देह गिरने को हुयी तभी कसी संत महापुरुष से स्पर्श हुआ और उनके सहारे से कुछ संभल गए, तब उनके साथी उन्हें प्रेम पूर्वक पकड़ कर मंदिर के बहार आँगन में ले आये, कोई उन्हें पंखा झोल रहे है, कोई जल पिने को दे रहा है, ऐसी विचित्र से दशा हो गयी, महाप्रभु की विष्णु चरणों की महिमा सुनने मात्र से,


          तभी वही महापुरुष वहाँ पधारे, ये माधवेन्द्रपुरी जी के परम शिष्य ईश्वरपुरी जी है, निमाई जी इनसे पहले मिल चुके थे नवद्वीप धाम में, देखते ही उन्हें पहचान लिया और जैसे तो विरहातुर प्रेमी मिलते है इस प्रकार दोनों में आलिंगन किया और प्रेमपूर्वक भेंट की, दोनों के शरीर आनंद से पुलकायमान हो रहे है, निमाई उन्हें अपने ठहरने के स्थान पर आने का निमंत्रण देते है, कुछ समय बाद दोनों में अत्यंत प्रेम वार्तालाप और प्रभु चर्चा होती रहती है,

                 एक दिवस निमाई उन्हें कृष्ण मन्त्र प्रदान काने को कहते है, तब ईश्वरपुरी जी कहते है," आप से अधिक कृष्ण तत्व को कौन जनता है,आप स्वयं श्री कृष्ण है, मुझ में ऐसी क्या सामर्थ्य जो आपको मन्त्र प्रदान करू, किन्तु आपके द्वारा समस्त संसार में कृष्ण-प्रेम तत्व का संचार होना है, और आप अपने गुरु होने का महत्व मुझे देना चाहते ही है तो आपकी आज्ञा जानकर आपको गुरुदीक्षा दूंगा", तब निश्चित तिथि के दिन गुरुदीक्षा की तैयारी की गयी और ईश्वरपुरी जी ने महाप्रभु के कर्ण में गुरु मन्त्र कृष्ण मन्त्र प्रदान किया,"गोपीजनवल्ल्भाय नमः" 


यह दशाक्षर मन्त्र को श्रवण करते ही प्रभु मूर्छित हो गए और धरा पर गिर पड़े, उनके शिष्यों ने उन्हें भांति भांति से सम्हाला, कुछ देर में स्वस्थ से हुए, किन्तु तभी अजीब सा वयवहार करने लग गए, पागल की सी गति हो रही है,उठते है, भागने लगते है, तड़पने लगते है, निरन्तर अश्रुधार प्रवाहित हो रही है, वस्त्र अश्रुजल से गीले हो गए है, विकल होकर हा कृष्ण ! हा पिता ! हा स्वामी! मोहन ! गिरधर ! कहाँ हो? कहाँ है मेरे कृष्ण? विद्यार्थी उन्हें पकड़ते तो वह हाथ छुड़ा छुड़ा कर भागने लगते है, कैसी विचित्र दशा हो गयी है? कभी पुकारते है मेरे स्वामी मुझे अकेले छोड़कर कहाँ चले गए हो? मुझे भी अपने संग ले चलो ? कृष्ण हां हा कृष्ण कहाँ हो? हा कृष्ण हा कृष्ण अब आपके बिन हम नहीं जी सकेंगे, जोर जोर से विलाप करते है, निर्झर अश्रुधारा बहती जा रही है, शिष्यों से कहते है अब तुम लौट जाओ नवद्वीप हम नहीं जा पाएंगे, हमे तो कृष्ण से मिलना है, हमे वृज जाना है, वही रहना है, और भागने लगते, एक रात जब भागने की तैयारी में निकले तभी आकाशवाणी ने उन्हें रोका जब सही समय आएगा तुम्हे बृज में बुला लिया जाएगा अभी तो तुम्हे नवद्वीप और वही के लोगो का सत्संग और नाम-संकीर्तन से उद्धार करना है, ऐसा प्रभु का आदेश सुनकर निमाई नवद्वीप लौटने को तैयार हो गए,


   किन्तु पुरे मार्ग में उनकी दशा ऐसी ही विरहाकुल गोपियों की सी रही, उन्हें सोते-जागते,उठते बैठते केवल मोहन को मोहिनी मूर्त के दर्शन हो जाते है, वह तड़प उठते है विरह से, रुदन करने लगते है, हा कृष्ण ! हा कृष्ण मेरे बाप, कहाँ चले गए? मुझे अन्ततः छोड़कर? हा कृष्ण हा हा मेरे प्रीतम कहाँ हो? ऐसे बोलते बोलते बेहोश हो जाते, शरीर भी शिथिल पड़ गया, जैसे-तैसे प्रभु गया जी से नदिया लौट आये, जैसे ही सभी ग्रामवासियो ने समाचार सुने सभी दौड़ दौड़ कर उनके दर्शन को, मिलने को पधारे, जैसे तैसे सभी से प्रेमपूर्वक मिले और सबको विदा किया, इधर माता शची और विष्णुप्रिया जी उनके आने से अति प्रसन्न है, किन्तु माता देखती है की पुत्र की दशा कुछ परिवर्तित है,किन्तु कुछ पूछ नहीं पाती, शाम को कुछ अन्य गणमान्य लोग उनसे मिलने आते है और गयाजी यात्रा के बारे में पूछते है, निमाई उन्हें वृतांत सुनाने लगते है और जैसे ही विष्णु पदपद्मों की महिमा बोलते जाते है उनकी दशा वही होने लगती है, आंको से अश्रु बहने लगे, बेहोशी से छाने लगी, उन्हें स्वयं नहीं पता था की प्रभु प्रेम का सरोवर उनके हृदय में हिलोरे मरने लग गया था,किन्तु उसका पूर्ण स्फुरण अभी बाकी है, आरंभ में ही ऐसी दशा है, प्रभु की, अब तो किसी भी वार्ता में वह श्रीकृष्ण की ही चर्चा करते और करते करते उनकी वेदना उन्हें तड़पाने लगती,

उनका अध्यापन कार्य उनसे नहीं हो पता,कुछ भी नहीं कर पाते उन्हें केवल कृष्ण प्रेम उनके नाम-सुमिरन में ही संतोष जान पड़ता है, वह विकल हो उठते है, हा कृष्ण ! हा कृष्ण ! पुकारते पुकारते दौड़ पड़ते है, बेहोश होकर गिर जाते है, हाथ-पाँव शिथिल हो जाते है,

         ऐसी प्रभु की विचित्र दशा देखके गोपियों की दशा याद आ जाती है जब यदुपति उन्हें छोड़कर अंतर्ध्यान हो गए, और वे कुछ समय के विरह से इतनी तड़प गयी थी की उनका प्रेम गोपीगीत के रूप में प्रसफुरित हो निकला, थोड़े से विरह से ऐसी दशा हो गयी जिसका वर्णन करते करते अनेको महृषि, संत महापुरुष अनेको जन्मो का समय लगा देते है फिर भी पूर्ण व्याख्या नहीं कर पाते है, ऐसी विरहवेदना जिसमे गोपियों का अंतःकरण आह्लादित हो उठा, वह जल के बिना मीन के जैसे तड़प रही है, हा कृष्ण ! हा प्रीतम ! हा प्राणप्यारे ! पुकार पुकार कर दौड़ रही है, धरती पर गिर जाती है, उनकी बाल लीलाओ का वर्णन करते करते स्वयं उन लीलाओ का अभिनय करने लगती है, उन्हें कोई दर्द कोई सांसारिक बातो का एहसास ही नहीं है,उन्हें केवल श्री कृष्ण का दर्शन चाहिए, ऐसी विरह वेदना शेष जी अनंत मुख्य से वर्णित करे तो नहीं हो पाती, वही वेदना आज निमाई पंडित को हो रही है,


जब प्रभु ने गोपियों की वेदना देखि और उनसे मिले तो उन्होंने देखा वह विरह वेदना से तड़प तो रही है किन्तु प्रभु की लीलाओ का स्मरण कर आनंदित भी हो रही है, उन्हें अद्भुत आनंद प्राप्त हो रहा है, ये कैसी विचित्र दशा और भक्ति है? प्रभु स्वयं नहीं समझ पा रहे की इसमें कौन-सा सुख और आनंद है? हमे लगता है जब प्रभु निमाई पंडित बनकर धराधाम पर भक्ति-रस का आनंद लेने पधारे है तो आज इस दशा में वो इसीलिए आये है की वह भी वही गोपीगीत वाला विरह महसूस करना चाहते है, वह भी भक्ति और प्रेम का वही आनंद लेना चाहते है तभी भक्त के रूप में स्वयं प्रभु इस धरा पर पधारे है, 



 ॥  हरि बोल हरि बोल, बोल हरि बोल, मुकुंद माधव गोबिन्द बोल   ॥

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कृष्णचैतन्यामृतं - गोपीभाव विरह वेदना लीला
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