भक्ति- प्रेम उन्माद दशा प्रेमी पागल ही तो होता है, जो पागल है प्रेम में, अपने प्रेमी के दीदार में, जिसे अपने प्रेमी के अलावा कुछ न...
![]() |
भक्ति- प्रेम उन्माद दशा |
प्रेमी पागल ही तो होता है, जो पागल है प्रेम में, अपने प्रेमी के दीदार में, जिसे अपने प्रेमी के अलावा कुछ नहीं भाता है, सम्बन्धो की तिलिया जल जायेगी इसी इसी तीली से यदि प्रभुप्रेम का दिया जला लोगे तो वह अग्नि जलती रहेगी.......मीरा बाई पागल ही तो थी, चैतन्य महाप्रभु पागल ही तो थे, जिन्होंने कृष्ण प्रेम की अग्नि में स्वयं को बाति के समान जला डाला और उस अनंत प्रकाश के अंदर समाहित हो गए, प्रेम में पागल तो बनना ही पड़ता है,तभी प्रेमी कहलाना सार्थक होता है.......
महाप्रभु की भक्ति उन्माद - दशा
महाप्रभु की दशा पागलो की सी हो गयी है कृष्ण प्रेम में, हर समय रुदन करने लगते है,कभी जोर जोर से हंसने लगते है, कभी लुढ़क कर शिथिल काया से भूमि पर गिर पड़ते है, कभी नाचने लगते है, कभी क्रंदन करने लगते है की हा कृष्ण ! हा कृष्ण ! कहा चले गए? कहाँ हो प्रभु? मुझ अनाथ को कहाँ छोड़कर चले गए? हा हा कृष्ण ! मुझे पकड़िए, मुझे अपने आलिंगन का सहारा दीजिये, ऐसे दिन रात तड़प तड़प कर कभी बेहोश आ जाते, भांति भांति के माता शची और विष्णुप्रिया जी उपचार करते, कभी होश में आते और कहते क्या हो रहा है? मुझे क्या हो गया है? मैं नहीं जानता, मेरा मन मेरे वश में नहीं है,
महाप्रभु की ऐसी दशा किसी से छिपी नहीं थी, जो वैष्णव जन है, वह तो इसे भक्ति का आवेश मानते है और महाप्रभु की माता को धन्य कहते है की ऐसे भक्त को जन्म दिया, किन्तु कुछ सांसारिक लोग जिन्हे भक्ति के आलोकिक प्रभाव का ज्ञान नहीं है कहते है, पागलपन आ गया है, या पुराना वातरोग मस्तिष्क को विकृत कर रहा है, कोई इसे रोग कहता है, कोई पागलपन तो भक्त इसे भक्ति की महादशा कहते है,
यदा ग्रहग्रस्त इव क्वचिदष- त्याक्रन्दते ध्यायति वन्दते जनम I
मुहुः श्वसन वक्ति हरे जगतपते, नारायणे त्यात्मगतिर्गतत्रप: II
(श्री मद्भागवत ७ I ७ I ३५ )
"प्रेमी भक्त प्रेम के भावावेश में पिशाच के पकडे जाने वाले मनुष्य के समान कभी तो खिखिलाकर हंसने लगते है, कभी जोरो से चीत्कार करने लगते है,कभी भगवान् के स्वरुप का ध्यान में खो जाते है कभी उनके चरणों को पकड़ कर वंदना करने लगते है, कभी किसी भी मनुष्य को पकड़ कर वंदना करने लगते है उनके चरण पकड़ लेते है, कभी लम्बी लम्बी साँसे छोड़ने लगते है, जगतलज्जा का उन्हें कोई भान नहीं रहता उन्हें इस देह का ही भान नहीं रहता फिर लोक लाज से क्या? वह जोर जोर से हरये परमात्मने नमः, हे नारायण ! हे जगतपते! हे गोपाल! हे गोबिंद ! पुकारने लगता है",
संसार के साधारण लोग तो इस भावावेश को किसी सांसारिक व्याधि का ही नाम देते है, कोई पागल कहता है, कोई बुद्धि का विकार तो कोई मस्तिष्क में खराबी कहता है, कोई वातरोग का अतिरेक तो कोई बुरा साया आदि कहता है, किन्तु जो परम् वैष्णवजन है, परम् भक्त है उन्हें ही मालूम होता है की जब भक्ति का सागर किसी मनुष्य के हृदय से प्रसफुरित होता है तो कैसी विचित्र दशा होती है, यह सब बाते सांसारिक सुखोपभोग के चहेते लोगो की बुद्धि से भी प्रे है, उन्हें किसी आलौकिक अनुभव का ज्ञान भी नहीं होता है,
स्थायी रूप से जिसे प्रेम मिल जाता है वह फिर पागल ही बन जाता है, प्रेममार्ग में यथार्थ रूप से प्रविष्ट हो जाने पर भक्त की वृति फिर इस संसार के विषयो में नहीं प्रवेश करती है,वह अपने प्रेम रस से सदा सराबोर उन्मत रहता है, कभी संसार का भटकाव कभी भक्ति का ऊपरी स्तर ऐसा उतार-चढ़ाव नहीं रहता उसके जीवन में, कबीर जी ने भी कहा है,
छन्हि चढ़ै छन उतरै, सो तो प्रेम न होय,
अघट प्रेम पिंजर बसै, प्रेम कहावै सोय,
महाप्रभु चैतन्य देव का प्रेम ऐसा ही अद्भुत है,उनकी हृदय कंदरा से जो भक्त-भाव की भव्य भागीरथी प्रेम प्रवाह निर्झरित हुआ है,वह सदैव के लिए बढ़ता ही रहा है, वह झरना किसी सावन -भादव की नदियों के जैसा नहीं है,की ग्रीष्म की तपन से सुख जाए और सावन की वर्षा से बहने लगे, यह प्रवाह तो नित निरन्तर बहनेवाला और उत्तरोत्तर बढ़ने वाला ही है,उनके हृदय की प्रेम धारा का प्रवाह तो अपने प्रीतम रुपी सागर से मिलकर ही एकाकार करने वाला है, उससे पहले कोई बढ़ा उसे रोक नहीं पायी है,
भावावेग की दशा का वर्णन: एकबार महाप्रभु रत्नगर्भ जी के पास गए, रत्नगर्भ जी का कंठ बहुत ही मधुर और स्वभाव अत्यंत कोमल है, वे बड़े प्रेम के साथ मधुर वाणी से इस श्लोक को गाते है,
श्यामं हिरण्यपरिधिम वनमाली बर्धातु प्रवालननटवेश्मनुव्रतानसे ,
विन्यस्त हस्तमितरें धुनानमबज्म कर्णोतपलालककपोलमुखाब्जहासम
(श्री मद्भागवत १० I २३ I २२ )
इस श्लोक का सुन्ना ही था की महाप्रभु की दशा प्रेम से उन्मत हो गयी, जहां बैठे थे वही से उछाल मार धरती पर गिर पड़े और बेहोश हो गए, उन्हें किसी प्रकार की सुध बुध ही नहीं है, लम्बी लम्बी आहें भर रहे है, अर्धमूर्छित सी अवस्था में बार बार कहते है आचार्य मेरे ह्रदय में प्रेम का संचार कर दो,कानो में अमृत रस भर दो, फिर से हा फिर से वही श्लोक मुझे सुनाइए,
आचार्य ने फिर मधुर वाणी से इसी श्लोक का उच्चारण किया, दोबारा इसे सुनते ही महाप्रभु जोर-जोर से रोने लगे,उनके भारी रुदन को सुनकर आस-पास के सभी लोग एकत्रित हो गए उसी स्थान पर,सभी प्रभु की ऐसी दशा को देखकर चकित हो गए, किसी ने इस प्रकार का प्रेम रुदन और विरह नहीं देखा था आज तक, प्रभु अपने कमल नेत्रों से निर्झर प्रेमाश्रु बहा रहे है,प्रेम से विह्वल अवस्था है, बार बार कह रहे है," प्यारे कृष्ण ! कहाँ हो? क्यों नहीं मुझे हृदय से लगा लेते ? अहा, मुझे क्यों नहीं अपने प्रेम-रस का पान करवाते,
यह बोलते बोलते प्रभु रत्नगर्भ को आलिंगन कर लेते है,उनके आलिंगन से रत्नगर्भ भी प्रेम उन्मत हो जाते है, अभी तक एक पागल है अब दो-दो पागल हो गए है, रत्नगर्भ कभी जोरो से हँसते है, कभी रोते है, कभी प्रभु के चरणों को पकड़कर प्रेम की भिक्षा मांगते है, कभी फिर से उसी श्लोक का पाठ करने लगते है, जैसे ही रत्नगर्भ पाठ बोलते है, महाप्रभु फिर से कभी मूर्छित कभी रुदन तो कभी हसन करने लगते है, बहुत ही अद्भुत दशा सी हो गयी है, कभी रत्नगर्भ ऐसा करते ऐसी दशा देखकर गदाधर पंडित जी ने उन्हें श्लोक का पाठ करने से रोक लिया और जैसे तैसे कुछ समय बाद महाप्रभु को बाह्य चेतना आयी और सब मिलकर गंगा-स्नान के लिए चल पड़े,
कृष्णचैतन्यामृतं - महाप्रभु की भक्ति- प्रेम उन्माद दशा
COMMENTS