केवट और श्रीरघुनाथ जी भक्तमाल की माला में हमने अनेको भक्तो की चर्चा सुनी है किन्तु ऐसे ही एक भक्त केवट भी हुए है श्री...
केवट और श्रीरघुनाथ जी
भक्तमाल की माला में हमने अनेको भक्तो की चर्चा सुनी है किन्तु ऐसे ही एक भक्त केवट भी हुए है श्रीराम जी के,आज उन्ही के भाव और भक्ति की चर्चा करते है की क्यों भगवान् केवट के वश में होकर उसके समक्ष झुके हुए है, क्यों उसकी हर बात में उसकी सहमति कर रहे है? क्या दिव्यता है केवट के भावो की?
श्रीरघुनाथ जी जानकी जी और लखन लाल जी, निषाद राजा के संग गंगा जी के किनारे आते है, और गंगा पार जाने के लिए साधन देखते है, आज विधि का विधान देखिये जो अवधपुरी के राजा है जिनके बड़े बड़े महल है, जो जानकी जी राजा जनक की पुत्री है आज वन गमन और गंगा पार उतरने के लिए अवलंब ढूँढ रहे है, जो परमपिता है जो सभी को भव सागर से पार करने वाले है, जो सभी दीन दुखियो के अवलंब है, आज स्वयं अवलंब ढूंढ रहे है, अद्भुत लीला है दीनानाथ जी की,
रघुनाथ जी केवट को आवाज़ लगा रहे है, अरे भैया केवटिया जरा इधर आइये अपनी नौका में हमे बिठलाकर गंगा पार उतरवा दीजिये,अरे केवट भाई सुनो इधर आओ हमे विलम्ब हो रहा है, किन्तु ये क्या केवट रघुनाथ जी की आवाज़ को अनसुना कर रहा है, क्यों? यहां केवट का भाव अति दिव्य है जो केवल और केवल एक सच्चे भक्त के हृदय में हो सकता है, केवट सोच रहा है, की यदि मैंने रघुनाथ जी की सुनी तो वो यहां से चले जाएंगे,स्वयं राजा दशरथ, माताओ के कहने पर, प्रजा के रुदन पर किसी के कहने से नहीं रुके तो मैंने सुना तो ये चले जाएंगे, लकिन एक भक्त कभी नहीं चाहता की उसके प्रभु उससे दूर जाए,इसीलिए वह अनसुना कर रहा है की किसी तरह प्रभु को जाने से रोक लू, किन्तु विधि का विधान निश्चित है, प्रभु को तो अपने कार्य पूर्ण करने हेतु आगे जाना ही है, इसलिए जब तक टाल सकता नहीं सुना, किन्तु निषाद राजा ने समीप जाकर उसे रघुनाथ जी के पास ले आये ,
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुं सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥
किन्तु केवट मना कर देते है, की नहीं नहीं रघुनाथ जी में आपका मर्म जनता हूँ, कैसा मर्म जनता है यह भक्त, यह दो बाते है केवट जी के बारे में, की केवट यह जनता था की रघुनाथ जी के चरणों की रज चमत्कारी है जिसके छूने से पत्थर की शीला ( अहिल्या) नारी बन गयी थी, मेरी नाव तो काठ की है जोकि पत्थर से भी कोमल है इसका ना जाने क्या बन जाएगा? मेरा तो परिवार भूखा मर जाएगा, जिनका पालन-पोषण में इसी नाव के भरोसे कर रहा हूँ, इसलिए हे प्रभु ! में आपको इस नाव में नहीं बिठाऊंगा,
" पूर्व जनम में यही केवट क्षीर सागर में एक कछुआ था, जो की नारायण जी का परम भक्त था और उनके चरण स्पर्श करना चाहता थे, भगवान् शेष जी की सैया पर निद्रामग्न हैं, माता लक्ष्मी चरण दबा रही हैं, भगवान् का एक पाँव सैया से बहार निकला हुआ हैं, जिसका अंगूठा यह कछुआ स्पर्श करने का बार बार प्रयास करता की, उसे प्रभु चरणों का स्पर्श हो जाए, किन्तु जैसे ही वह कोशिश करता तो कभी तो शेषनाग जी और कभी लक्ष्मी जी उसे हटा देते है और चरण स्पर्श नहीं करने देते, बार बार प्रयत्न करने पर भी विफल हो जाता हैं और दुखी होता हैं, तभी नारद जी उसकी पीड़ा जानकर उसे रामावतार की बात और उसके मिलन की बात बताते हैं, इस प्रकार अनेक जन्मो के बाद वही कछुआ रामावतार में केवट के रूप में जन्मा हैं, और आज उसे प्रभु अवतार की बात पहले से मालूम हैं इसीलिए कहता हैं, 'कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना' अर्थात हे रघुवर ! मैं आपके रहष्य को जनता हूँ की आप पूर्ण परमेश्वर हैं,
आज विधि ने विधान बदल दिया हैं, आज एक भक्त के पक्ष में सभी पासे पड़ रहे हैं, यह भी श्री रघुनाथ जी की कृपा हैं, की अपने भक्त के लिए कैसी भी लीला करने को तैयार रहते हैं, आज केवट कहता हैं, हे शेषावतार लखन जी और लक्ष्मी रूपा जानकी जी, आज आपका कोई दाव नहीं चलेगा, आज प्रभु मेरे वशीभूत हे, आज आप भी नहीं रोक सकते मुझे प्रभु के चरण धोने से, उनका चरणामृत लेने से, देखिये प्रभु की लीला और मेरा अनुग्रह आज कितने जन्मो के बाद मेरे प्रभु मुझे दर्शन देने आये हे, आज मेरे जैसा भाग्यशाली इस संसार में और कौन होगा? प्रभु केवट के हृदय के उज्ज्वल भावो से परिचित हे, इसलिए एक और खड़े खड़े अपने भक्त के भावो का आनंद ले रहे हे, और उसकी ढिठाई पर भी मुस्कुरा रहे हे, ऐसे भाव से ही प्रभु रीझते हैं, आनंदित होते हैं,
तभी प्रभु केवट से कहते हैं, की हमे बहुत विलम्ब हो रहा हैं, अपनी नौका में बिठा लो न भाई,
केवट मुस्कुरा रहा हैं और कहता हैं,
"जो प्रभु पार अवसि गा चहहु I मोहि पद पदुम पखारन कहहु II "
प्रभु आपको पार तो मैं अवश्य करवा दूंगा किन्तु उससे पहले आपके चरणों को धोकर इनकी सारी रज उतार लू, तभी आपको नौका में बिठाऊंगा,
"पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं।।
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं।। "
हे दीनानाथ ! मुझे पता हैं लखन जी को बहुत क्रोध हो रहा हैं, लेकिन वो चाहे तो मुझे तीर भी मार दे, किन्तु बिन चरण धोये आज मैं आपको नौका में नहीं चढ़ाऊंगा, आज केवट लक्ष्मण जी का भी भय नहीं मानता क्योंकि उसे पता हैं आज भगवान् भक्त के वश में हैं, इसलिए वह भी कुछ नहीं कर पाएंगे, प्रभु आप मुझे अपने चरण प्रक्षालन कर लेने दीजिये, मुझे कुछ और नहीं चाहिए, नाही मुझे आपसे कोई उतराई चाहिए अर्थात कोई दाम नहीं लेना पार उतरने का किन्तु आपकी चरण रज चाहिए,
प्रेम लपेटे अटपटे,सुनि केबट के बैन I
चितइ जानकी लखन तन,बिहसे करुनाऐन II
इस प्रकार भगत के उलटे सीधे वचन और हठ पर भी भगवान् हर्षित हो रहे हैं, क्योंकि भगवन को केवल निस्चल भक्त और उनके प्रेम मई भाव ही पसंद हैं, इसीलिए केवट की जिद्द के आगे भगवन मुस्कुरा रहे हैं, बार बार लखन और जानकी जी का मुख देखते हैं जो की चिढ़े से हुए हैं, किन्तु भगवान् को अपने भक्तो के संग लीला में ही आनंद होता हैं, और लखन जी और सीता जी अर्थात शेष और लक्ष्मी जी के कारण जो भक्त पहले भगवान् से नहीं मिल पाया था आज उन्ही को चिढ़ा रहा हो ऐसा लगता हैं, और प्रभु अपने भक्त की इच्छापूर्ति के लिए उसका साथ दे रहे हैं,
कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई।।
तब भगवान् कहते हैं, केवट वही करो जो तुम्हारा दिल कहता हैं, या जो तुम चाहते हो, आज मैं पूर्ण रूप से तुम्हारे आधीन हूँ, अर्थात मेरे भक्त आज मैं तुम्हारी सब इच्छा पूर्ण करने हेतु तुम्हारे सामने तुम्हारी इच्छा के अनुरूप प्रस्तुत हूँ, शीघ्र करो हमे विलम्ब हो रहा हैं, जल्दी से जल ले आओ और मेरे पैर धो लो,
जासु नाम सुमरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।।
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।
जिनके चरणोदक की एक बून्द से समूल पाप नष्ट हो जाते हैं, जो सभी को भव-सागर से पार करने वाले हैं, आज केवट के निहोरे पर सीधे बनकर उसके सामने विवश या प्रेम वश समर्पित होकर खड़े, कैसी दिव्य लीला हैं यह भक्त और भगवान् की?
केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा।।
प्रभु आज्ञा सुनते ही, केवट भाग कर कठौता और गंगा जी का जल ले आता हैं, और अपने पुरे परिवार सहित प्रभु के चरण प्रक्षालन करता हैं, धन्य हैं आज केवट और उसके परिवार के भाग्य, जिन चरणों की एक झलक पाने को सुर-मुनि तरसते हैं आज भक्त के वश उसके समक्ष पूर्ण रूप से प्रभु विराजमान हैं,
अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा।।
जैसे प्यासे को मरुस्थल में जल की बून्द की आकांक्षा रहती हैं, जैसे मृग को कस्तूरी की तड़प रहती हैं, चातक को स्वाति की बून्द की, मरते को साँसों की मानो ऐसे ही केवट की जन्मो जन्मो की आस आज पूरी हो गयी, वह इतना आनंदित हो गया की बार बार प्रभु के चरण पखारता हैं, एक धोता हैं कठौते में, जैसे ही वह साफ़ करता हैं तो दूसरा पाँव प्रभु नीचे रखते उस पर समुद्र की रज लग जाती, फिर दूसरा धोता तो पहला ऐसे ही रजपूर्ण हो जाता, बार बार धोता बार बार रज लग जाती, अब केवट की चतुराई कह लो या प्रभु का प्रेम कह लो एक पाँव अपनी गोद में रखता हैं तो दूसरा कठौते में, अब रज से तो पाँव बच गए किन्तु प्रभु खड़े होने में असहज हो रहे हैं, लड़खड़ा रहे हैं, भक्त की चतुराई देखिये, कोई भी मौका आज हाथ से नहीं जाना चाहिए,
केवट कहता हैं की,"प्रभु आप असहज हो रहे हैं तो अपने दोनों हाथ से मेरे सिर को पकड़ लीजिये, अर्थात अपने दोनों हाथ मेरे मस्तक पर रख लीजिये", कैसे अद्भुत भाव हैं केवट के? दोनों चरण खुद के हाथो में, और प्रभु के हाथो में खुद का मस्तक, कैसी दिव्य छवि हैं, कैसा बड़भाग हैं? आज तक कितने ही भक्तो का भाव सुना, देखा किन्तु आज केवट का भाव तो दिव्यतम दिव्य हो गया हैं, ऐसे भाग्य से तो देवता भी ईर्ष्या करते हैं,
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं।।
भले ही देवता ऐसे भक्त से ईर्ष्या करते हो, किन्तु आज उनको भी केवट के भाग की बड़ाई और उसके दिव्य भावो की प्रसंशा करनी पड़ी हैं, आज वो भी देख रहे हैं की जब प्रभु की किरपा उनके भक्तो पर होती हैं तो उसके समान किसी अन्य का भाग्य भी नहीं होता, और देवता भी ख़ुशी से पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं इस छवि पर,
"पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार।।"
इस प्रकार चरण पखार के केवट ने चरणामृत पान किया और अपने पुरे परिवार को भी चरणोदक पान करवा दिया, यह तक की अपनी सात पीढ़ियों के पितरो को भी भाव पार करवा दिया, और आदर सहित प्रभु को जानकी जी और लखन सहित नौका में बिठा कर गंगाजी के पार ले गया,
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई।।
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा।।
राम जी को संकोच था की केवट को उतराई में देने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं, किन्तु जानकीजी ने मन की जानकर रघुनाथ जी को अपनी मुद्रिका दी, जब राम जी केवट को कहते हैं की भाई ये मुद्रिका तुम उतराई के रूप में ले लो, तो केवट की दृष्टि से अश्रुपात होने लगता हैं,और भाव-विभोर होकर कहता हैं, हे त्रिलोकीनाथ ! आज मुझ से बड़भागीशाली और कौन होगा? आज कौन सा ऐसा सुख हैं, जो मैंने आपकी कृपा से नहीं पा लिया हो? आज मेरे ही नहीं मेरे कुल के सभी पीढ़ियों के भी दोष मिट गए हैं,समूल पाप नष्ट हो गए, प्रभु !
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी।।
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें।।
आज तक पेट और परिवार के पोषण के लिए अर्थात इस संसार के लिए मजदूरी के लिए ही कर्म किये हैं, किन्तु आज मेरे जन्मो जन्मो का पुण्य उदित हुआ तो आज आपके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ हैं, जिससे मेरे इस संसार के ही नहीं बल्कि भव-पार होने के मार्ग खुल गए हैं, आज आप को मैंने गंगा-पार किया हैं, मैं छोटा केवट हूँ, आप बड़े केवट हैं, भवरूपी सागर से पार करने वाले हैं, जब मैं आपके पास आउ तो आप भी मुझे पार लगा देना, हम दोनों का एक ही काम हैं, और एक ही प्रकर्ति के होने से एक दूसरे से कोई दाम नहीं लेते,
बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ।।
इस प्रकार प्रभु के, माता जानकी और लखन जी के कहने पर बार बार कहने पर भी, केवट कुछ नहीं लेता और निर्झर प्रेमाश्रु बहाता हुआ अपने को धन्य धन्य जानकर अनुग्रहित अनुभव कर रहा हैं,
उसके पुलकित शरीर का उन्माद, उसके खड़े हुए रोंगटे, उसकी जुबान की कम्पन, गले का रुंधना, शब्दों का जुबान से ना निकलना, ऐसा ऐसा भावपूर्ण भाव देखकर कोई पत्थर भी जीवंत हो जाए, ऐसी दशा केवल एक सच्चे भक्त की ही हो सकती हैं, केवट की ऐसी दशा देख प्रभु भी पुलकायमान हो गए और उसे अपने हृदय से लगा लिए, और अपनी परमपावन अविरल भक्ति का वरदान दिया, और उसे विदा किया.
जय श्रीराम जय भक्तवत्सल भगवान् जी की, भक्तमाल महात्म्य को कहने सुनने का यही महत्व हैं की केवट सरीखे भक्तो के भाव, उनकी मनोदशा और भक्ति को जानकर ही हम भक्ति भक्त भगवंत और गुरु की महिमा समझ सकते हैं,
जय श्रीराम जय भक्तवत्सल भगवान् जी की, भक्तमाल महात्म्य को कहने सुनने का यही महत्व हैं की केवट सरीखे भक्तो के भाव, उनकी मनोदशा और भक्ति को जानकर ही हम भक्ति भक्त भगवंत और गुरु की महिमा समझ सकते हैं,
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