सूरदास जी सूरदास का जन्म १४७८ (1478) ईस्वी में रुनकता नामक गाँव में हुआ। यह गाँव मथुरा- आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। ...
सूरदास जी
सूरदास का जन्म १४७८ (1478) ईस्वी में रुनकता नामक गाँव में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही 1 नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मणपरिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में 2 मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में १५८० (1580) ईस्वी में हुई।
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज की पंछी, फिरि जहाज पै आवै॥
कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।
परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल भावै।
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥
सूरदास
जी
जैसे भक्तो के चरित्र से भी प्रभु क़ी भक्ति का रोमांच प्राप्त होता है, सूरदास जी जनम
से हि नेत्रहीन थे, इसी कारण अपने परिवार मे भी तिरस्कृत रहे, बचपन मे हि घर छोड़ कर
बृज मे रहने लगे और अपना सम्पूर्ण जीवन श्रीकृष्ण भक्ति मे समर्पित कर दिया,
धनि
यह
वृन्दावन
की
रैनु।
नंदकिसोर
चरावे
गैयां
बिहरि
बजावे
बैनु॥
मनमोहन
कौ
ध्यान
धरै
जो
अति
सुख
पावत
चैनु।
चलत
कहां
मन
बसहिं
सनातन
जहां
लैनु
नहीं
दैनु॥
यहां
रहौ
जहं
जूठन
पावैं
ब्रजवासी
के
ऐनु।
सूरदास ह्यां
की सरबरि नहिं
कल्पवृच्छ
सुरधैनु॥
मथुरा के पास गऊघाट पर रहते थे, वहीं
रहकर अनेकानेक पदो क़ी रचना क़ी, नेत्रहीन होने पर भी प्रभु क़ी लीलाओं का इतना यथार्थ
वर्णन किया क़ी कोई दृष्टियुक्त व्यक्ति भी ऐसा वर्णन नही कर सकता, क्योंकि उनकी अंतरात्मा
भगवद्भक्ति मे इतनी तल्लीन थी क़ी उन्हें संसार क़ी दृष्टि क़ी जरुरत हि नही थी, स्वयं
कान्हा बालरूप मे आकर उनसे पद का श्रवण करते थे,
खीझत जात माखन खात।
अरुन
लोचन
भौंह
टेढ़ी
बार
बार
जंभात॥
कबहुं
रुनझुन
चलत
घुटुरुनि
धूरि
धूसर
गात।
कबहुं
झुकि
कै
अलक
खैंच
नैन
जल
भरि
जात॥
कबहुं
तोतर
बोल
बोलत
कबहुं
बोलत
तात।
सूर
हरि
की
निरखि
सोभा
निमिष
तजत
न
मात॥
सूरदास जी का चिंतन इतना जीवंत हैं की, छोटी सी छोटी लीला का वर्णन ऐसे किया हैं जैसे सब उनके सामने घटित हो रहा हो, ऐसा ही वर्णन उन्होंने श्री कृष्ण और श्री राधिका जी के प्रथम मिलन का अपने पद के माध्यम से किये, और ऐसा लगता हैं जैसे सामने ही लीला हो रही हो,
कन्हैया राधा जी से पूछ रहे हैं,
“बुझत स्याम कौन तू गोरी |
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी ||
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी |
श्रीकृष्ण ने पूछा की हे गोरी ! तुम कौन हो ? कहां रहति हो ? किसकी पुत्री हो ? हमने पहले कभी ब्रज की इन गलियों में तुम्हेँ नहिं देखा | तुम हमारे इस ब्रज में क्यों चली आई ? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहतीं | यह क्या लेने आयी हो?
तब श्री राधिका जी कहती हैं,
"सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी ||
राधा जी बोली, मैं सुना करती थी की बृज में एक अनोखा चोर फिरा करता हैं, वह नंदजी का बेटा होकर भी घर घर माखन चोरी करता फिरता हैं | सोचा आज वाको ही देख आउ,
श्री कृष्ण बात को पलटते हुए बड़ी चतुराई से कहते हैं,
"तुम्हरो कहा चोरी हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी |
तब कृष्ण बोले, अच्छा ऐसा सुनो हैं तुमने, कोई बात नहीं कोई चिंता ना करो, हम हैं यहाँ कौन बात की चिंता तुम्हे, और फिर तुम्हारे पास तो कोई माखन भी नहीं हैं, तुम्हारा हम क्या चुरा लेंगे | फिर बात घुमाते हुए की कहि वह चोर हम ही यह भेद न खुल जाए कहते हैं अच्छा अच्छा, अब आओ हम तुम मिलजुलकर गेंद से खेलते हैं |
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भूरइ राधिका भोरी ||”
सूरदास कहते हैं की इस प्रकार रसिक कृष्ण ने बातों ही बातों में भोली-भाली राधा को भरमा दिया | और उन्हें खेलने में लगा कर उनकी संगति का आनंद ले रहे हैं,
यही पर सूरदास जी क़ी मुलाकातः श्री
वलभाचार्य जी से हुई उनसे श्री मदभग्वद का दशम स्कंध सुन कर उन्होंने श्रीकृष्ण के
बाल रूप और उनकी लीलाओ का साक्षात रूप प्रस्तुत कर दिया. यही नही आरम्भ से लेकर गोपीगीत
तक का सारा सजीव चित्रण वर्णन अपने पदो मे कर दिया.
रे मन
कृष्ण नाम कहि लीजै
गुरु के बचन अटल करि मानहिं, साधु समागम कीजै
पढिए गुनिए भगति भागवत, और कथा कहि लीजै
कृष्ण नाम बिनु जनम बादिही, बिरथा काहे जीजै
कृष्ण नाम रस बह्यो जात है, तृषावंत है पीजै
सूरदास हरिसरन ताकिए, जन्म सफल करी लीजै
जीवन क़ी अनोखी घटना: एक बार सूरदास
जी कुए मे गिर गए,तब श्रीकृष्ण ने उनकी रक्षा क़ी और बचा लिया, श्री राधा जी ने उनसे
पूछा क़ी आपने उसे क्यों बचाया हैं? तब भगवान बोले क़ी यह मेरा परम भक्त है, मै अपने
भक्त को कोई हानि कैसे होने दे सकता हूँ,मुझे मेरे भक्त मेरी आँखों क़ी पुतलियों के
भांति परमप्रिय हैं, इसीलिए मैने अपने भक्त क़ी रक्षा क़ी है, श्री राधा जी आप भी कभी
मेरे ऐसे भक्त के निकट मत जाना, राधा जी ने सोचा ऐसा भक्त तो जरूर मिलना चाहिए, जैसे
हि सूरदास जी के निकट गयी तो उनको राधा जी क़ी एक पायल मिल गयी अन्तदृस्टी से सूरदास
जी ने राधा जी को पहचान लिया था, राधा जी ने जब अपनी पायल वापस मांगी तो सूरदास जी
बोले," मै तो जनम से अँधा हूँ,और ये भी नही जानता क़ी ये पायल तुम्हारी भी है या
नही,तब श्रीकृष्ण ने उन्हें नेत्रज्योति प्रदान क़ी,और उन्हें वरदान मांगने को भी कहा,
सूरदास जी बोले मैंने आप युगल छवि के दर्शन कर लिए हैं, यही मेरा सौभाग्य हैं, आप मुझे
वर देना हि चाहते है,तो मेरी नेत्रज्योति वापिस ले लीजिए, अब आपके दर्शन के बाद मुझे
और कोई संसार नही देखना हैं, प्रभु ने तभी उन्हें नेत्रहीन बना दिया. धन्य है सूरदास
जी जैसे भक्त जो जानते है क़ी प्रभु क़ी माया बहुत बड़ी ठगनी है, पल पल इस संसार मै व्याप्त
रह कर बड़ो बड़ो को मुर्ख बना देती है, इसीलिए अपनी नेत्रहीनता को वापिस मांग लिया ताकि
न दिखेगा संसार और न माया ठग सकेगी, संसार देखने योग्य नही है, क्योंकि संसार देखने
वाले नेत्रों को प्रभु नही दिखाई देते, धन्य है सूरदास जी जैसे भक्त,
प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो |
समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो ||
एक लोहा पूजा मे राखत, एक घर बधिक परो |
सो दुविधा पारस नहीं देखत, कंचन करत खरो ||
एक नदिया एक नाल कहावत, मैलो नीर भरो |
जब मिलिके दोऊ एक बरन भये, सुरसरी नाम परो ||
एक माया एक ब्रह्म कहावत, सुर श्याम झगरो |
अबकी बेर मोही पार उतारो, नहि पन जात तरो ||
सूरदास जी द्वारा भ्र्मर-गीत के अंतर्गत मन न भए दस-बीस एक अनुपान रचना है, जो गोपी-भाव को दर्शाता है, की हमारे पास कोई दस-बीस मन नहीं है, केवल एक ही मन है जोकि माधव की रूप माधुरी में खो गया है, अब हमारा मन किसी और ईश की साधना में नहीं लगता है, हम श्याम-विरह में इतनी शिथिल हो गयी है की हमारी कोई इन्द्रिय अब सजग नहीं है, केवल श्याम के लौटने की आस से ही शरीर में प्राण चल रहे है,नहीं तो हम सब मृत शरीर ही है, हे उधो ! तुम तो श्याम सूंदर के सखा हो, योगी और ज्ञानी हो तुम किसी और की आराधना करो न करो लेकिन हमारे ईश्वर तो केवल और केवल नन्द के लाला हे, हमे और कोई ज्ञान, निर्गुण ईश से कुछ नहीं लेना देना, इस प्रकार सूरदास के पदों के एक एक शब्द में श्री कृष्ण की अगाध भक्ति का प्रवाह मिलता हे, नेत्रहीन होने पर भी एक एक लीला का सजीव वर्णन सूरदास जी सरीखे बिरले भक्त ही कर सकते हे, धन्य हे भाव भक्ति सूरदास जी की,
ऊधौ मन न भए दस-बीस।
एक हुतो सो गयो स्याम संग को अवराधै ईस॥
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु ज्यों देही बिनु सीस।
आसा लागि रहत तन स्वासा जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के सकल जोग के ईस।
सूर हमारैं नंदनंदन बिनु और नहीं जगदीस॥
सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है।इस प्रकार हम देखते हैं कि सूरदास हिंदी साहित्य के महाकवि हैं, क्योंकि उन्होंने न केवल भाव और भाषा की दृष्टि से साहित्य को सुसज्जित किया, वरन् कृष्ण-काव्य की विशिष्ट परंपरा को भी जन्म दिया। सूरदास जी जैसे भक्तो के भाव इतने सजग है की स्वयं श्री कृष्ण उनके समीप अपनी ही लीलाओ का गुणगान श्रवण करने आकर बैठ जाते है, ऐसे भावो का वर्णन जो निस्संदेह आज भी हम जैसे पतितो को हरी भक्ति का प्रेम सिखला सकता है, जो लाखो भक्तो को श्री कृष्ण भक्ति के मार्ग पर चलने को बाध्य क्र देता है, धन्य है ऐसे कवि, संत और भक्त,
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