भक्तमाल -- (महात्म्य-2)

भक्तमाल -- (महात्म्य-2) भक्त-भाव  भक्तमाल महात्म्य के अगले चरण में हम जानते है,कि भक्त अपने वश में प्रभु को कैसे कर लेते है? भक...

भक्तमाल -- (महात्म्य-2)

भक्त-भाव 

भक्तमाल महात्म्य के अगले चरण में हम जानते है,कि भक्त अपने वश में प्रभु को कैसे कर लेते है? भक्त का प्रारूप या उसकी साधना में ऐसा क्या विलक्षण भाव है है, जिससे भगवान् उससे अति प्रेम करते है? कौन सी ऐसी रीती प्रतीति है, जो स्वयं नारायण दौड़ते हुए चले आते है? साथ ही भक्त मास्टंर कि रोचक दृष्टान्त को भी जानते है,


अब प्रश्न ये उठता है कि भगवान अपने भक्त के वश में रहते है अर्थात भक्त का कोण सा ऐसा गुण है , रूप है, या मनोभाव है, जो प्रभु को अपने भक्त के अधीन बना देता है, प्रभु किस भक्त से अत्यधिक प्रेम करते है,या भक्त का रूप, व्यवहार कैसा होना चाहिए जिससे भगवान को गर्व महसूस होता है कि ये मेरा भक्त है,


भक्त के प्रारूप से मतलब किसी बाह्य रूप, रंग, आकार से नही है बल्कि उनके आंतरिक मनोभावों और क्रियाओ से है, भक्त का रूप यानी उनका भाव और आनंद होता है, जो सदैव एकाकी होता है, अर्थात हर स्तिथि में उनके भाव स्थिर होते है, या यह कहा जा सकता है कि भक्त सदैव एक ही भाव में स्थित रहता है, यह भाव केवल और केवल भगवान को समर्पित होता है, संसार के अनन्य भावो से उनका कोई सरोकार नही होता, ही भक्त संसार के मिथ्या आडंबरों को अंगीकार करते है, वह कभी भी काम-क्रोध, लोभ-मोह, दम्भ,अभिमान,ईर्ष्या,और द्वेष के झंझटों में नही पड़ता, वह तो केवल निजभाव यानी कि अपने आराध्य के प्रेम में डूबा रहता है,


भक्तमाल कथा के श्रवण का यही महत्व है कि इसके सुनने से हमे भक्तो कि रीती-प्रतीति , उनके व्यवहार,गुण,और भावो का पता चलता है जो हमे भगवद मार्ग पर अग्रसर होने कि प्रेरणा देता है, उनके चरित्रों के माध्यम से हमे प्रभु प्राप्ति का मार्ग मिल जाता है,  अनेक भक्त अलग अलग भावो से प्रभु को प्राप्त करते है, जैसे कोई सखा बनकर, कोई गोपी बनकर, कोई वात्सल्य भाव से तो कोई, प्रेमी-प्रेमिका भाव से प्रभु को रिझाता है, इनसे हमे अपने मनोभावों का पता चलता है कि हमारे मन का कौन सा भाव ऐसा है जिसे पुष्ट किया जाए और भक्ति के मार्ग पैर आगे बढ़ा जाये, ये कथाएं हमें सही मार्ग के चयन में सहायता करती है, 

मै भक्तो का मान और भक्त मेरा सम्मान



जैसे भक्त अपने भगवान का गुणवर्णन करते नही थकते,ऐसेहि भगवान हमेशा अपने भक्तो कि महिमा का गुणगान करते रहते है, सूरदास जी का निम्न पद इसी बात का उदहारण है,:

सुनि अर्जुन प्रतिज्ञा मेरी यह व्रत टरत टारे,
भगतिन काज लाज हिय धरि के पाई पियादे धाउ,
जहाँ जहाँ पीर परे भगतिन कौ तिहा तिहा जाइ छुड़ाऊं,
जो भगतिन सौं बैर करत है सौ निज बैरी मेरौ,
देखि बिचारी भगत हित कारन हौं हांको रथ तेरौ,
जीते जितउँ भगत अपने के हारें हारि बिचारों ,
सूरदास सुनि भगत विरोधी चक्र सुदर्शन जारौं

अर्थात स्वयं श्रीकृष्ण अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कह रहे है कि हे अर्जुन ! सुनो ! मै भक्तो का हूँ और भक्त मेरे हैं,मेरे और मेरे भक्तो के बीच कोई व्यवधान नही हैं, है अर्जुन ! मेरी यह प्रतिज्ञा हैं जो टालने से भी नही टल सकती, यदि मेरे भगत का कार्य कोई बिगड़ने कि कोशिश भी करता है तो मैं स्वयं नंगे पाँव दौड़कर भी उस भक्त का कार्य संवार देता हुँ, क्योंकि यदि मेरे भगत को कष्ट होता हैं या उसकी आँखों से अश्रु कि एक बूँद भी गिरती है तो इसमें मेरी लाज जाती हैं, जो दुष्टजन मेरे भक्तो से शत्रुता रखते हैं, उन्हें हे अर्जुन ! तुम मेरा हि शत्रु जानो, तुम मेरे भगत हो इसी कारण मैं तेरा रथ हाँक रहा हूँ, यदि मेरा भक्त कहि हार जाता है, तो यह मेरी हि हार होती हैं, और यदि मेरा भक्त शत्रुओ से परास्त होने वाला होता है, तो मैं सुदर्शन से उस शत्रु का नाश कर देता हूँ,



भगवान के भक्त कि जाति क्या होनी चाहिए, ऐसा कोई नियम नही है, कोई भी जाती,वर्ण ,लिंग, भगवान का भगत हो सकता है, कथाओं के माध्यम से पता लगता है कि कोई पशु - पक्षी, पुरुष -नारी, जड़ चेतन प्रभु के भक्त हों सकते हैं, जैसा कि गजेन्द्र मोक्ष कि कथा से पता चलता है कि किस प्रकार गजेन्द्र एक हाथी होते हुए भी भगवान का अनन्य भक्त होता है और मुसीबत के समय स्वयं भगवान दौड़ कर गरुड़ पर विराजमान होकर सुदर्शन हाथ मे लेकर उसकी रक्षा करते हैं, रामचरितमानस मे अनेक उदहारण है जो इस बात का प्रमाण देते हैं कि भगवान अपने भक्तो कि जाति को देखकर प्रेम नही करते बल्कि उनके मनोभाव और अपने प्रति समर्पण का भाव देखते हैं, शबरी भील जाति कि नारी किन्तु भाव से प्रभु कि प्रेमी, भगवान उसे दर्शन देते हैं, आहिल्या जड़ रूप मे भी प्रभु को याद करती है,प्रभु उसका भी उद्धार करते हैं, निषाद गुह जाति का फिर भी प्रभु का परम मित्र हैं, जटायु पक्षी होते हुए भी प्रभु स्वयं उसका अंतिम संस्कार करते है और पिता तुल्य उनका अभिवादन करते है, और तो और सबसे बड़े भगत हनुमान जी जो कि भक्ति कि ऊंचाइयों मे सर्वोपरि हैं, जाति वानर कि है किन्तु स्वयं प्रभु भी इनके बिना नही रह सकते, " तुम मम  प्रिय हि भरत सम भाई,"



दृष्टांत


भक्तिमार्ग पर चलकर जिन भक्तो ने भगवान को प्राप्त कर लिया हो, ऐसे भक्तो के चरित्रों का पठन करने से न केवल हृदय के द्वार भक्तिमार्ग पर अग्रसर होते हैं, बल्कि हमारा रोम रोम रोमांचित होने लगता हैं, संसार के मिथ्या आडंबरों और प्रपंचों को भुलाकर हमारा मन प्रभुभक्ति मे विलीन होने लगता हैं, भक्तमाल मे गुंथी हुई अनेकानेक भक्तो कि कथाओं का यही महत्व है कि इनका श्रवण करते करते हम हम न रहकर आनंद स्वरुप प्रभु का अंश होने  कि अनुभूति करने लगते हैं,ये कथाये भगवद्प्राप्ति का पथप्रदर्शन करती हैं,


संत  मस्ताने  कि  कथा " एकबार एक संतसेवी सेठ थे, उनके कोई संतान नही थी, एकबार देवऋषि नारद जी उनके पास आये, सेठ ने उनसे पूछा कि मेरे कोई संतान नही हैं, क्या कोई संतान योग मेरे जीवन मे हैं, नारद जी बोले मै तुम्हे इसका जवाब भगवान से पूछकर बता दूंगा, नारद जी ने भगवान से उस सेठ के बारे में पूछा, भगवान बोले कि सात जन्मों तक इसे संतान सुख नही है, नारद जी ने यह बात सेठ को बता दी, जिसे सुनकर सेठ को बहुत दुःख हुआ,


कुछ दिनों के बाद कोई फ़क़ीर रात्रि के समय आवाज़ लगा रहा था कि कोई मुझ भूके को रोटी दे दे , जो एक रोटी देगा उसे एक पुत्र होगा, दो देने पर दो और तीन देने पर तीन पुत्र होगे, सेठजी ने बाहर जाकर देखा और फ़क़ीर को चार रोटियां दे दी, कुछ समयबाद फ़क़ीर का आशीर्वाद फलीभूत हुआ और सेठ के यह चार पुत्रों ने जनम लिया,


तभी नारद जी का भी वह आगमन हुआ, वह ये देखते हि आस्चर्यचकित हो गए कि इस सेठ को संतान तो सात जन्मों तक नही लिखी थी,फिर भगवान का वचन कैसे असत्य हो गया? सीधे जाकर भगवान से पूछने लगे कि आपने मुझे असत्य कहा,जिस सेठ के संतान नही थी उसे आपने चार पुत्रों का दान दे दिया और मुझे झूठा कर दिया,

प्रभु नारद के संसय पर हंसने लगे और बोले, नारद ये संतान हमने इसे नही दी हैं, बल्कि मेरे एक भक्त ने दी हैं, नारद जी फिर संसय में कि जिसे भगवान औलाद नही दे सकते थे ऐसा कौन बड़ा भक्त हो गया जिसने ऐसा किया? नारद भर्मित हो गए,

प्रभु नारद के मन कि दशा जान गए और उसी समय उदरपीड़ा का अभिनय करने लगे और बोले हे नारद ! मेरे उदर में भयंकर पीड़ा हो रही है, जल्दी से इसका निवारण कीजिये, नारद ने पूछा प्रभु कैसे इसका निवारण होगा? प्रभु बोले मेरे किसी सच्चे भक्त का कलेजा निकाल कर ले आओ जिसे खा कर ये पीड़ा शांत हो जाएगी, 

नारद जी चल पड़े ऐसे भक्त कि खोज में, और पहुँच गए उसी फ़क़ीर क पास, पूछने पर नारद जी ने अपनी परेशानी का कारण बताया, इतना सुनते हि फ़क़ीर ने चाकू निकला और कलेजा निकलने के लिए हाथ बढ़ाया तभी श्रीहरि वह प्रगट हो गए, प्रभु नारद से बोले, हे नारद ! क्या मै कभी भी अपने ऐसे भक्त का कथन मिथ्या होने दे सकता हूँ? जो बिना बिचारे एक हि क्षण मे मेरे लिए अपना कलेजा निकलने लगा था, नारद जी के नेत्र निचे हो गए और सोचने लगे कि मै भी तो भगवान का भक्त हुँ, फिर मेरे मन में ऐसा भाव क्यों नही आया? कि मै अपना कलेजा निकाल कर प्रभु को दे देता," 

इस दृष्टान्त से पता लगता हैं,कि भगवान हमेशा अपने भक्तो का मान बढ़ाते है फिर चाहे उनका स्वयं का वचन क्यों न झूठा हो जाए, 


भगत  के  वश  में  है  भगवान
भक्त  बिना  ये  कुछ  भी  नहीं  है
भक्त  है  इसकी  जान
भगत  के  वश  में  है  भगवान - 

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