भक्त मीरा बाई जी राजस्थान की भूमि साहस व शौर्य के लिए प्रसिद्ध है | भारत में हुए साठ प्रतिशत युद्ध इसी राज्य की...

भक्त मीरा बाई जी


राजस्थान की भूमि साहस शौर्य के लिए प्रसिद्ध है| भारत में हुए साठ प्रतिशत युद्ध इसी राज्य की जमीन पर हुए| युद्धों की इस भूमि पर प्रेम की मूर्ति भी अवतरित हुई जिसका नाम था मीरा!


मीरा का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं| वह श्री कृष्ण जी की अनन्य भक्त थी| मीरा का जन्म 1498 में हुआ| इनके पिता मेड़ता के राजा थे| जब मीरा बाई बहुत छोटी थी तो उनकी माता ने श्री कृष्ण जी को यू ही उनका दूल्हा बता दिया| इस बात को मीरा जी सच मान गई| उन पर इस बात का इतना प्रभाव पड़ा कि वह श्री कृष्ण जी को ही अपना सब कुछ मान बैठी|


जवानी की अवस्था में पहुँचने पर भी उनके प्रेम में कमी नहीं आई| ओर युवतियों की तरह वह भी अपने पति को लेकर विभिन्न कल्पनाएँ करती| परन्तु उनकी कल्पनाएँ, उनके सपने श्री कृष्ण जी से आरम्भ होकर उन्ही पर ही समाप्त हो जाते|

मैं गिरधर के घर जाऊँ।

गिरधर म्हांरो सांचो प्रीतम देखत रूप लुभाऊँ।।
रैण पड़ै तबही उठ जाऊँ भोर भये उठिआऊँ।
रैन दिना वाके संग खेलूं ज्यूं त्यूं ताहि रिझाऊँ।।
जो पहिरावै सोई पहिरूं जो दे सोई खाऊँ।
मेरी उणकी प्रीति पुराणी उण बिन पल रहाऊँ।
जहाँ बैठावें तितही बैठूं बेचै तो बिक जाऊँ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बार बार बलि जाऊँ।।

समय बीतता गया| मीरा जी का प्यार कृष्ण के प्रति और बढता गया| 1516 ई० में मीरा का विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज से कर दिया गया| वे मीरा के प्रति स्नेह का भाव रखते थे परन्तु मीरा का ह्रदय माखन चोर ने चुरा लिया था| वह अपने विवाह के बाद भी श्री कृष्ण की आराधना छोड़ सकी| वह कृष्ण को ही अपना पति समझती और वैरागिनो की तरह उनके भजन गाती|


मैं तो सांवरे के रंग राची।

साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।
 मेवाड़ के राजवंश को यह कैसे स्वीकार हो सकता था कि उनकी रानी वैरागिनी की तरह जीवन व्यतीत करे| बार बार समझाये जाने के बाद भी मीरा की लग्न कम नही होती हैं वह स्पष्ट और बिना किसी भय के राणाजी को कहती है कि रणजी हमारे प्रीतम तो श्रीकृष्ण है हम उनके बिना नही रह सकते,

तेरो कोई नहिं


रोकणहार मगन हो मीरा चली॥


लाज सरम कुल की मरजादा सिरसै दूर करी।
मान-अपमान दो धर पटके निकसी ग्यान गली॥

ऊंची अटरिया लाल किंवड़िया निरगुण-सेज बिछी।
पंचरंगी झालर सुभ सोहै फूलन फूल कली।

बाजूबंद कडूला सोहै सिंदूर मांग भरी।
सुमिरण थाल हाथ में लीन्हों सौभा अधिक खरी॥

सेज सुखमणा मीरा सौहै सुभ है आज घरी।
तुम जा राणा घर अपणे मेरी थांरी नांहि सरी॥
मीरा बाई का श्रीकृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और वैराग्य देखकर राणाजी  ने अपने राजवंश कि लाज कि परवाह करते हुए मीरा को मारने का निश्चय किया और अनेकानेक षड्यंत्र रचने लगा, कभी दूध में जहर मिला कर पिलाया जिसे मीरा बाई अपनी भक्ति के प्रताप से चरणामृत समझ कर पी गई और गिरधर कि कृपा  से वह अमृत बन गया,कभी काँटों कि सेज पर सुलाया,जिसे कान्हा ने फूलों कि सेज में बदल दिया, एक बार सर्प को पिटारे में बंद कर भेजा और कहा कि इसमें तुमहे कन्हिया है, जैसे ही मीरा ने पिटारा खोला स्वयं श्रीकृष्ण सालिग्राम के रूप में उस पिटारे में विध्यमान थे,
 राणाजी, म्हांरी प्रीति पुरबली मैं कांई करूं॥

राम नाम बिन नहीं आवड़े, हिबड़ो झोला खाय।

भोजनिया नहीं भावे म्हांने, नींदडलीं नहिं आय॥

विष को प्यालो भेजियो जी, `जाओ मीरा पास,'

कर चरणामृत पी गई, म्हारे गोविन्द रे बिसवास॥

बिषको प्यालो पीं गई जीं,भजन करो राठौर,

थांरी मीरा ना मरूं, म्हारो राखणवालो और॥

छापा तिलक लगाइया जीं, मन में निश्चै धार,

रामजी काज संवारियाजी, म्हांने भावै गरदन मार॥

पेट्यां बासक भेजियो जी, यो छै मोतींडारो हार,

नाग गले में पहिरियो, म्हारे महलां भयो उजियार॥

राठोडांरीं धीयड़ी दी, सींसाद्यो रे साथ।

ले जाती बैकुंठकूं म्हांरा नेक मानी बात॥

मीरा दासी श्याम की जी, स्याम गरीबनिवाज।

जन मीरा की राखज्यो कोइ, बांह गहेकी लाज॥
मीरा की भक्ति, प्रेम निश्छल था इसलिए विष भी अमृत हो गया| उन्होंने अपना पूरा जीवन कृष्ण को ही समर्पित कर दिया| उनका कहना था -


मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों कोई

जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई|| 

तात मात भ्रात बंधु आपनो कोई
छाड़ि दई कुलकि कानि कहा करिहै कोई||

मीरा ने गुरु के विषय में कहा है कि बिना गुरु धारण किए भक्ति नहीं की जा सकती| भक्तिपूर्ण व्यक्ति ही प्रभु प्राप्ति का भेद बता सकता है वही सच्चा गुरु है|

बाला मैं बैरागण हूंगी।

जिन भेषां म्हारो साहिब रीझे सोही भेष धरूंगी।

सील संतोष धरूं घट भीतर समता पकड़ रहूंगी।
जाको नाम निरंजन कहिये ताको ध्यान धरूंगी।

गुरुके ग्यान रंगू तन कपड़ा मन मुद्रा पैरूंगी।
प्रेम पीतसूं हरिगुण गाऊं चरणन लिपट रहूंगी।

या तन की मैं करूं कीगरी रसना नाम कहूंगी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर साधां संग रहूंगी।

 स्वयं मीरा के पद से पता चलता है कि उनके गुरु रविदास थे|

नहिं मैं पीहर सासरे, नहिं पियाजी री साथ

मीरा ने गोबिन्द मिल्या जी, गुरु मिलिया रैदास||

मीरा जी को संसार कि किसी भी वास्तु में कोई रूचि नही थी, उनकी हर सांस और आस में केवल और केवल कन्हिया को पाने कि उम्मीद थी,संसार कि किसी भी भौतिक वस्तुए उन्हें नही लुभाती थी, उनका सच्चा धन तो केवल रामनाम सुमिरन ही था,

पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरू, किरपा कर अपनायो॥
जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो।
खरच खूटै चोर लूटै, दिन-दिन बढ़त सवायो॥
सत की नाँव खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस पायो॥
मीरा बाई सदैव साधुओं का संग करती रहती थी, उन संग नाचती गाती सदा गिरधर के रंग में मदमस्त रहती थी,


आज मेरेओ भाग जागो साधु आये पावना॥ध्रु०॥

अंग अंग फूल गये तनकी तपत गये।
सद्गुरु लागे रामा शब्द सोहामणा॥ आ०॥१॥
नित्य प्रत्यय नेणा निरखु आज अति मनमें हरखू।
बाजत है ताल मृदंग मधुरसे गावणा॥ आ०॥२॥
मोर मुगुट पीतांबर शोभे छबी देखी मन मोहे।
हरख निरख आनंद बधामणा॥ आ०॥३॥

अपने पांच वर्ष की अवस्था में मीरा ने गिरधर का वरण किया और उसी दिव्यमूर्ति में विलीन हो गई| धन्य है वह प्रेम की मूर्ति! जिसने दैविक प्रेम का ऐसा उदाहरण दिया कि बड़े-बड़े संत, भक्त की चमक भी धीमी पड़ गई|



प्रभु जी तुम दर्शन बिन मोय घड़ी चैन नहीं आवड़े।।टेक।।

अन्न नहीं भावे नींद आवे विरह सतावे मोय।

घायल ज्यूं घूमूं खड़ी रे म्हारो दर्द जाने कोय।।१।।
दिन तो खाय गमायो री, रैन गमाई सोय।
प्राण गंवाया झूरता रे, नैन गंवाया दोनु रोय।।२।।
जो मैं ऐसा जानती रे, प्रीत कियाँ दुख होय।
नगर ढुंढेरौ पीटती रे, प्रीत करियो कोय।।३।।
पन्थ निहारूँ डगर भुवारूँ, ऊभी मारग जोय।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, तुम मिलयां सुख होय।।४।।

भावावेग, भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति, प्रेम की ओजस्वी प्रवाहधारा, प्रीतम वियोग की पीड़ा की मर्मभेदी प्रखता से अपने पदों को अलंकृत करने वाली प्रेम की साक्षात् मूर्ति मीरा के समान शायद ही कोई कवि हो|




रमइया बिन यो जिवडो दुख पावै। 

कहो कुण धीर बंधावै॥
यो संसार कुबुधि को भांडो, साध संगत नहीं भावै।
राम-नाम की निंद्या ठाणै, करम ही करम कुमावै॥
राम-नाम बिन मुकति पावै, फिर चौरासी जावै।
साध संगत में कबहुं जावै, मूरख जनम गुमावै॥
मीरा प्रभु गिरधर के सरणै, जीव परमपद पावै॥

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