‘नासौ रमणो नाहं रमणी’ प्रेम वल्लरी श्री राधिका प्रेमी श्याम तमाल दोउ तो एक भये श्री राधावल्लभ लाल श्रीराधिका जी के...
‘नासौ रमणो नाहं रमणी’
श्रीराधिका जी के विषय में कुछ भी लिखना बेहद कठिन और दुस्तर है, क्योकि जो तत्व स्वयं माँ सरस्वती की समझ से परे, ब्रह्मा और शिव के भी चिंतन का विषय हो उसे हम साधारण जीव जो सदैव मोह-माया,काम-लोभ दम्भ और नाना विकारो से विकृत मन वाले है, ऐसे परम् तत्व को क्या समझे और क्या बखाने ? किन्तु ऐसा होने पर भी विभिन्न रसिकानंदो ने, भक्तो ने, परमात्मा के प्रिय भगवद्जनो ने नित्य इस तत्व की विवेचना की है, क्यों? श्रीराधामाधव नित्य निरन्तर- महाभाव स्वरूप
क्योंकि माना सम्पूर्ण दरिया और सागर को हम पी नहीं सकते, किन्तु कुछ बूंदो का आस्वादन करने से उस दरिया का स्वाद, उसकी महिमा को तो जानने का भाव कर सकते है, उसकी महानता,उसका स्वाद उसका रस उसकी गति को जानकर उसकी महिमा का रसास्वादन तो कर ही सकते है, सिंधु न सही उसी की एक बिंदु का रसपान कर उसकी उपयोगिता उसका स्वभाव तो समझने का प्रयास कर सकते है, उसी एक बून्द को बार बार माहिम-मंडित कर सकते है, ऐसा ही पूर्ण श्रीराधागोपिका तत्व ना सही, कोई एक भाव, कोई एक बिंदु,कोई एक अवलंब तो ग्रहण करने का प्रयास कर सकते है, इसीलिए बार बार इस विषय, इस श्री राधातत्व को पीने का मन हर रसिक का करता है,
अनन्त सच्चिदानन्दघन-विग्रह को आनन्द प्रदान करने वाली परब्रह्मैकनिष्ठ परमहंस अमलात्मा मुनियों के मनों को आकर्षित करने वाले स्वयं भगवान श्रीकृष्ण का भी अपनी सौन्दर्य-सदगुण-माधुरी से नित्य आकर्षक करने वाली, कोटि-कोटि-मन्मथ-मन्मथ सुरासुर-मुनिजन-मन-मोहन विश्वमोहन मोहन के अप्राकृत मन को भी मथित करने वाली, सर्वशक्तिमान सर्वेश्वरेश्वर भगवान को उनकी सारी भगवत्ता की विस्मृति कराके नित्य-निरन्तर अपने पवित्रतम मधुरतम आनन्द चिन्मय प्रेम-रस-सुधा पान में प्रमत्त रखने वाली भगवान श्रीकृष्ण की ही अपनी ह्लादिनी शक्ति श्रीराधारानी की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है? श्रीश्यामसुन्दर और श्रीराधारानी नित्य एक ही तत्त्व के दो नित्य-रूप हैं। वहाँ कोई भी भेद नहीं है।श्रीराधा जी के प्रेम का स्वरूप
प्रेम वल्लरी श्री राधिका प्रेमी श्याम तमाल
दोउ तो एक भये श्री राधावल्लभ लाल
अर्थात,
दोनों एक ही स्वरुप है, यह बात बार-बार कहने की जरूरत नहीं है किन्तु विषय की गूढ़ता इतनी अधिक है, की इसका उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है, श्री राधा जी और माधव जी में कोई किसी प्रकार का भेद नहीं है न स्त्री-पुरुष का भाव है,न कोई अन्य भेदबुद्धि का भाव है?फिर भी दोउ रूप में प्रगट होने के पीछे क्या गूढ़ता है ?
हम जीवो के उद्धार और तत्व की गहराई को सहज करने के लिए, रसलीलाओ का अपने प्रेमी जनो को आस्वादन कराने हेतु शायद प्रभु ने ऐसा किया है? यदि श्रीराधिका जी और गोपांगनाये दो होकर अर्थात विलगरूप में प्रगट होकर प्रेम लीलाये ना करती तो प्रेमी और प्रेमास्पद का व्यवहार कैसा होना चाहिए? प्रेम के लिए स्वार्थ त्याग कैसे करना पड़ता है? निजभाव का त्याग कर समभाव कैसे पोषित होता है? प्रेमी के सुख के लिए अपना सर्वस्व त्याग किस प्रकार किया जाता है? ये सब हम नहीं जान सकते थे, इसीलिए दोरूप धारण कर एक ही तत्व ने ये सब लीलाये की जिससे हम जीव मात्र का कल्याण हो सके? किन्तु विडंबना देखो, जिस जीव के कल्याण के लिए परमात्मा ने यह सब किया वही अपनी दोषबुद्धि से उन्ही लीलाओ पर उंगलिया उठता है, परमतत्व का विवेचन न जानकर उसे सधारण दृष्टि से पापाचार की लीलाये बताता है,यह दोष हमारी स्वयं की कुंठित बुद्धि का फल है,
‘नासौ रमणो नाहं रमणी’- न वहाँ स्त्री-पुरुष-भेद है तथापि श्रीराधाजी नित्य-निरन्तर अपने प्राण प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर की भावमयी सर्वात्म-समर्पणमयी तथा दिव्यतम परम त्यागमयी आराधना में लगी रहती हैं और श्यामसुन्दर तो श्रीराधिकाजी को अपनी आत्मा अथवा अपने जीवन की मूल रक्षा निधि ही मानते हैं। यद्यपि श्रीराधाजी! श्रीकृष्ण से नित्य अभिन्न हैं और उनमें वस्तुतः परात्पर भगवान श्रीश्यामसुन्दर के ही दिव्य गुणों का प्राकट्य है, फिर भी विशुद्ध प्रेम राज्य में कैसे क्या लक्षण होते हैं? प्रेमी की कितनी, कैसी त्यागमयी जीवन धारा होती है एवं प्रेमी के साथ प्रेमास्पद के कैसे भाव-व्यवहार होते हैं? इसका एक आदर्श दिखाते हुए श्रीश्यामसुन्दर राधारानी से कहते हैं- "विशुद्ध प्रेमिका श्रीराधागोपिका"
‘प्रियतमे! मेरे मन से तुम्हारी मधुर-मनोहर स्मृति का कभी विराम होता ही नहीं। स्मृति ही क्यों, वस्तुतः तुम्हारी परम ललाम माधुरी मूर्ति निरन्तर मुझमें मिली ही रहती है। तुम्हारे त्याग का क्या वर्णन किया जाय? मुझे अपना बनाने के लिये तुमने बड़ा ही विलक्षण आत्यन्तिक त्याग किया है। (यह त्याग ही परम प्रेमास्पद के रूप में मुझे सदा अपने वश में कर रखने का परम साधन है।) तुमने जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय में भी केवल मुझमें ही विशुद्ध प्रेम किया।
देने पर भी तुमने तनिक भी जागतिक सुख, वैभव तथा सौभाग्य कभी स्वीकार नहीं किया। दिव्य लोक तथा कैवल्य मुक्ति के लिये तुमने सदा अनुपम वैराग्य ही रखा। परम विलक्षणता तो यह है कि उस विलक्षण पवित्र भोग-मोक्ष-वैराग्य में भी तुमने जरा भी राग नहीं रखा, उस वैराग्य की भी परवा नहीं की और मुझमें विशुद्ध मधुर राग रखा। तुम्हारे मन में न भोगासक्ति रही न वैराग्यासक्ति। तुमने भोग और त्याग दोनों का त्याग करके मुझमें अनन्य अनुराग किया। (यह भोग और त्याग दोनों का त्याग ही ‘राधा भाव’ का स्वरूप है।)
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दिव्यातिदिव्यं भाव |
प्रियतमे! तुम निरन्तर मेरे बाहर-भीतर बसी रहती हो। मैं रसमय-रसस्वरूप हूँ, पर तुम्हारे विशुद्ध प्रेम-रस का आस्वादन करने के लिये सदा ही समस्त श्रुति-मर्यादाओं को भूलकर (कर्मजगत की सारी श्रृंखलाओं को तोड़कर, भगवत्ता को भूलकर) लालायित रहता हूँ। प्रिये! स्वरूपतः मैं निष्काम भी तुम्हारे रस के लिये सहज ही सकाम बना रहता हूँ, सहज ही तुम्हारे रस का लोभी रहता हूँ और निरन्तर रस-रत रहता हूँ। जिसमें (अपने सुख के लिये) भोग-मोक्ष की शुद्ध कामना का भी लेशमात्र नहीं रहता, वही परम मधुर रस मुझको विशेष रूप से आकर्षित किया करता है। तुम तो अत्यन्त धन्य हो ही, पर तुम्हारी व्यूहरूपा श्रीगोपांगनागण भी धन्य हैं, जिनमें इसी अनन्य विशुद्ध मधुर रस का अनन्त समुद्र सदा लहराता रहता है,
नित्य श्रीकृष्णाह्लादिनी श्रीराधिकाजी ने महान सौभाग्यशाली वृषभानुपुर में परम पावन पुण्यमय सौन्दर्य-माधुर्य निधरूप में प्रकट होकर अपने अभिन्न स्वरूप मधुरतम श्रीश्यामसुन्दर के साथ अपनी कायव्यूहरूपा श्रीगोपदेवियों को साथ रखकर जो दिव्य लीलाएँ कीं, उनको ठीक यथार्थ रूप से यथा साध्य समझकर स्मरण करने पर जगत के समस्त दुर्गुण-दुर्विचारों का आत्यन्तिक विनाश हो जाता है। भोगासक्ति, भोग कामना, भोग वासना, इन्द्रिय-तृप्ति की इच्छा, जागतिक धन-वैभव-पद-अधिकार, यश-कीर्ति आदि के मनोरथ; सब प्रकार के लौकिक-पारलौकिक पदार्थों की, परिस्थितियों की प्राप्ति-लालसा, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईर्ष्या, अभिमान, वैर, हिंसा; भोग सुख, स्वर्ग सुख, उत्तम लोक तथा सद्गति की तृष्णा; साधनाभिमान, भक्त्यभिमान, ज्ञानाभिमान आदि समस्त प्रेम विघ्न सदा के लिये मर जाते हैं और पवित्रतम भाव से केवल मधुरतम भगवत्संग की ही लालसा जग उठती है तथा भगवान का ही नित्य संस्पर्श प्राप्त होता है।
पर संस्पर्श प्राप्त करने वाले मन-प्राण, अंग-अवयव भी भगवद्रूप ही हो जाते हैं। विशुद्ध प्रेम रस भावमयी श्रीगोपांगनाओं के लिये कहा जाता है- ‘दिव्य देवांगनाओं की गोपरमणियों से तुलना नहीं की जा सकती; क्योंकि जो श्रीहरि समस्त जड़-चेतन को सदा अपनी माया की डोरी से नाथे नचाते हैं, वे स्वयं उन गोपियों के साथ कर ताल बाजते हुए नृत्य करते हैं। जिन श्रीगोपदेवियों की समस्त इन्द्रियाँ भगवद्रुप में परिणत होकर अपनी इच्छानुसार भगवान का संस्पर्श प्राप्त करके सफल हो गयीं, जिनकी भगवन्मयी मन-बुद्धि निरन्तर अपने में मुरारि भगवान को बसे देखकर धन्य हो गयीं, जिनके नेत्र कमलों में मदन का मद हरण करने वाले स्वयं भगवान मधुर मधुकर बनकर नित्य बसे रहते हैं, जिनके कानों में भगवान स्वयं मुरली की मधुरतम ध्वनि और सर्वजन सुखकारिणी अपनी मधुर स्वर-लहरी के रूप में बस रहे हैं, जिनकी घ्राणेन्द्रिय में वे सबको मत वाल बना देने वाली मधुर-सुन्दर सुगन्ध बनकर बस गये हैं, जिनकी रसना पर वे परम रुचिकर मुनि-मनहारी मधुर-मनोहर पवित्र रस मय अन्न बनकर विराज रहे हैं, जिनके सारे अंगों में वे मधुर सुख देने वाले अपने-आपको ही मत्त कर देने वाला अंग-स्पर्श बनकर बसे हैं,
इस प्रकार वे स्वयं भोग्य बनकर जिनके सम्पूर्ण तन-मन को सफल बना रहे हैं, गिरिवरधारी स्वयं भगवान जिन श्रीगोपीजनों के मन में लहराते हुए प्रेम रस का आस्वादन करने के लिये प्रेम विवश होकर मन-ही-मन ललचाते और स्वयं परम सुख के एक मात्र आधार होकर भी, इसमें परम सुख को प्राप्त करते हैं, उन श्रीगोपियों की उपमा किनसे दी जाय?
इस पावन प्रेम राज्य में न तो जागतिक भोगों को स्थान है न भोग-वासना को; न जागतिक ममता को स्थान है न अहंकार-अभिमान को। यहाँ चिन्मय भगवान ही सब कुछ बने रहते हैं- भोक्ता भी भगवान, उनके भोग्य भी भगवान तथा भोग क्रिया भी भगवान। यहाँ आस्वादन, आस्वाद्य तथा आस्वादक का तत्त्वतः भेद नहीं है।
तथापि इस रस-सागर में नित्य-निरन्तर स्वसुख-त्याग तथा प्रियतम-सुख-दान की भावमयी सुधा-तरंगें नाचती रहती हैं। प्रेमी का जीवन केवल मात्र प्रेमास्पद का सुख साधन बना रहता है और स्व-सुख-वान्छा का सर्वथा अभाव होने के कारण दोनों ही परस्पर प्रेमी-प्रेमास्पद हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘मैं इन प्रेमिकाशिरोमणि परम सती राधारानी तथा श्रीगोपीजनों के प्रेम का बदला कभी नहीं चुका सकता, सदा इनका ऋणी ही रहूँगा।’ और श्रीराधारानी तथा श्रीगोपांगनाएँ अपने में नित्य हीनता-दीनता के दर्शन तथा बखान करती हुई यह कहते कभी नहीं थकतीं कि ‘हम तो सदा लेती-ही-लेती है, हमारे अंदर तो दोष-ही-दोष भरे हैं; यह तो प्राण नाथ प्रभु का स्वभाव है जो वे सदा हमारे अंदर प्रेम देखते हैं।’ श्रीराधिका और गोपांगनाओं के भाव इतने दिव्य है की, वे सदैव कहती है की हे मनमोहन ! हम सब इतनी दीन-हीन है, हम आपको क्या दे सकती है? अर्थात हम सदैव आपसे आपके रूप माधुर्य और लीलाओ का सुखलेती रहती है, हमारे पास आपको देने के लिए कुछ नहीं है, उधर श्रीकृष्ण कहते है," है गोपिकाओ! मेरे सुख के लिए तुमने जो त्याग,तप और वैराग्य धारण किया है उस सब के लिए में सदैव तुम्हारा ऋणी रहूँगा, क्योंकि मैंने तुमसे लिया ही लिया है और मेरा ऋण सदैव बढ़ता ही जा रहा है, मैं सदैव के लिए तुम्हारा ऋणी हो गया हूँ,
कितना विलक्षण विषय हे? कितना दिव्यातिदिव्यं भाव है, राधामाधव और गोपिकाओ का, क्या ऐसे दिव्य प्रेम और लीलाओ में किंचित मात्र भी कुभाव हो सकता है? कदापि नहीं ये तो केवल देखने वाली की दृष्टिदोष है, जय श्री राधामाधव.......
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