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जब आदि शंकराचार्य प्रथम बार पूरी धाम स्थित जगन्नाथ जी के दर्शन के लिए पहुंचे, तो भगवान् को देखकर उन्होंने जगन्नाथ जी की स्तुति की,ओर अष्टकम का निर्माण किया, यह सबसे पवित्र भजन है जगन्नाथ स्वामी का, इसे चैतन्य महाप्रभु जी ने गया जब वह जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिए आये, यह इतना पवित्र ओर शक्तिशाली ाष्टक है, जिसके पाठ से जगन्नाथ स्वामी प्रसन्न हो जाते है, मनुष्य की आत्मा पापो से मुक्त होकर विशुद्ध हो जाती है, इस अष्टकम के पाठ से आत्मा पवित्र होकर अंत में विष्णु लोक को प्राप्त करती है, हर वैष्णव को मुक्ति देने वाला यह स्तोत्र भगवन जगन्नाथ जी को अतिशय प्रिय है,
कदाचि त्कालिंदी तटविपिनसंगीतकपरो
मुदा गोपीनारी वदनकमलास्वादमधुपः
रमाशंभुब्रह्मा मरपतिगणेशार्चितपदो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ १ ॥
हे प्रभु ! आप कदाचित जब अति आनंदित होते है,तब कालिंदी तट के निकुंजों में मधुर वेणु नाद द्वारा सभी का मन अपनी ओर आकर्षित करने लगते हो, वह सब गोपबाल ओर गोपिकाये ऐसे आपकी ओर मोहित हो जाते है जैसे भंवरा कमल पुष्प के मकरंद पर मोहित रहता है, आपके चरण कमलो को जोकि लक्ष्मी जी, ब्रह्मा,शिव,गणपति ओर देवराज इंद्र द्वारा भी सेवित है ऐसे जगन्नाथ महाप्रभु मेरे पथप्रदर्शक हो,मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करे,
भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिंछं कटितटे
दुकूलं नेत्रांते सहचर कटाक्षं विदधते
सदा श्रीमद्बृंदा वनवसतिलीलापरिचयो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ २ ॥
महांभोधेस्तीरे कनकरुचिरे नीलशिखरे
वसन्प्रासादांत -स्सहजबलभद्रेण बलिना
सुभद्रामध्यस्थ स्सकलसुरसेवावसरदो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ ३ ॥
हे मधुसूदन ! विशाल सागर के किनारे, सूंदर नीलांचल पर्वत के शिखरों से घिरे अति रमणीय स्वर्णिम आभा वाले श्री पूरी धाम में आप अपने बलशाली भ्राता बलभद्र जी और आप दोनों के मध्य बहन सुभद्रा जी के साथ विध्यमान होकर सभी दिव्य आत्माओ, भक्तो और संतो को अपनी कृपा दृष्टि का रसपान करवा रहे है, ऐसे जगन्नाथ स्वामी मेरे पथपर्दशक हो और मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करे,
कथापारावारा स्सजलजलदश्रेणिरुचिरो
रमावाणीसौम स्सुरदमलपद्मोद्भवमुखैः
सुरेंद्रै राराध्यः श्रुतिगणशिखागीतचरितो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ ४ ॥
जगन्नाथ स्वामी दया और कृपा के अथाह सागर है, उनका रूप ऐसा है जैसे जलयुक्त काले बादलो की गहन श्रंखला हो, अर्थात अपनी कृपा की वृष्टि करने वाले मेघो के जैसे है, आप श्री लक्ष्मी और सरस्वती को देने वाले भण्डार है, अर्थात आप अपनी कृपा से लक्ष्मी और सरस्वती प्रदान करते है,आपका मुख चंद्र पूर्ण खिले हुए उस कमल पुष्प के समान है जिसमे कोई दाग नहीं है अर्थात पूर्ण आभायुक्त खिले हुए पुण्डरीक के जैसा आपका मुखकमल है, आप देवताओ और साधु संतो द्वारा पूजित है, और उपनिषद भी आपके गुणों का वर्णन करते है, ऐसे जगन्नाथ स्वामी मेरे पथप्रदर्शक हो और मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करे,
रथारूढो गच्छ न्पथि मिलङतभूदेवपटलैः
स्तुतिप्रादुर्भावं प्रतिपद मुपाकर्ण्य सदयः
दयासिंधु र्भानु स्सकलजगता सिंधुसुतया
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ ५ ॥
हे आनंदस्वरूप ! जब आप रथयात्रा के दौरान रथ में विराजमान होकर जनसाधारण के मध्य उपस्थित होते हे तो अनेको ब्राह्मणो,संतो,साधुओ और भक्तो द्वारा आपकी स्तुति वाचन,मंत्रो द्वारा स्तुति सुनकर प्रसन्नचित भगवान् अपने प्रेमियों को बहुत ही प्रेम से निहारते हे,अर्थात अपना प्रेम वर्षण करते है, ऐसे जगन्नाथ स्वामी लक्ष्मी जी सहित जोकि सागर मंथन से उत्पन्न सागर पुत्री है मेरे पथप्रदर्शक बने और मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करे,
परब्रह्मापीडः कुवलयदलोत्फुल्लनयनो
निवासी नीलाद्रौ निहितचरणोनंतशिरसि
रसानंदो राधा सरसवपुरालिंगनसुखो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ ६ ॥
जगन्नाथ स्वामी आप ब्रह्मा के शीश के मुकुटमणि है, और आपके नेत्र कुमुदिनी की पूर्ण खिली हुयी पंखुड़ियों के समान आभा युक्त है, आप नीलांचल पर्वत पर रहने वाले है, आपके चरणकमल अनंत देव अर्थात शेषनाग जी के मस्तक पर विराजमान है, आप मधुर प्रेम रस से सराबोर हो रहे है जैसे ही आप श्रीराधा जी को आलिंगन करते है, जैसे कमल किसी सरोवर में आनंद पता है,ऐसे ही श्री जी का हृदय आपके आनंद को बढ़ाने वाला सरोवर है, ऐसे जगन्नाथ स्वामी मेरे पथप्रदर्शक और शुभ दृष्टि प्रदान करने वाले हो,
न वै प्रार्थ्यं राज्यं न च कनकितां भोगविभवं
न याचे२ हं रम्यां निखिलजनकाम्यां वरवधूं
सदा काले काले प्रमथपतिना चीतचरितो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ ७ ॥
हे मधुसूदन ! मैं न तो राज्य की कामना करता हूँ, ना ही स्वर्ण,आभूषण,कनक कामिनी भोग वैभव की कामना कर रहा हूँ, न ही लक्ष्मी जी के समान सूंदर पत्नी की अभिलाषा से प्रार्थना कर रहा हूँ, मैं तो केवल यही चाहता हूँ की भगवान् शिव जिन के गुण का कीर्तन श्रवण करते है वही जगन्नाथ स्वामी मेरे को शुभ दृष्टि प्रदान करने वाले हो.
हर त्वं संसारं द्रुततर मसारं सुरपते
हर त्वं पापानां वितति मपरां यादवपते
अहो दीनानाथं निहित मचलं निश्चितपदं
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ ८ ॥
हे देवो के स्वामी, आप अपनी संसार की दुस्तर माया जोकि मुझे भौतिक सुख साधनो और स्वार्थ साधनो की आकांक्षा के लिए अपनी ओर घसीट रहे है, अर्थात अपनी ओर लालायित कर रहे है, उनसे मेरी रक्षा कीजिये, हे यदुपति ! आप मुझे मेरे पाप कर्मो के गहरे ओर विशाल सागर से पार कीजिये जिसका कोई किनारा नहीं नज़र आता है, आप दीं दुखियो के एकमात्र सहारा हो, जिस ने अपने आपको आपके चरण कमलो में समर्पित कर दिया हो, जो इस संसार में भटककर गिर पड़ा हो, जिसे इस संसार सागर में कोई ठिकाना न हो, उसे केवल आप ही अपना सकते है, ऐसे जगन्नाथ स्वामी मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करने वाले हो,
जगन्नाथाष्टकं पुन्यं यः पठेत् प्रयतः शुचिः ।
सर्वपाप विशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति ॥९॥
जो पुण्यात्मा ओर विशुद्ध हृदय वाला व्यक्ति इस जगन्नाथ अष्टक का पाठ करता है, वह पूर्ण विशुद्ध होकर विष्णु लोक को प्राप्त करता है, इसमें कोई संदेह नहीं है,
॥ इति श्रीमत् शंकराचार्यविरचितं जगन्नाथाष्टकं संपूर्णम् ॥
इस प्रकार शंकराचार्य जी द्वारा रचित यह जगन्नाथ अष्टकम पूर्ण होता है
एक परिचय जगन्नाथ पुरी धाम का
पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर एक हिन्दू मंदिर है, जो भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है।इस मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है।इस मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव भारत के ढेरों वैष्णव कृष्ण मंदिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है।[4] यह मंदिर वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिये खास महत्व रखता है। इस पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे।
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