कर्मयोग कर्मयोग का अर्थ जानने से पहले आवश्यक है की प्रवृति और निर्वृत्ति का अर्थ समझ ले जिससे कर्मयोग को समझना सरल हो जायेगा, ...
कर्मयोग
कर्मयोग का अर्थ जानने से पहले आवश्यक है की प्रवृति और निर्वृत्ति का अर्थ समझ ले जिससे कर्मयोग को समझना सरल हो जायेगा, प्रवृत्ति अर्थात कर्म को करने की इच्छा और निवृत्ति अर्थात अकर्मण्यता अर्थात सभी कर्मो को त्यागना है, इसे ऐसे भी समझ जा सकता है,
धर्म के दो भेद- प्रवृति और निर्वृत्ति बतलाये गए है, महाभारत में भी योग और ज्ञान दोनों शब्दों के विषय में स्पष्ट लिखा है,कि "प्रवृत्तिलक्षणो योग ज्ञानं संयासलक्षणं " अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्तिमार्ग और ज्ञान का अर्थ संन्यास या निवृत्तिमार्ग है,
यहाँ प्रवृत्ति और निवृत्ति शब्दों के क्रमश कर्तव्य कर्म और अकर्तव्य अर्थात् निषिद्ध कर्म हैं।यहाँ पर कर्म योग या योग विधि का अर्थ निष्काम कर्मयोग कि विधि ही समझना चाहिए, गीता में जहां भी योग शब्द का प्रयोग किया गया है वहाँ उसका तातपर्य कर्मयोग और योगी का अर्थ कर्मयोगी है,
एक ही कर्म को करने के अनेक योग, साधन या मार्ग है,उनमे से सर्वोत्तम और शुद्ध मार्ग कौन से है? उसके अनुसार नित्य आचरण किया जा सकता है या नहीं, कौन कौन से अपवाद उतपन्न हो सकते है और क्यों उतपन्न हो सकते है? जिस मार्ग को हमने उत्तम माना है, वही उत्तम है क्यों? या जिस मार्ग को हम बुरा मानते है वह बुरा क्यों है? यह अच्छा या बुरापन का रहश्य क्या है? इत्यादि बाते जिस शास्त्र के आधार से निश्चित कि जाती है,उसको "कर्मयोगशास्त्र" या गीता का संक्षिप्त रुपनुसार "योगशास्त्र" कहते है,
कर्म को समझने कि दृष्टि या विचार तीन है, एक आदिभौतिक, दूसरी आदिदैविक,और तीसरी आध्यात्मिक, आदिभौतिक दृष्टि से यदि अर्जुन युद्ध करने या न करने के विषय में सोचे तो उसकी शंका का समाधान सम्भव नहीं था, क्योंकि इस दृष्टिकोण से देखे तो पहले यही देखता कि स्वयं अर्जुन को इस युद्ध से कितना लाभ-हानि होगा? आदिदैविक के अनुसार उसके कुल और समाज पर क्या प्रभाव होगा? यह विचार करके तब उसने निश्च्य किया होता कि युद्ध करना न्याय है या अन्याय, अर्थात आदिदैविक और आदिभौतिक मता अनुसार केवल केवल भौतिक परिणाम कि विवेचना कि जा सकती है, जिससे अर्जुन कि मनोदशा का हल नहीं हो सकता है क्योंकि, उसकी दृष्टि उससे अधिक व्यापक है, उसे केवल सांसारिक अर्थात भौतिक हित का ही विचार नहीं करना था, किन्तु उसे पारलौकिक दृष्टि से भी यह विचार कर लेना था कि इस युद्ध का परिणाम मेरे आत्मा पर श्रेस्कर होगा या नहीं? उसे ऐसी बातो पर कुछ भी शंका नहीं थी कि युद्ध में भीष्म-द्रोण आदि का वध होने पर तथा राज्य मुझे मिलने पर क्या ऐहिक सुख मिलेगा या नहीं? या मेरा अधिकार लोगो को दुर्योधन से अधिक सुखदायक होगा या नहीं? उसे तो यही समझना था कि जो मैं कर रहा हूँ,वह धर्म है या अधर्म अथवा पुण्य है या पाप,और गीताजी में इसी दृष्टि से सब तथ्यों का विवेचन किया गया है,केवल गीता में ही नहीं बल्कि महाभारत में भी कर्म-अकर्म का जो विवेचन किया गया है वह भी पारलौकिक अर्थात आध्यात्म की दृष्टि से किया गया है,
श्रीमद्भगवदगीता की प्रवृत्ति युद्ध से विरत होते हुए अर्जुन को युद्धरत करने के लिए हुई है और इसमें गीता का ज्ञान सफल रहा है, अतः मानना होगा कि गीता प्रवृत्ति प्रधान ग्रन्थ है। यों तो उसमें निवृत्ति का भी वर्णन है, परन्तु वह गीता का अपना विषय नहीं। अर्थों की खींचतान यदि न की जावे तो गीता को निष्काम कर्म योग परक मानना ही होगा। गीता के प्रवृत्ति प्रधान होने का एक पुष्ट प्रमाण है उसकी यह परम्परा जो भगवान ने बताया है-
इमं विघस्त्रे योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विबस्वान मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवे ऽब्रवीत॥
एवं परम्परा प्राप्तमिमं राजर्षयों विदुः।
‘अविनाशी मुझ परमात्मा ने यह (गीता रूपी) योग सूर्य को बतलाया था। सूर्य ने उसका उपदेश मनु को दिया और मनु ने इक्ष्वाकु को। इसी प्रकार परम्परा द्वारा आये इस योग को राजर्षि लोग जानते रहे।’
इस परम्परा में सभी प्रवृत्ति प्रधान क्षत्रिय बताये गये हैं। निवृत्ति प्रधान नारद, सनकादि, दत्तात्रेय प्रभूति को छोड़कर सूर्य, मनु और इक्ष्वाकु का नाम लिया गया है जो क्षत्रिय वंश के प्रतिष्ठापक एवं कर्मरत नरेश हैं। आगे भी ‘राजर्षियो विदु’ कहा गया है। यह ज्ञान प्रवृत्ति प्रधान राजर्षियों का रहा है। निवृत्ति प्रधान ब्रह्मर्षियों का नहीं। लोक संग्रह के लिये निष्काम होकर राज्य करते हुए, दुष्टों के दमन में तत्पर चक्रवर्ती नरेश इस ज्ञान का आश्रय लेते रहे हैं। इस परम्परा के अतिरिक्त भगवान ने स्थान-स्थान पर स्पष्ट कहा भी है ‘तयोस्तु कर्म संन्यासात कर्मयोगो विशिष्यते’ आदि।
संपूर्ण गीता निष्काम कर्म योग का शास्त्र है। उसमें कर्मयोग के प्रत्येक पहलू पर विशद रूप से विचार किया गया है। लेकिन पूर्वकाल में वर्णन की रीति ‘समास व्यास विधिना’ थी। किसी विषय को प्रथम कहीं थोड़े शब्दों में कह देते थे और पुनः उसी का विस्तार करते थे। भगवान ने इस परम्परा की रक्षा की है। संपूर्ण कर्मयोग को सूत्र रूप से एक श्लोक में बता दिया है। फिर उसी का विस्तार किया गया है। चार सूत्रों में गागर में सागर भर दिया गया है। वह कर्मयोग की चतुःसूत्री है-
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषुकदाचन।
भा कर्मफल हेतुभूः मा ते संगो ऽस्त्वकर्मणि॥
‘तेरा अधिकार कर्म करने में ही है, फल में कभी नहीं। कर्म फल का कारण मत बन। अकर्म से तेरा साथ न होवे।’
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ कर्म करने में तेरा अधिकार है। कर्मयोग का यह प्रथम सूत्र है। इसमें बतलाया गया है कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र है। कर्म करने से उसे कोई रोकता नहीं। मनुष्य योनि की यही विशेषता है कि इस मानव शरीर में आकर स्वेच्छानुसार कर्म कर सकता है। वह अपने उत्थान या पतन का मार्ग यहीं बनाता है। मानव शरीर में किये कर्मों को ही वह देव, दैत्य, पशु, तिर्यकप्रभृति योनियों में भोगता है। गीता में इसके विपरीत दो श्लोक आते हैं-
“ईश्वरः सर्वभूतानाँ हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारुढ़ानि मायया॥”
ईश्वर समस्त प्राणियों के हृदय में रहता है और अपनी माया में उन्हें यन्त्र पर चढ़े हुए की भाँति घुमाता रहता है।
‘प्रकृतीं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।’
प्राणी मात्र अपने स्वभाव के अनुसार ही बर्ताव करते हैं, वहाँ निरोध कुछ भी नहीं कर सकता।
इस प्रकार के जो वाक्य आये हैं, उनका तात्पर्य यह नहीं कि मनुष्य कर्म करने में परतंत्र है। यदि वह कर्म करने में परतन्त्र हो तो शास्त्रों के समस्त विधि निषेध व्यर्थ हो जावेंगे। क्योंकि व्यवस्था तो स्वतन्त्र के लिए ही बनती है। परतन्त्रता पूर्वक जो कर्म मानव करेगा, उसका फल भागी भी वह नहीं हो सकता। अतएव कर्म करने में मनुष्य को स्वतन्त्र ही मानना होगा। यही बात भगवान ने प्रथम सूत्र से कही। ईश्वर प्राणिमात्र के हृदय में रहता और उन्हें यन्त्रारूढ़ की भाँति घुमाया करता है, तथा जीवमात्र अपनी अपनी प्रकृति के परतन्त्र है, इसको कहने का उद्देश्य मनुष्य कर्म करने में कहाँ तक स्वतंत्र है, इस स्वतन्त्रता की सीमा बतलाना है। कर्म करने में स्वतन्त्र होते हुए भी मानव ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्’ समर्थ तो है नहीं। उसके कर्म स्वातंत्र्य की सीमा है।
प्रत्येक व्यक्ति संसार में किसी न किसी विशेष उद्देश्य से आता है और उसका एक जन्म जात स्वभाव भी होता है। वह उस विशेष उद्देश्य को करते हुए और स्वभाव के अनुसार कर्म करने में समर्थ होता है। उनके विपरीत जाने के लिए वह स्वतन्त्र नहीं। उदाहरण के रूप में अर्जुन को लीजिए, पृथ्वी के भार को दूर करने के विशेष उद्देश्य से उसका जन्म हुआ था। अतएव इस कार्य में वह ईश्वर परतन्त्र हुआ। उसे यह कार्य करना ही होगा। ईश्वर समस्त प्राणियों के हृदय में रहता हुआ उन्हें घुमाता रहता है, इसका यह भी अर्थ हो सकता है कि भगवान उदय में हैं और उन्हीं के प्रकाश से जीव यावत्कर्म करता है। हमारे शरीर के भीतर जितने रक्त के कीटाणु हैं, वे जिस स्थान पर हैं, वहाँ रहने के लिए विवश हैं। कहा जा सकता है कि हमारी शक्ति उनके भीतर है और हमीं उनको संचालित करते हैं। परन्तु वे अपने स्थान पर रहते हुए अपनी चेष्टाओं में स्वतंत्र हैं। ऐसे ही ईश्वर द्वारा नियुक्त स्थान पर रहते हुए, संसार में अपने आने के विशेष उद्देश्य को पूर्ण करते हुए मनुष्य अपनी दूसरी चेष्टाओं में स्वतंत्र है। यही मनुष्य का कर्म स्वातंत्र्य है।
‘प्रकृतीं यान्ति भूतानि’ में जीव को स्वभावतः परतन्त्र बताया गया है। स्वभाव परतन्त्रता से कर्म की स्वतन्त्रता में तो कोई बाधा आती नहीं। इतना अवश्य होता है कि स्वभाव के विपरीत चलने के लिए मनुष्य समर्थ नहीं। एक व्यक्ति का स्वभाव क्रोधी है। अब वह चाहे कि उसे क्रोध न आवे, यह असम्भव नहीं तो कठिनतम अवश्य है। लेकिन क्रोध के उपयोग में तो वह स्वतंत्र है ही। वह पापियों, दुष्टों तथा अपने दुर्गुणों पर क्रोध करके संसार की भलाई एवं अपनी आत्मोन्नति कर सकता है। दुष्टों से मिल कर निरापराधियों पर क्रोध करेगा तो उसका परिणाम उसके लिए घातक होगा। इसी प्रकार के स्वभावों का भला और बुरा उपयोग हो सकता है। स्वभाव के उपयोग में मनुष्य स्वतंत्र है और यही उपयोग उसकी उन्नति या अवनति का कारण होता है, अतः स्वभाव परतन्त्र होते हुए भी वह कर्म करने में स्वतन्त्र है, ऐसा कहने में कोई बाधा नहीं। इसीलिए भगवान ने ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ कहा। केवल कर्म में अधिकार है, स्वभाव परिवर्तन या ईश्वर के दिये स्थान परिवर्तन में नहीं।
‘माँ फलेषु कदाचन’ फल में तेरा अधिकार कभी नहीं। यह दूसरा सूत्र है कर्मयोग का। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि एक ही परिस्थिति में, एक ही प्रकार के साधन से, एक ही कर्म के करने वालों में फल भेद होता है। कोई सफल होता है, कोई विफल होता है, कोई किसी अंश में ही सफल होता है और कोई हानि भी उठाता है। अतः उद्योग का फल उद्योग पर निर्भर हो, ऐसी बात नहीं। फल तो प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त होता है। गोस्वामी जी ने कहा है -
‘हानि लाभ जीवन मरण -जस अपजस विधि हाथ।’
कर्म के परिणाम स्वरूप हानि-लाभ, जीवन-मृत्यु यश एवं अपयश ये प्रारब्ध के अनुसार होते हैं। इन्हें प्राप्त करने में हम परतन्त्र हैं। अतः कर्म का यह फल होगा ही या यह फल होना ही चाहिए ऐसा सोच कर कर्म करने वाले सर्वदा दुख पाते हैं। फल भगवान को समर्पित करके कर्तव्य बुद्धि से कर्म करना चाहिए। फलासक्ति ही सर्वदा कष्ट देती है। यदि फल आसक्ति छोड़ दी जावे तो फिर कष्ट क्यों हो। जिसमें अपना अधिकार नहीं, उसमें आसक्ति करके कष्ट तो भोगना ही पड़ेगा।
तीसरे सूत्र में कहा गया ‘मा कर्मफल हेतु र्भूः’ कर्म फल के कारण मत बनो ! कर्म करने पर उसका अच्छा या बुरा, पूरा या अधूरा कुछ न कुछ फल तो होता ही है। वह फल मेरे कर्म से, मेरे उद्योग से हुआ है ऐसा मत समझो। क्योंकि कर्म फल का कारण केवल उद्योग तो है नहीं।
“अधिष्ठानं तथा कर्ताकरणं च पृथग्विधम।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥
शरीवाँमनोभिर्यर्त्कम प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पंचेते तस्य हेतवः॥
तत्रैवं सति कर्तारंमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न। स पश्यति र्मदुतिः॥”
18। 14। 15। 16
अधिष्ठान (कर्म का जो आधार है) कर्ता (करने वाले की शक्ति और योग्यता) नाना प्रकार की सामग्रियाँ (जो उपयोग में आती हैं, उनकी अच्छाई बुराई) विविध प्रकार की भिन्न-भिन्न चेष्टा (जितनी तत्परता से और ठीक समय पर हो) तथा प्रारब्ध (जैसा अनुकूल या प्रतिकूल हो) ये पाँच उन सब उचित और अनुचित कर्मों के कारण होते हैं जो मनुष्य शरीर से, मन से अथवा वाणी से प्रारम्भ करता है। अज्ञता वह जो कर्मों में केवल अपने को कारण मानता है, वह दुर्बुद्धि ठीक नहीं समझता।
‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा किये जाते हैं, केवल अहंकार से मूढ़ बुद्धि हुआ पुरुष अपने को कर्ता समझता है। यह कर्ता समझना ही बंधन का हेतु है। जब पुरुष अपने को कर्ता मान लेता है, कर्म फल को अपने उद्योग का फल मानता है तो वह उसके पाप-पुण्य का भागी होकर संसार चक्र में भटकता रहता है। कर्तापन का यह अभिमान ही उसे पाप-पुण्य से युक्त करता है। अन्यथा-
“गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते।”
त्रिगुण अपने गुणों में ही बर्ताव कर रहे हैं, ऐसा समझ कर उनके द्वारा किये कर्मों से संसक्त नहीं होता।
‘यस्य नाहंकृतोभावों बुद्धिर्यस्य न लिप्यति।
हत्वाऽपि स इमान्लोकानहन्ति न निबध्यते॥’
‘मैंने यह कार्य किया है’ ऐसा अहंभाव जिसमें नहीं है, जिसकी बुद्धि कर्म में लिप्त नहीं होती, वह त्रिभुवन के संहार के सदृश घोर कर्म करे तो भी न तो वह हत्यारा होता और न उसे उस कर्म से बंधन होता। भगवान शंकर इसके साक्षात उदाहरण भी है। संपूर्ण विश्व का प्रलय करके भी वे शिव कल्याण स्वरूप ही रहते हैं।
बात यह है कि कर्म में अहंकार व्यक्ति से पाप कराता है। पाप सर्वदा भोगेच्छा या स्वार्थ बुद्धि से होते हैं, ऐसे ही सकाम पुण्य कर्म भी अहंकार युक्त और यशादि की इच्छा से ही होते है। जिसमें अहंभाव नहीं है, उससे न तो पाप हो सकते है और न सकाम पुण्य। वह केवल अपने स्वभाव के अनुसार उस कर्म को करेगा, जिस कर्म विशेष के लिए विश्वनियन्ता ने उसे भेजा है। उसके द्वारा जो भी कर्म होता है, वह विश्वकर्ता की इच्छा ही से होता है। अतः वह उस कर्म के फल से क्यों संसक्त होने लगा। फल से तो संसर्ग तभी होता है जब उस फल में आसक्ति हो। मैंने उसे प्रकट किया है, ऐसा अहंकार हो अतएव भगवान इस अहंकार से जो कि मिथ्याहंकार है, सावधान करते हैं ‘मा कर्मफल हेतु र्भूः’ कर्मफल को अपने उद्योग का फल समझ उसके कारण मत बनो ! यह तो प्रारब्ध की देन है, भगवान का प्रसाद है।
योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि,तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते है, अर्थात जब कोई जीव प्रभु समर्पण भाव से कोई कर्म करता है तो वः भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है,
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ १२ ॥
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥ १३ ॥
जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति वश में कर लेता है,और मन से समस्त कर्मो का परित्याग कर देता है,तब वह नौ द्वारो वाले अर्थात भौतिक शरीर में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है,
इन्द्रयानी मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते I
एतेरविमोह इत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम II
इन्द्रिय, मन तथा बुद्धि इस काम के निवास स्थान है, इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढककर उसे मोहित कर लेता है,अर्थात हे अर्जुन ! सर्वप्रथम अपने मन को वश में करके काम क्रोध और लोभ जैसे शत्रुओ का नाश कर ले, और फिर अपने आपको भौतिक इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि से परे जानकर और मन को सावधान आध्यात्मिक बुद्धि से स्थिर करके आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम-रुपी दुर्जेय शत्रु को जीतो I
कर्मयोग नामक इस अध्याय का निष्कर्षतः मनुष्य को निर्देश हैं कि वह अपने आप को भौतिक संसार का हिस्सा न मानकर केवल परमात्मा के आधीन माने, जो कुछ भी कर्म करे सब भगवान् को अर्पित करे, जिससे वह सब किये हुए कर्म अकरम नहीं होते और कर्मयोग में परवर्तित हो जाते हैं,भौतिक जीवन में मनुष्य काम तथा प्रकृति पर प्रभुत्व पाने कि इच्छा से प्रभावित होता हैं, प्रभुत्व और इन्द्रियतृप्ति कि इच्छाएं बद्धजीव की परम् शत्रु हैं, किन्तु प्रभु की शक्ति से मनुष्य इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि पर नियंत्रण रख सकता हैं, इसके लिए मनुष्य को सहसा अपने नियतकर्मो को बंद करने की आवश्यकता नहीं हैं, अपितु धीरे धीरे भगवद्भाव विकसित करके भौतिक इन्द्रियों तथा मन से प्रभावित हुए बिना अपने शुद्ध स्वरूप के प्रति लक्षित स्थिर बुद्धि से दिव्य स्थिति को प्राप्त हो सकता हैं, यही कर्मयोग नामक अध्याय का सारांश हैं,
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