अहंशून्यता :
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अहंशून्यता :

प्रभुप्राप्ति का मार्ग : अहंशून्यता आप सबको खरगोश ओर कछुए की कहानी याद होगी, आज फिर से एक महत्वपूर्ण तथ्य को समझने के लिए आप सबक...

प्रभुप्राप्ति का मार्ग : अहंशून्यता


आप सबको खरगोश ओर कछुए की कहानी याद होगी, आज फिर से एक महत्वपूर्ण तथ्य को समझने के लिए आप सबको उसे याद करने के लिए कह रहा हूँ, कहानी साधारण है किन्तु जीवन के आत्मा परमात्मा के महत्वपूर्ण सम्बन्ध में बहुत बड़ी शिक्षा देती है, उस कहानी को याद करो ओर आगे पढ़ो, आखिर में आपसे इसका महत्व साँझा करता हूँ,



मनुष्य को परमात्मा प्राप्ति से कौन रोकता है? कौन सी ऐसी शक्ति है जो आत्मा रुपी प्रवाह को परमात्मारूपी सागर से मिलने को वंचित कर रही है?

मनुष्य का अहंकार ही है जो उसे ऊपर नहीं उठने देता, हमारी देह पंचतत्व से बनी है अर्थात पृथ्वी,जल,वायु,अग्नि और आकाश ये पंचतत्व नश्वर है, इनका अस्तित्व भी नश्वर है अर्थात पृथ्वी की शक्तियाँ यही देह तक सिमित है, देह को यही विलीन हो जाना है, इसकी कोई ईश्वरीय सत्ता नहीं है, किन्तु आत्मा जोकि नश्वर नहीं है, परमात्मा का अंश है आत्मा, नश्वर तत्वों की इतनी ताकत नहीं की आत्मा को परमात्मा से मिलने को रोक सके, क्योंकि नश्वर तत्वों की अर्थात पृथ्वी के तत्वों की शक्ति नश्वर देह तक सिमित है, यह आत्मा को नहीं बाँध सकती, फिर आत्मा को कोण रोक रहा है परमपिता परमेश्वर से मिलने को? मनुष्य का अहम् अर्थात अहंकार का भार ही है जो उसे ऊपर उठने नहीं देता है, आत्मा अहंकार के कारण परमात्मा से वंचित होकर, व्यर्थ ही देहानुसरण को विवश हो रही है,


क्योंकि आत्मा का स्वरुप नश्वरता नहीं है बल्कि परमात्मा है और यदि आत्मा अपने मूल स्वरुप से न मिल सके तो अतिशय  पीड़ा होती है, क्योंकि जिस की जो प्रकृति है वह वही खुश रहता है, आत्मा का स्वरुप प्रकाश है और वह पूर्ण प्रकाश से ही मिलने को तड़पती है,और किसी कारणवश अपने मूल रूप तक नहीं पहुँच पाती है तो तड़प उठती है, व्यथित होती है,दुखी होती है,और एक असहय पीड़ा में परिणत हो जाती है, परमात्मा ही उसकी पूर्ण अभिव्यक्ति है, जहाँ स्वयं की सम्भावनाओ के साथ सत्य बनने में अवरोध है, वही पीड़ा है, क्योंकि, स्वयं की पूर्ण अभिव्यक्ति ही आनंद है, जैसे धरती में पड़े बीज के भीतर सम्भावना तो एक बृहद वृक्ष बनने की होती है किन्तु उचित वातावरण न मिलने से वह बीज वही धरती पर पड़ा पड़ा सुख जाता है मिट जाता है, यही उसकी असहनीय पीड़ा है, ऐसे ही हमारी आत्मा का सुख परमात्मा से मिलने पर है और अहम् रूपी दोष के कारण यह मिलन सम्भव नहीं हो पता तो दुःख का कारण बन जाता है, 

मिटटी का दिया हमेशा धरती पर रहता है क्योंकि वह पृथ्वी से बना है, उसका वजूद मिटटी ही है,लकिन ज्योति परमात्मा का स्वरुप है, वह मर्त्य नहीं है, इसीलिए ऊपर उठती है, निरन्तर ऊपर की तरफ भागती है, क्यों? क्योंकि उसका मूल स्वरुप ज्योति है, परमात्मा है इसीलिए उसी की और आकर्षित होती है, अहंकार एक ऐसी व्याधि है जो ऊपर उठने नहीं देती,

परमात्मा की ओर केवल वही गति कर पाते है, अर्थात जो सब भांति स्वयं से निर्भार हो जाते है, अर्थात जिसमे कोई अहम् नहीं है, जैसे पतंग आकाश में उड़ती है आगे ओर आगे बढ़ना चाहती है, किन्तु वह मुक्त नहीं है, जब तक उसकी डोर उड़ानेवाले से बंधी है वह भारयुक्त है, उड़ाने वाले का अहंकार उसे बांधे हुए है लकिन जैसे ही काट जाती है, मुक्त हो जाती है, कोई अहंकार उसकी बाधा नहीं है, वह खुले आसमान में बहती जाती है, निर्बाध गति से बढ़ती जाती है, ऐसे ही हमारी आत्मा जब तक मोह,ममता,अहंकार आदि विषयो के भार से मुक्त नहीं हो जाती परमात्मा से नहीं मिल सकती,

एक कथा के माध्यम से समझते है, एक बार घोषणा हुयी की पहाड़ की ऊँची छोटी पर स्थित परमात्मा का मंदिर है, जो सबसे पहले उस छोटी पर पहुंचेगा वही वहाँ का महंत घोषित होगा, हर कोई उस परमात्मा तक पहुंचना चाहता है, निश्चित दिन दौड़ शुरू हुयी, लकिन पौरषत्व के अभिमान ओर अहंकार से पोषित कुछ पहलवान ने बड़े बड़े पत्थर अपने कंधे पर धरे ओर चढ़ाई शुरू की, क्योंकि वो अपना शौर्य दिखाना चाहते है, इसलिए जिसका जैसा अहम् वैसा ही पत्थर उठाकर यात्रा शुरू कर दी, अब जैसे जैसे आगे चढ़ाई की थकते गए किन्तु अहमवश पत्थर नहीं छोड़ा, उन्ही में एक शिथिल काया वाला बिना किसी पत्थर के आगे जा रहा है, उसे देख सब हंस रहे है, किन्तु वह धीरे धीरे चलता रहा, कुछ दिनों में सब वहाँ पहुंचे तो हैरान रह गए की जो कमजोर व्यक्ति था उसे महंत बना दिया गया था, न कोई विरोध कर सका, क्योंकि पत्थर लेकर चढ़ना है ऐसी कोई शर्त नहीं थी, सबसे पहले पहुंचना है केवल यही था, पत्थर का बोझ तो अहंकार था जिसकी वजह से वह प्रभु के पुजारी न बन सके, " परमात्मा के मंदिर में प्रवेश का अधिकारी केवल वही है, जो स्वयं की अहंता के भार से मुक्त हो गया है,"


खरगोश अहम के वशीभूत आत्मा है, कछुआ अहंशून्य आत्मा है, जिस पेड़ तक पहुंचना है वह परमात्मा का घर है, खरगोश को अपनी तीव्र गति का अहंकार होता है ओर वह पेड़ तक पहुँचने से वंचित हो जाता है, जबकि कछुआ निर्भार है, उसे कोई अहम् नहीं है, स्वछंद गति से, आगे बढ़ रहा है, कोई द्वेष, कोई बाध्यता का भार उसने नहीं उठाया है, इसीलिए वह निरन्तर आगे बढ़ता हुआ अपनी मंजिल तक पहुँच गया, अर्थात इस छोटी सी कहानी को याद दिलाकर केवल यही बताना चाह रहा हूँ की जो आत्मा बिना किसी विषय के भार लिए निरंतर परमात्मा की ओर अग्रसर होती है वही परमात्मा से मिलती है, क्योंकि आत्मा परमात्मा का अंश है उसकी सच्ची शांति और आनंद अपने मूल स्वभाव में स्थित होकर ही मिलता है, जैसे पंचतत्व की काया जोकि प्रकृति से बनी है, जब हम प्रकृति के निकट होते है अर्थात पहाड़, नदिया, वन इत्यादि के निकट होते है तो हमारी काया आनंदित होती है, सकून महसूस करती है क्योंकि जिस तत्व से काया बनी है उसे उन्ही के मध्य अच्छा लगता है, ऐसे ही आत्मा जो ज्योति स्वरुप है उसे शांति और आनंद केवल परमाता से मिलकर ही मिलता है





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