नानी का घर
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नानी का घर

नानी का घर अजीब सा लग रहा है न 'नानी का घर' क्या मतलब है इसका? इससे पहले एक सवाल खुद से पूछो, जहां तुम रह रहे हो क्या व...

अहंशून्यता :
अंतर्नाद का संगीत
नानी का घर



अजीब सा लग रहा है न 'नानी का घर' क्या मतलब है इसका? इससे पहले एक सवाल खुद से पूछो, जहां तुम रह रहे हो क्या वह तुम्हारा असली घर है? यदि जवाब नहीं है, तो जल्दी समझ जाओगे की मैं क्या कहना चाह रहा हूँ? 


जैसे बालक छुटिया मनाने नानी के घर जाते है,लेकिन उनका असली ठिकाना पिता का घर ही होता है, ऐसे ही हम सब का पिता परमपिता परमेश्वर है, और उस पिता का घर ही हमारा असली घर है, कहो मेरी बात से सहमत हो या नहीं, मेरी दृष्टि से तो परमपिता का घर ही हमारा असली घर है, तो इसका मतलब यही हुआ ना की यह संसार जिसमे हमारा जनम हुआ है, यह नानी का घर है, जैसे ही हमारा कार्य समाप्त होगा हमे अपने पिता के घर जाना होगा,  

एक फ़क़ीर ने भागते हुए इंसान से पूछा, कहाँ भाग रहे हो? 
वह हड़बड़ाहट में जल्दी से बोला," अपने घर",
फ़क़ीर ने फिर पूछा,"कौन सा घर?"
युवक बोला," परमपिता का घर ही तो असली घर है,उसी को खोज रहा हूँ," 

फ़क़ीर बोला, "ऐसे भागते- भागते खोज लोगे असली घर,"
यही सवाल मेरा आप सब से है की "परमपिता का घर कौन सा है? वह कहाँ रहता है? उसको कैसे खोजा जा सकता है? " क्या कहोगे तुम सब?

मेरा मानना यह है की खोजा तो उसे जाता है,जो खो गया हो, क्या परमपिता कही खो गया है? क्या वह स्वयं तुम्हारे भीतर नहीं बैठा है? क्या जो हमारे भीतर बैठा है,उसको खोजने के लिए भागना जरूरी है? जिस पिता का घर हमारे भीतर है, जिसका आनंद हमारे दिल में है, जो कभी हम से विलग ही नहीं हुआ,उसको कैसे खोजना, क्यों खोजना? ये तो वही बात हो गयी की घर में सुई गिर गयी, और हम उसे बाहर की रोशनी में खोज रहे है, क्यों? क्योंकि भीतर अँधेरा है तो कैसे खोजे, क्या जो वास्तु घर में खोई है वह बाहर मिल जायेगी, अगर मिल जाती है, तो भागना उचित है, किन्तु मेरी दृष्टि से तो बाहर भागना तुम्हे उस वस्तु से और  भी दूर ले जा रहा है, तुम बाहर भटक रहे हो, और घर दूर होता जाता है,



एक बार के लिए "ठहरो और रुको और स्वयं में देखो?" जो इसी क्षण है, अभी तुम्हारे पास है,उसे भविष्य में पाने की कामना क्या भ्रम नहीं है, क्या मन की भ्रान्ति नहीं है? जो तुम्हारे भीतर है उसकी खोज के लिए बाहर भागना उसे अपने से दूर करने जैसा ही है,

"ठहरो और रुको और स्वयं में देखो अर्थात एक बार के लिए ध्यान की गहराई में जाओ,और गहरा,गहरा जितना डूब सको,जितना गहरा तुम जाओगे उतना ही नजदीक परमपिता को पाओगे,गहरा और गहरा, "जिन खोजा तिन पाइया,गहरे पानी पैठ" गहरा जितना अधिक गहरा उतरोगे उतने ही मोती हाथ लगेंगे, समुद्र के किनारे पर बैठने से तो केवल सीप और रेत ही हाथ लगेगी, जबतक गहराई में नहीं जाओगे तो मोती कैसे पाओगे? इसलिए ध्यान की गहराई में डूब कर ही परमपिता का घर मिल जाएगा, कही नहीं भागना कहि नहीं जाना केवल स्वयं के भीतर, गहरा और गहरा बस गहराई से चिंतन उस प्रभु का जिससे हम अपने को अलग महसूस करते है................


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