श्रीराधा माधव चिन्तन (विशुद्ध प्रेमिका श्रीराधागोपिका)
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श्रीराधा माधव चिन्तन (विशुद्ध प्रेमिका श्रीराधागोपिका)

  "विशुद्ध प्रेमिका श्रीराधागोपिका" श्रीराधिका-गोपी प्रेम परम् विशुद्ध प्रेम है,इस बात को कहना या किसी प्रमाण के आधीन ...

श्रीराधा-माधव-चिंतन-(‘नासौ रमणो नाहं रमणी’)
श्रीराधा-माधव-चिंतन-(श्रीराधामाधव नित्य निरन्तर- महाभाव स्वरूप)
श्रीराधा_माधव_चिन्तन-(श्रीराधा जी के प्रेम का स्वरूप)
 "विशुद्ध प्रेमिका श्रीराधागोपिका"



श्रीराधिका-गोपी प्रेम परम् विशुद्ध प्रेम है,इस बात को कहना या किसी प्रमाण के आधीन नहीं है, प्रेम और काम में अत्यंत भेद है जिसे जानना समझना आवश्यक है,श्रीराधिका-गोपियाँ जो प्रेम श्री कृष्ण से करती है वह प्रेम की परकाष्ठा है, उससे दिव्य, निर्मल और उच्च प्रेम और हो ही नहीं सकता है, क्योंकि इनका प्रेम सधारण संसार के जीवो के प्रेम के जैसा स्वार्थसिद्धि और इन्द्रियसुखेच्छा का प्रेम नहीं है अर्थात ऐसा प्रेम प्रेम है ही नहीं,यह तो केवल काम-तृप्ति का भाव है, इन्द्रिजनित सुखोपभोग की लालसा है वस्तुतः प्रेम है ही नहीं,


यो ब्रह्मरुद्रशुकनारदभीष्ममुख्यै- रालक्षितो न सहसा पुरुषस्य तस्य। 
सद्योवशीकरणचूर्णमनन्तशक्तिं तं राधिकाचरणरेणुमनुस्मरामि।। 

समस्त संसार के प्राणी भोग-सुख की कामना करते हैं। सभी के मन में सदा भोग-लालसा  भरे रहते हैं। मनुष्य दिन-रात इसी चिन्तानल में जलते रहते हैं कि उनकी भोग-लालसा पूरी हो। इस भोग-काम को लेकर ही जगत् के प्राणी निरन्तर दुःख सागर में डूबते-उतरते रहते हैं। यह भोग-काम मनुष्य के ज्ञान को ढके रखता है। मनुष्य भूल से भोग-काम को ही प्रेम मान लेते हैं और काम के कलुषित गरल-कुण्ड में निमग्न रहकर प्रेम के पवित्र नाम को कलंकित करते हैं।

वस्तुतः काम और प्रेम में महान् अन्तर है। जैसे काँच और हीरा देखने में एक-से दिखायी देते हैं, पर दोनों में महान् भेद होता है— अनुभवी जौहरी ही असली हीरे को और उसके मूल्य को पहचानते-जानते हैं,  काम अंधकारमय और दृष्टिहीन है अर्थात कामातुर प्राणी अंधे से भी गया गुजरा हो जाता है, प्रेम निर्मल भास्कर है। प्रेम अत्यन विशुद्ध भाव है,

अंधा मनुष्य अपने को ही जानता है, दूसरे को नहीं; परंतु कामान्ध मनुष्य तो अपना हित भी नहीं देखता। इसी से काम को ‘अन्धतम’ कहा गया है। काम का उदय होने पर विद्वान् की विद्वत्ता, त्यागी का त्याग, तपस्वी की तपस्या, साधु की साधुता और वैरागी का वैराग्य— सभी हवा हो जाते हैं। कामान्ध मनुष्य अपना कल्याण ही नहीं नष्ट करता, सर्वनाश कर डालता है। काम की दृष्टि रहती है अधः इन्द्रियों को तृप्त करने में और प्रेम का लक्ष्य रहता है ऊर्ध्वतम भगवान् के आनन्द-विधान की ओर। काम से आत्मा का अधःपात होता है और प्रेम से दिव्य भगवदानन्द का दुर्लभ आस्वादन मिलता है। अतएव काम तथा प्रेम परस्पर अत्यन्त विरुद्ध हैं।

 ‘काम’ और ‘प्रेम’ का भेद बतलाते हुए श्रीचैतन्यचरितामृत में कहा गया है—

कामेर तात्पर्य निज संभोग केवल, कृष्णसुख-तात्पर्य प्रेम तो प्रबल। 
लोकधर्म, वेदधर्म, देहधर्म, कर्म, लज्जा, धैर्य, देहसुख, आत्मसुख मर्म।। 
सर्वत्याग करये, करे कृष्णेर भजन, कृष्णसुख हेतु करे प्रेमेर सेवन। 
अतएव कामे प्रेमे बहुत अन्तर- काम अन्धतम प्रेम निर्मल भास्कर।। 

मनुष्य की कामना जब शरीर में केन्द्रित होती है, तब उसका नाम होता है ‘काम’ और जब श्रीकृष्ण में केन्द्रित होती है, तब वही ‘प्रेम’ बन जाती है। यह निजेन्द्रिय-तृप्ति की इच्छा, भोग-सुख-कामना जिसकी जितनी कम है, वह उतना ही महान् है। जो निज-भोग-सुख को सर्वथा भूलकर सर्वथा पर-सुखपरायण हो जाते हैं, वे सच्चे महापुरुष हैं; और जिनका आत्मसुख सदा-सर्वदा सर्वथा श्रीकृष्णसुख में परिणत हो जाता है, वे तो महापुरुषों के द्वारा भी परम वन्दनीय हैं। उनकी तुलना जगत् में कहीं किसी से होती ही नहीं। 

 श्रीगोपांगनाएँ श्रीकृष्णसुख-प्राणा और सहज कृष्ण-सुख-स्वभावा थीं। इसी से वे वेदधर्म, देहधर्म, लोकधर्म, लज्जा, धैर्य, देहसुख, आत्मसुख, स्वजन एवं आर्यपथ - यों ‘सर्वत्याग’ करके सदा श्रीकृष्ण का सहज भजन करती थीं। गोपियों के ह्रदय में केवल और केवल श्रीकृष्ण के सुख का भाव और हर परस्थितियो में हर-हाल, क्रिया और कर्म द्वारा श्री रसराज प्रियतम कृष्ण को सुख पहुँचाना है, श्रीकृष्ण सुख के लिये सर्वत्याग— यही गोपी की विशेषता है। निज सुख के लिये बहुत कुछ त्याग करते हैं, परंतु केवल कृष्ण सुख के लिये ‘सर्वत्याग’ करना केवल गोपी में ही सम्भव है।



निज-सुख-कामना को प्रीतिरस की ‘उपाधि’ कहा गया है। गोपीप्रेम में यह उपाधि नहीं है, इसी से गोपीप्रेम को ‘निरुपाधि’ प्रेम कहते हैं। ‘श्रीकृष्णसुखत्वे गोपीसुखत्वं तत्सुखत्वेन पुनः श्रीकृष्णसुखत्वम्।’ वस्तुतः श्रीकृष्णसुख ही गोपी का सुख है, स्वयं के लिए किसी भी तरह के सुख की खोज अर्थात निजसुख की चाह की गोपीप्रेम में कल्पना भी नहीं है। गोपी का वस्त्राभूषण धारण करना, श्रृंगार करना, खाना-पीना, जीवन धारण करना- सही सहज ही श्रीकृष्ण सुख के लिये हैं। 

श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है-

निजांगमपि या गोप्यो ममेति समुपासते। ताभ्यः परं न मे पार्थ निगूढप्रेमभाजनम्।।

 ‘अर्जुन! गोपियाँ अपने अंगों की रक्षा या देखभाल भी इसीलिये करती हैं कि उनसे मेरी सेवा होती है। गोपियों को छोड़कर मेरा निगूढ़ प्रेमपात्र और कोई नहीं है।’

 गोपी अपने देह की रक्षा, सार-सँभाल तथा श्रृंगार-सज्जा करती हैं,यह सत्य है। क्योंकि यह शरीर श्रीकृष्ण सेवा का साधन है,शरीर के बिना सेवा संभव नहीं है केवल इसी भाव से गोपिकाये अपने तन को संवारती है,उन्हें अपने सुख का कोई भाव नहीं है, गोपियों के शरीर श्रीकृष्ण की सम्पत्ति हैं, गोपियों के ऊपर तो उनके यथायोग्य यत्नपूर्वक सँभाल करने का भार है। गोपियों के तन-मन-सभी के स्वामी श्रीकृष्ण हैं। शरीर को धो-पोंछकर वस्त्राभूषणों से सजाने पर उसे देखकर श्रीकृष्ण सुखी होंगे, इस कृष्ण-सुख-कामना को लेकर ही ये प्रातःस्मरणीया व्रजदेवियाँ श्रीकृष्ण के सेवापचार के रूप में अपने शरीरों की सावधानी के साथ सेवा करती हैं।अपने पृथक् सुख से गोपियों की सहज ही विरक्ति है। 

 गोपीगीत में श्रीगोपियाँ गाती हैं - 
यत् ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
 तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित् कूपादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः।।

 ‘तुम्हारे चरण कमल से भी अधिक कोमल हैं, उन्हें हम अपने कठोर उरोजों पर बहुत डरते-डरते धीरे से रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय। उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर वन में भटक रहे हो। कंकड़-पत्थर आदि के आघात से उनमें क्या पीड़ा नहीं होती? हमें तो इसकी सम्भावना मात्र से ही चक्कर आ रहा है। श्रीकृष्ण! हमारे श्यामसुन्दर! प्राणप्रियतम! हमारा जीवन तुम्हारे लिये है, हम तुम्हारे लिये ही जी रही हैं, हम तुम्हारी ही हैं।’

गोपियों में सहज ही निजसुख का चाहत नहीं है। उनके शरीर, मन, वचन की सारी चेष्टाएँ और संकल्प श्रीकृष्णसुख के लिये ही होते हैं; इसी से उनका ‘सर्वत्याग’ स्वाभाविक है। गोपियों में ‘सर्वत्याग’ की भी विचार-बुद्धि नहीं है। हमारे सर्वत्याग से श्रीकृष्ण सुखी होंगे— इस प्रकार के विचारों से वे सर्वत्याग नहीं करतीं। उनमें श्रीकृष्ण सुख कामना की कर्त्तव्य-बुद्धि भी नहीं है। श्रीकृष्ण के प्रति सहज अनुराग ही यह सर्वत्याग करता है; यह तो गोपियों का सहज स्वभाव है, उनका स्वरूपभूत लक्षण है। उनकी प्रत्येक क्रिया सहज ही श्रीकृष्णसुख के लिये होती है। गोपियाँ किसी प्रकार हठ या प्रयास से सर्वत्याग नहीं करती अपितु 'सर्वस्वं श्रीकृष्ण हि' ऐसा उनका प्राकृत स्वभाव ही है,


इसी से श्रीकृष्ण गोपियों के नित्य ऋणी हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अपना यह सिद्धान्त घोषित किया है - 
‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।’ (जो मुझको जैसे भजते हैं, उन्हें मैं वेसे ही भजता हूँ।) 

इसका यह तात्पर्य समझा जाता है कि भक्त जिस प्रकार से तथा जिस परिमाण के फल को दृष्टि में रखकर भजन करता है, भगवान् उसको उसी प्रकार तथा उसी परिमाण में फल देकर उसका भजन करते हैं- सकाम, निष्काम (मुक्तिकाम), शान्त, दास्य, वात्सल्य, सख्य आदि की जिस प्रकार की कामना-भावना भक्त की होती है, भगवान् उसे वही वस्तु प्रदान करते हैं; 

परंतु यहाँ गोपियों के सम्बन्ध में भगवान् के इस सिद्धान्त-वाक्य की रक्षा नहीं हो सकी। इसके प्रधान कारण तीन हैं - 
1. गोपी के कोई भी कामना नहीं है, अतएव श्रीकृष्ण उसे क्या दें?
2. गोपी के कामना है केवल श्रीकृष्ण-सुख की, श्रीकृष्ण इस कामना की पूर्ति करने जाते हैं तो उनको स्वयं अधिक सुखी होना पड़ता है। अतः इस दान से ऋण और भी बढ़ता है। 

3. जहाँ गोपियों ने सर्वत्याग करके केवल श्रीकृष्ण के प्रति ही अपने को समर्पित कर दिया है, वहाँ श्रीकृष्ण का अपना चित्त बहुत-से प्रेमियों के प्रति प्रेमयुक्त है। अतएव गोपी प्रेम अनन्य और अखण्ड है, कृष्णप्रेम विभक्त और खण्डित है। 

इसी से गोपी के भजन का बदला उसी रूप में श्रीकृष्ण उसे नहीं दे सकते और इसी से अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए वे कहते हैं— 

न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः।
या माभजन् दुर्जरगेहश्रंखलाः संवृश्रूच्य तद् वः प्रतियातु साधुना।।

‘गोपियो! तुमने मेरे लिये घर की उन बेड़ियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीर से, अमर जीवन से अनन्त काल तक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं सदा तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वभाव से ही, प्रेम से ही मुझे उऋण कर सकती हो। परंतु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ।’

धन्य है, श्रीराधागोपिका जीवन,भाव,क्रिया-कलाप,और हर वो विधि जो केवल और केवल श्रीकृष्णसुखेच्छा पर न्योछावर है,कोई कामना ही नहीं है गोपियों को,सर्वस्व  त्यागमय जीवन और विशुद्ध कृष्णप्रेम, जिसका ऋण उतारने में स्वयं त्रिलोकीनाथ,परब्रह्म परमेश्वर भी असमर्थ है ऐसा विशुद्ध प्रेम केवल और केवल श्रीराधिका जी और गोपियों का ही हो सकता है,


 हे कृष्णप्रेयसि! श्रीराधिका जू ! आपसे हम गोपीप्रेम की ऐसे ही विशुद्ध भाव की एक बून्द भी प्राप्त  कर ले तो हमारा जीवन धन्य हो जाए, सदैव अपनी कृपादृष्टि हम पर रखना.....श्री राधे श्री राधे श्री राधे............ 



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Festival Special,6,Hanuman Ji,4,Happy Life,13,Inspiration,4,karmyog-geeta gyaan,8,Krishan Chaiynya Mahaprbhu,12,krishna consciousness,18,MOTIVATION,1,Navratri,2,Pundrik Ji Goswami,5,RAM MANDIR NIRMAAN,4,Relations,2,sangkirtna,22,Vrindavan Darshan,1,आनंद की ओर,3,इरशाद,2,गोपीगीत,7,तंत्र -मंत्र या विज्ञान,1,न भूतो न भविष्यति,1,भक्तमाल,10,रासलीला,1,श्याम-विरहणी,2,श्री कृष्ण बाललीला,2,श्रीराधा-माधव-चिंतन,7,साधना और सिद्धि,9,होली के पद,2,
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DIVINE LOVE: श्रीराधा माधव चिन्तन (विशुद्ध प्रेमिका श्रीराधागोपिका)
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