प्रकृति माँ है हे मानव ! प्रकृति माँ है, जीवन है, समृद्धि है, पर्यावरण की शुद्धता ही जगत की वृद्धि है खिलवाड़ मर्यादा स...
प्रकृति माँ है
हे मानव ! प्रकृति माँ है, जीवन है, समृद्धि है,
पर्यावरण की शुद्धता ही जगत की वृद्धि है
खिलवाड़ मर्यादा से इसकी कोरी स्वार्थसिद्धि है
वृक्ष काटना भूमि खनन ये सब कष्टों की वृद्धि है
क्यों नहीं मानता इंसान क्यों बना हुआ जिद्दी है?
नासमझ क्यों सुख के खातिर आपदा बुलाता है
अतिशय स्वार्थ सदैव ही अन्धकार में ले जाता है
भूल गए सुनामी को या बद्री केदार की तबाही को
या अंधे स्वार्थ में सब कुछ मान लिया कमाई को
प्रकृति संग चलने में ही मानवजाति की समृद्धि है
भोजन शुद्ध कहता है जो डिस्पोजल प्लास्टिक में खाता है
नहीं जनता कुछ ही समय में भोजन ऐसा विषयुक्त बन जाता है
धीरे धीरे ऐसा विष असर दिलो दिमाग पर करता जाता है,
फिर कहता है मेरा तो डाक्टर और दवाइयों से गहरा नाता है,
समझना उपयोगिता प्रकृति की ज्ञान की वृद्धि है .........
धरती का सीना खोद कर ऊँची ईमारत बनाता है
काट काट के पेड़ो को फिर उस घर को सजाता है
चिर कर सीना ऊँचे पर्वतो को कैसे मार्ग बनाता है
नदियों की सीमा में घुसकर धरती कबजाय जाता है
नहीं मानता इस मिटटी से ही सच्ची समृद्धि है ..
नहीं करो खिलवाड़ मिटटी से मिटटी में मिल जाओगे
करोगे नष्ट प्रकृति को तो सुख शान्ति कहाँ से पाओगे
प्रकृति तो है माँ का रूप हमेशा त्याग वो तो करती है
कुछ फर्ज मानव तुम भी निभा लो कुछ आस तो करती है
माँ के आँचल में ही हमारी सुख और समृद्धि है ....
धरती का सीना खोद कर ऊँची ईमारत बनाता है
काट काट के पेड़ो को फिर उस घर को सजाता है
चिर कर सीना ऊँचे पर्वतो को कैसे मार्ग बनाता है
नदियों की सीमा में घुसकर धरती कबजाय जाता है
नहीं मानता इस मिटटी से ही सच्ची समृद्धि है ..
नहीं करो खिलवाड़ मिटटी से मिटटी में मिल जाओगे
करोगे नष्ट प्रकृति को तो सुख शान्ति कहाँ से पाओगे
प्रकृति तो है माँ का रूप हमेशा त्याग वो तो करती है
कुछ फर्ज मानव तुम भी निभा लो कुछ आस तो करती है
माँ के आँचल में ही हमारी सुख और समृद्धि है ....
Vikas Aggarwal
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