कबीर महात्मा कबीर का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब भारतीय समाज और धर्म का स्वरुप अधंकारमय हो रहा था। भारत की राजनीतिक, सामाजिक...
कबीर
महात्मा
कबीर का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब भारतीय समाज और धर्म का स्वरुप अधंकारमय हो रहा
था। भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्थाएँ सोचनीय हो गयी थी। एक
तरफ मुसलमान शासकों की धमार्ंधता से जनता त्राहि- त्राहि कर रही थी और दूसरी तरफ
हिंदूओं के कर्मकांडों, विधानों एवं पाखंडों से धर्म- बल का ह्रास हो रहा था। जनता
के भीतर भक्ति- भावनाओं का सम्यक प्रचार नहीं हो रहा था। सिद्धों के पाखंडपूर्ण
वचन, समाज में वासना को प्रश्रय दे रहे थे।
नाथपंथियों के अलखनिरंजन में लोगों का ऋदय रम नहीं रहा था। ज्ञान और भक्ति दोनों तत्व केवल ऊपर के कुछ धनी- मनी, पढ़े- लिखे की बपौती के रुप में दिखाई दे रहा था। ऐसे नाजुक समय में एक बड़े एवं भारी समन्वयकारी महात्मा की आवश्यकता समाज को थी, जो राम और रहीम के नाम पर आज्ञानतावश लड़ने वाले लोगों को सच्चा रास्ता दिखा सके। ऐसे ही संघर्ष के समय में, मस्तमौला कबीर का प्रार्दुभाव हुआ।
नाथपंथियों के अलखनिरंजन में लोगों का ऋदय रम नहीं रहा था। ज्ञान और भक्ति दोनों तत्व केवल ऊपर के कुछ धनी- मनी, पढ़े- लिखे की बपौती के रुप में दिखाई दे रहा था। ऐसे नाजुक समय में एक बड़े एवं भारी समन्वयकारी महात्मा की आवश्यकता समाज को थी, जो राम और रहीम के नाम पर आज्ञानतावश लड़ने वाले लोगों को सच्चा रास्ता दिखा सके। ऐसे ही संघर्ष के समय में, मस्तमौला कबीर का प्रार्दुभाव हुआ।
हिंदी साहित्य में कबीर का
व्यक्तित्व अनुपम है। गोस्वामी तुलसीदास को छोड़ कर इतना महिमामण्डित व्यक्तित्व
`कबीर' के सिवा अन्य किसी का नहीं है।
जीवन परिचय
कबीर के जन्म के संबंध में अनेक
किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे जगद्गुरु रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद
से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणी उस नवजात
शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी। उसे नीरु नाम का जुलाहा अपने घर ले आया।
उसीने उसका पालन-पोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया।
कतिपय कबीर पन्थियों की मान्यता
है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर
बालक के रूप में हुआ। एक प्राचीन ग्रंथ के अनुसार किसी योगी के औरस तथा प्रतीति
नामक देवाङ्गना के गर्भ से भक्तराज प्रल्हाद ही संवत १४५५ ज्येष्ठ शुक्ल १५ को
कबीर के रूप में प्रकट हुए थे।
कुछ लोगों का कहना है कि वे
जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदु
धर्म की बातें मालूम हुईं। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की
सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि
तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल
पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु
स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- हम
कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये।
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार
अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता
है कि कबीर ने हिंदु-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदु-भक्तों तथा मुसलमान फकीरों का
सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयंगम कर लिया।
मोको कहां ढूँढे रे बन्दे,मैं तो तेरे पास में
ना तीरथ मे ना मूरत में, ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में, ना काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बन्दे, मैं तो तेरे पास में
ना मैं जप में ना मैं तप में, ना मैं बरत उपास में
ना मैं किरिया करम में रहता, नहिं जोग सन्यास में
नहिं प्राण में नहिं पिंड में, ना ब्रह्याण्ड आकाश में
ना मैं प्रकुति प्रवार गुफा में, नहिं स्वांसों की स्वांस में
खोजि होए तुरत मिल जाउं. इक पल की तालास में
कहत कबीर सुनो भई साधो, मैं तो हूं विश्वास में
जनश्रुति के अनुसार उन्हें एक
पुत्र कमल तथा पुत्री कमाली थी। इतने लोगों की परवरिश करने के लिये उन्हें अपने
करघे पर काफी काम करना पड़ता था। साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था।
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे- मसि
कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी मे, जो सुख पाऊँ राम भजन में
सो सुख नाहिं अमीरी में, मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥
भला बुरा सब का सुनलीजै, कर गुजरान गरीबी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में, आखिर यह तन छार मिलेगा
कहाँ फिरत मग़रूरी में, मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥
प्रेम नगर में रहनी हमारी, साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में, कहत कबीर सुनो भयी साधो
साहिब मिले सबूरी में, मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥
संत कबीर ने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और
उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित
होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति,
रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे।
कबीर परमात्मा को मित्र, माता,
पिता और पति के रूप में देखते हैं। यही तो मनुष्य के सर्वाधिक निकट रहते हैं। वे
कभी कहते हैं- हरिमोर पिउ, मैं
राम की बहुरिया तो कभी कहते
हैं, हरि जननी मैं बालक तोरा उस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का
कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत
की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध
रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में
सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे।
कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था
और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा
संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।
कबीरदास जी का जीवन पूर्ण रूप से
पर्भु को समर्पित था, उन्होंने कोई जाती,लिंग और विचारों को महत्व नही दिया सदैव भक्ति
में ही लगे रहते थे, उन्होंने राम को ही माता और पिता सुब कुछ मान लिया था, उन्होंने
भक्तिसूत्रों कोई एक नई विचारधारा को जन्म दिया, कबीर जी ने हमे सिखाया कि धरम के लिए
किसी जाति,कुल,कर्म,आदि का भेद महत्व नही रखता,
भक्ति गेंद चौगान की, भावै कोइ लै लाय |
कहैं कबीर कुछ भेद नहिं, कहाँ रंक कहँ राय ||
भक्ति तो मैदान में गेंद के समान सार्वजनिक है, जिसे अच्छी लगे, ले जाये | गुरु कबीर जी कहते हैं कि, इसमें धनी - गरीब, ऊँच - नीच का भेदभाव नहीं है |
जब लग नाता जाति का, तब लग भक्ति न होय |
नाता तोड़े गुरु बजै, भक्त कहावै सोय ||
जब तक जाति - भांति का अभिमान है तब तक कोई भक्ति नहीं कर सकता | सब अहंकार को त्याग
कर गुरु की सेवा करने से गुरु - भक्त कहला सकता है |
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव |
भक्ति भाव एक रूप हैं, दोऊ एक सुभाव ||
भाव (प्रेम) बिना भक्ति नहीं होती, भक्ति बिना भाव (प्रेम) नहीं होते | भाव और भक्ति एक ही रूप के दो नाम हैं, क्योंकि दोनों का स्वभाव एक ही है |
जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय |
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ||
जाति, कुल और वर्ण का अभिमान मिटाकर एवं मन लगाकर भक्ति करे | यथार्थ सतगुरु के मिलने पर आवागमन का दुःख अवश्य मिटेगा |
कामी क्रोधी लालची, इतने भक्ति न होय |
भक्ति करे कोई सुरमा, जाति बरन कुल खोय ||
कामी, क्रोधी और लालची लोगो से भक्ति नहीं हो सकती | जाति, वर्ण और कुल का मद मिटाकर, भक्ति तो कोई शूरवीर करता है |
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