गीता सारांश पहला अध्याय आज के युग में होने वाले वर्णसंकर संतान और कुल-धर्म, निति और रीती रिवाज़ के त्याग के कारण दुखो का जीवन में बो...
गीता सारांश पहला अध्याय
आज के युग में होने वाले वर्णसंकर संतान और कुल-धर्म, निति और रीती रिवाज़ के त्याग के कारण दुखो का जीवन में बोलबाला रहता है, जीवन में अनेक कष्टों का कारण भी मर्यादा से रहित जीवन है, श्री गीता जी के प्रथम अध्याय में अर्जुन ने श्री कृष्ण जी को कुल, वंश की मर्यादा और उसके महत्व को बताया,जिसके कारण वह युद्ध न करने को कहता है, आइये इस प्रसंग से निम्न प्रश्नो के जवाब ढूंढ़ते है,
१. कुल, वंश क्या है?
२. कुल धर्म,रीती रिवाज़ और परम्परा क्या है?
३. अपने धरम या कुल के विरुद्ध अन्य धर्म या जाति में विवाह करने से क्या होता है?
४. वर्णसंकर संतान क्या होती है?
५. क्यों वर्णसंकर संतान किसी कुल की मर्यादा का पालन करने में सक्षम नहीं है?
६. क्यों पितरो की तृप्ति नहीं होती वर्ण संकर संतान के द्वारा?
७.क्यों बड़ो की उपस्थिति किसी वंश की मर्यादा की रक्षा करती है?
८. क्यों निर्बल और स्त्रियाँ उचित शासन न होने पर वयभिचारी हो जाते है?
श्री गीता जी के प्रथम अध्याय में जब अर्जुन अपने विरुद्ध खड़ी सेना में, अपने गुरु,दादा, परदादा,भाइयो , मित्रो और कुल के लोगो को देखता है तो उसके मन में कुल को नाश करने वाले दोष आघात करने लगते है और वह मधुसूदन भगवान् श्री कृष्ण से कहता है,
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ।। 40 ।।
अर्थ- कुल का क्षय होने पर सदा से चलते आये कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्म का नाश होने पर संपूर्ण कुल को अधर्म दबा लेता है।
व्याख्या- ‘कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः’- जब युद्ध होता है, तब उसमें कुल का क्षय होता है। जब से कुल आरंभ हुआ है, तभी से कुल के धर्म अर्थात कुल की पवित्र परंपराएँ, पवित्र रीतियाँ, मर्यादाएँ भी परंपरा से चलती आयी हैं। परंतु जब कुल का क्षय हो जाता है, तब सदा से कुल के साथ रहने वाले धर्म भी नष्ट हो जाते हैं कारण कि जब कुल का ही नाश हो जाता है, तब कुल के आश्रित रहने वाले धर्म किसके आश्रित रहेंगे?
‘धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्रमधर्मोऽभिभवत्युत’- जब कुल की पवित्र मर्यादाएँ, पवित्र आचरण नष्ट हो जाते हैं, तब धर्म का पालन न करना और धर्म से विपरीत काम करना अर्थात करने लायक काम को न करना और न करने लायक काम को करना रूप अधर्म संपूर्ण कुल को दबा लेता है अर्थात संपूर्ण कुल में अधर्म छा जाता है। अब यहाँ यह शंका होती है कि जब कुल नष्ट हो जायगा, कुल रहेगा ही नहीं, तब अधर्म किसको दबायेगा? इसका उत्तर यह है कि जो लड़ाई के योग्य पुरुष हैं, वे तो युद्ध में मारे जाते हैं; किंतु जो लड़ाई के योग्य नहीं है, ऐसे जो बालक और स्त्रियाँ पीछे बच जाती हैं, उनको अधर्म दबा लेता है। अर्थात साहसी और निर्णायक लोग युद्ध के कारन मारे जाते है और जो पीछे बचते है वह कमजोर होते है, उनकी बुद्धि इस लायक नहीं की वह धरम और संस्कारो की रक्षा कर सके, वे लोग तो आश्रितों की भांति है,उनका अपना बुद्धि विवेक नहीं होता जो कुल धर्म की रक्षा कर सके,
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय: ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ।। 41 ।।
अर्थ- हे कृष्ण ! अधर्म के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं; और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं।
व्याख्या- ‘अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः’- धर्म का पालन करने से अंतःकरण शुद्ध हो जाता है।सात्त्विकी बुद्धि में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? इसका विवेक जाग्रत रहता है। परंतु जब कुल में अधर्म बढ़ जाता है, तब आचरण अशुद्ध होने लगते हैं, अंतःकरण अशुद्ध होने से बुद्धि तामसी बन जाती है। बुद्धि तामसी होने से मनुष्य अकर्तव्य को कर्तव्य और कर्तव्य को अकर्तव्य मानने लग जाता है अर्थात उसमें शास्त्र-मर्यादा से उलटी बातें पैदा होने लग जाती है। इस विपरीत बुद्धि से कुल की स्त्रियाँ दूषित अर्थात व्यभिचारिणी हो जाती हैं। अर्थात धरम और कुल मर्यादा से विहीन स्तरीय लोकाचार, वयवहार, निति धर्म का पालन नहीं करती है, मन चाहा आचरण करती है,जिससे अधर्म ही बढ़ता है,
‘स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः’- स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर पैदा हो जाता है। अर्थात कुल की जो मर्यादा संस्कार होते है उन्हें भूलकर किसी भी धर्म, सम्प्रदाय या जाति के लोगो से विवाह करते है,पुरुष और स्त्री- दोनों अलग-अलग वर्ण के होने पर उनसे जो संतान पैदा होती है, वह ‘वर्णसंकर’ कहलाती है।वैशेषिकशास्त्र में लिखा है कि- ‘जैसे गुण कारण में होते हैं वैसे ही कार्य में आते हैं।’ इसी के अनुसार व्यभिचार करने वाले स्त्री-पुरुषों में धर्म का अवलंब बिलकुल नहीं होता किन्तु चोरी, लम्पटता, कामासक्ति, लज्जा-शटा-भय-कामवश होकर झूठ, विश्वासघात और हिंसादि करने में तत्पर होते हैं। इस कारण वैसे ही गुण सन्तान में आते हैं, इससे वह सन्तान वर्णसंकर कहलाती है।
अर्जुन यहाँ ‘कृष्ण’ संबोधन देकर यह कह रहे हैं कि आप सबको मोहित करने वाले है ऐसे में आप मेरे कुल को आप किस तरफ ले जाएंगे अर्थात कैसे उद्धार करेंगे? मनुष्य की पहचान उसके कुल और वंश से होती है जब वंश ही नहीं रहेगा, तब हमारे वंशज किस कुल के कहलायेंगे? अतः कुल का नाश करना उचित नहीं है।
अर्जुन यहाँ ‘कृष्ण’ संबोधन देकर यह कह रहे हैं कि आप सबको मोहित करने वाले है ऐसे में आप मेरे कुल को आप किस तरफ ले जाएंगे अर्थात कैसे उद्धार करेंगे? मनुष्य की पहचान उसके कुल और वंश से होती है जब वंश ही नहीं रहेगा, तब हमारे वंशज किस कुल के कहलायेंगे? अतः कुल का नाश करना उचित नहीं है।
संकरो नरकायैव कुलघ्रानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया ।। 42 ।।
अर्थ- वर्णसंकर संतान कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने वाला ही होता है। श्राद्ध और तर्पण न मिलने से इन के पितर भी अपने स्थान से गिर जाते हैं।
व्याख्या- ‘संकरो नरकायैव कुलघ्रानां कुलस्य च’- वर्ण-मिश्रण से पैदा हुए वर्णसंकर में धार्मिक बुद्धि नहीं होती। वह मर्यादाओं का पालन नहीं करता;क्योंकि वह खुद बिना मर्यादा से पैदा हुआ है। अर्थात जो स्त्री व्यभिचारिणी हो गयी है, और बिना किसी मर्यादा के दूसरी जाति के पुरुष का वर्ण करती है तो उसकी स्वयं की मर्यादा या कुल धर्म न होने से ऐसी संतान का कुल, वंश या धर्म क्या होगा? ऐसी संतान कुलमर्यादा से विरुद्ध आचरण करती है। जिन्होंने युद्ध में अपने कुल का संहार कर दिया है, उनको ‘कुलघाती’ कहते हैं। वर्णसंकर ऐसे कुलघातियों को नरकों में ले जाता है। केवल कुलघातियों को ही नहीं, प्रत्युत कुल-परंपरा नष्ट होने से संपूर्ण कुल को भी वह नरकों में ले जाता है।
‘पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिंडोदकक्रियाः’- जिन्होंने अपने कुल का नाश कर दिया है, ऐसे इन कुलघातियों के पितरों को वर्णसंकर के द्वारा पिंड और पानी न मिलने से उन पितरों का पतन हो जाता है। क्योंकि वर्ण-संकर संतान द्वारा किया जाने वाला श्राद्ध,पिंड दान तर्पण इत्यादि पितरों को नहीं मिलता है, वही जब कुल मर्यादित संतान द्वारा जल पिंड ग्रहण करते है,तब वे उस पुण्य के प्रभाव से ऊँचे लोकों में रहते हैं। परंतु जब उनको पिंड पानी मिलना बंद हो जाता है, तब उनका वहाँ से पतन हो जाता है अर्थात उनकी स्थिति उन लोकों में नहीं रहती। पितरों को पिंड-पानी न मिलने में कारण यह है कि वर्णसंकर की पूर्वजों के प्रति आदर-बुद्धि नहीं होती। इस कारण उनमें पितरों के लिए श्राद्ध-तर्पण करने की भावना ही नहीं होती। और पितरो की अधोगति होती है,
दोषैरेतैः कुलघ्रानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ।। 43 ।।
अर्थ- इन वर्णसंकर पैदा करने वाले दोषों से कुलघातियों के सदा से चलते आये कुलधर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं।
व्याख्या- ‘दोषैरेतैः कुलघ्रानाम्कुलधर्माश्च शाश्वताः’- वर्णसंकर पैदा करने वाले दोषों से कुल का नाश करने वालों के जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं।कुलधर्म और जातिधर्म क्या है? एक ही जाति में एक कुल की जो अपनी अलग-अलग परंपराएँ हैं, अलग-अलग मर्यादाएँ है, अलग-अलग आचरण हैं, वे सभी उस कुल के ‘कुलधर्म’ कहलाते हैं। एक ही जाति के संपूर्ण कुलों के समुदाय को लेकर जो धर्म कहे जाते हैं, वे सभी ‘जातिधर्म’ अर्थात ‘वर्णधर्म’ कहलाते हैं, जो कि सामान्य धर्म हैं और शास्त्रविधि से नियत हैं। इन कुलधर्मों का और जातिधर्मों का आचरण न होने से ये धर्म नष्ट हो जाते हैं। क्योंकि जो संतान वर्ण संकर है उसका अपना कोई कुल-धर्म, रीती-रिवाज़,या परम्परा नहीं होती तो वह किस कुल की मर्यादा का पालन करेगा?
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।। 44 ।।
अर्थ- हे जनार्दन ! जिनके कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, उन मनुष्यों का बहुत काल तक नरकों में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं।
व्याख्या- ‘उत्सन्नकुलधर्माणाम्अनुशुश्रुम’- भगवान ने मनुष्य को विवेक दिया है, नया कर्म करने का अधिकार दिया है। कौन सा कर्म करने योग्य है कौन सा नहीं,ऐसा विचार करने का अधिकार भगवान् ने मनुष्य को दिया है, इसलिए इसको सदा विवेक-विचारपूर्वक कर्तव्य-कर्म करने चहिये।
परंतु मनुष्य सुख भोग आदि के लोभ में आकर अपने विवेक का निरादर कर देते हैं और राग-द्वेष के वशीभूत हो जाते हैं, जिससे उनके आचरण शास्त्र और कुल मर्यादा के विरुद्ध होने लगते हैं। परिणामस्वरूप इस लोक में उनकी निंदा, अपमान, तिरस्कार होता है और परलोक में दुर्गति, नरकों की प्राप्ति होती है। अपने पापों के कारण उनको बहुत समय तक नरकों का कष्ट भोगना पड़ता है। ऐसा हम परंपरा से बड़े-बूढ़े गुरुजनों से सुनते आये हैं। कुलघातियों के पितृ, हम स्वयं और जो वंशज है वह सभी घोर पीड़ा सहन करते है, अर्थात तीन पीढ़िया प्रत्यक्ष और अनेको पीढ़िया दुःख भोगती नज़र आती है,
इस प्रकार अर्जुन अपने द्वारा कुलघात करने से होने वाले पापो का विचार करता है, उसकी दृष्टि झुक जाति है, काँपने लगता है,और मोह वश अपना धनुष और बाण जमीन पर रख कर भगवान् को युद्ध न करने के लिए कहता है,
The Bhagwat Geeta A new Vision
The Bhagwat Geeta A new Vision
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में वर्ण धर्म की कलियुग में यही दशा बताई है की कलिकाल में कोई भी स्त्री,पुरुष इत्यादि वर्ण धर्म इत्यादि को नहीं मानेंगे,सभी मनमाना आचरण करेंगे जो की धर्म के विरुद्ध होगा,
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥
भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग॥
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता॥
सब लोग बियोग बिसोक हए। बरनाश्रम धर्म अचार गए॥4॥
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