हरे कृष्णा हरे रामा, जय राधेगोबिन्दा....... हरे कृष्णा हरे रामा, जय राधेगोबिन्दा....... रास क्या है? रासलीला का मतलब भागवत ...
हरे कृष्णा हरे रामा, जय राधेगोबिन्दा.......
हरे कृष्णा हरे रामा, जय राधेगोबिन्दा.......
रास क्या है? रासलीला का मतलब
भागवत पुराण के दशम स्कंध के उनतीसवें अध्याय से तैंतीसवें अध्याय तक के पाँच अध्यायों का नाम है। यह संस्कृत का कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है। किंतु हिंदी में रास पंचाध्यायी नाम से स्वतंत्र ग्रंथ लिखे गए और यह नाम अत्यंत प्रसिद्ध हो गया। भागवत पुराण के इन पाँच अध्यायों की इस पुराण का प्राण माना जाता है क्योंकि इस अध्यायों में श्रीकृष्ण की दिव्य लीला के माध्यम से प्रेम और समर्पण की प्रतिष्ठा की गई है। इस लीला का उपास्य काम विजयी माना जाता है अत: जो कोई भक्त इस लीलाप्रसंग को पढ़ता या दृश्य रूप में देखता है वह कामजय की सिद्धि प्राप्त करता है।
रासलीला एक अनुपम अनुभव सिद्ध भक्ति साधन है, यह एक ऐसा साधन है जिसमे कोई प्रयास ही नहीं करना पड़ता प्रभु प्राप्ति का,स्वतः ही नहीं अनायास ही कृष्ण मिलन का साधन है रासलीला, जैसे-जैसे लीला का दर्शन करते है, अनायाश प्रभु से नैकट्य होता जाता है, भाव पुष्ट होते जाते है, एक बार प्रभु का ध्यान हृदय ने धारण कर केवल लीला के भाव में खोकर रासलीला दर्शन किया जाए तो किसी भी क्षण रास-दर्शन में प्रभु अवश्य मिल जाते है, यह कृष्ण-भक्ति का उत्तमोत्तम और सरलतम साधन है, जप-तप-व्रत-नियम,वेद-ज्ञान,गीता अध्ययन माला-जाप, कोई भी साधन इससे सरल और श्रेष्ठ नहीं है,
महारास के निंदको से यही कहना चाहता हु फिर से की भाइयो! प्रभु के प्रति प्रेम की लीला महारास को अभद्र, अश्लीलता,और काम की दृष्टि से मत देखिये, पाप के भागी नहीं बनिए, आज के युग में कुछ स्वार्थी लोगो ने, महारास के प्रारूप को बदलकर आप लोगो के सामने प्रस्तुत किया है, वह उनके निजी स्वार्थ के कारन है, जिन्हे भौतिक सुख चाहिए, धन-और ख्याति की लालसा में महारास को मनोरंजन के रूप में, अभद्र स्त्री-पुरुष के बहसी अश्लील नृत्य के रूप में प्रस्तुत करते है, जोकि कतई महारास का प्रारूप नहीं है, तिल- भर भी महारास का अंश उनके मंचन में नहीं है, जो हो सकता है आप लोगो ने देखा हो, और ऊँगली परमपिता परमेश्वर की लीला की तरफ उठा ली, इसमें उनका कुछ नहीं गया जिन्होंने आपको ऐसा अभद्र रूप दर्शन करवाया, बल्कि आप लोग पाप के भागी बन गए,
श्री कृष्ण बृज में ११ वर्ष की आयु तक रहे है, इन ग्यारह वर्षो में उनकी अनेकानेक लीलाये बृज भूमि में हुयी, बाल-लीलाये उनके जन्म से प्रारम्भ हो गयी थी, जैसे की जेल के ताले टूट जाना, पूतना वध, ऐसे ही जैसे जैसे पांच-छह वर्ष के हुए तो ग्वालो के संग माखन चोरी, ऊखल-बंधन लीला और फिर गौचारण लीलाये, ऐसे ही गोपियन संग हठखेलियाँ, मटकी फोड़ना, होली खेलना, ये सब लीलाये भगवान् ने भक्तो को आनंद प्राप्ति करवाने के लिए की, और खेल ही खेल में कई राक्षसों का वध किया, बहुत से भक्तो का उद्धार किया, परमात्मा की लीलाये, कोई साधारण जीवन की घटनाये नहीं होती, परमात्मा साधारण रूप से कई दिव्य कार्य पूर्ण करते है, रासलीला का मुख्य बिंदु महारास की लीला जोकि अत्यंत ही कटाक्ष और चर्चा का विषय रहता है, आस्तिक लोगो के लिए महारास की लीला भगवान् की सबसे दिव्यतम लीला है जबकि नास्तिक के लिए सबसे बड़ी कटाक्ष का विषय है, जब श्री कृष्ण ने महारास लीला की थी तो उनकी आयु केवल आठ से दस वर्ष की रही होगी, ऐसे में बाल लीला और महारास लीला में कोई ज्यादा अंतर नहीं है,यह महारास की रात्रि में गोपियों के संग रास करने वाला कोई साधारण बालक नहीं है, बल्कि परमपिता परमात्मा है, और जो गोपियाँ है वह भी कोई साधारण स्त्रियां नहीं है बल्कि परमात्मा के वो भक्त है जो अपने पूर्व के जन्मो में भगवान् को प्राप्त नहीं कर सके थे, या उनकी बृज लीला में सहभागी बनना चाहते थे, उन्हों ने ही गोपी रूप लेकर जन्म लिया, एक भक्त अपने परमात्मा के साथ नृत्य, गायन करता है,जिसे हम महारास कहते है तो क्या यह किसी भी दृष्टि से कटाक्ष का भागी हो सकता है? बिलकुल भी नहीं, एक बालक जोकि आठ वर्ष की आयु का है, गोपियाँ जोकि अलग अलग आयु की है, पूर्ण पारखी है, और भक्तो का पुनर्जन्म लिए हुयी है, एक बालक नृत्य कर रहा जोकि उन भक्तो को कई जन्मो की तपस्या के बाद मिला उनका परमात्मा है, उस परमात्मा के संग नृत्य करना, गायन करना, उसे अपनी गोद में बिठा लेना, उनका मुख चुम लेना, क्या किसी भी दृष्टि से निंदनीय हो सकता है? यदि वह परमात्मा जो बालक रूप में है किसी गोपी की छोटी गूँथ देता है, किसी की बिंदिया संवार देता है, किसी से मीठी बाते करता है, तो यह सब गलत कैसे है? हम सांसारिक जीव जो की किसी से थोड़ा सा भी प्यार मिलने पर उसके लिए सब कुछ करने को तैयार हो जाते है, तो क्या गोपिया जिन्हे पूर्ण परमात्मा का संग मिला उसे ऐसे ही व्यर्थ जाने देती, उनका सौभाग्य है जो उन्हें परब्रह्म परमात्मा पूर्ण परमेश्वर के संग रास करने का अवसर मिला,
महारास के निंदको से यही कहना चाहता हु फिर से की भाइयो! प्रभु के प्रति प्रेम की लीला महारास को अभद्र, अश्लीलता,और काम की दृष्टि से मत देखिये, पाप के भागी नहीं बनिए, आज के युग में कुछ स्वार्थी लोगो ने, महारास के प्रारूप को बदलकर आप लोगो के सामने प्रस्तुत किया है, वह उनके निजी स्वार्थ के कारन है, जिन्हे भौतिक सुख चाहिए, धन-और ख्याति की लालसा में महारास को मनोरंजन के रूप में, अभद्र स्त्री-पुरुष के बहसी अश्लील नृत्य के रूप में प्रस्तुत करते है, जोकि कतई महारास का प्रारूप नहीं है, तिल- भर भी महारास का अंश उनके मंचन में नहीं है, जो हो सकता है आप लोगो ने देखा हो, और ऊँगली परमपिता परमेश्वर की लीला की तरफ उठा ली, इसमें उनका कुछ नहीं गया जिन्होंने आपको ऐसा अभद्र रूप दर्शन करवाया, बल्कि आप लोग पाप के भागी बन गए,
परमपिता, परमेश्वर सदैव पवित्र, निष्काम,है, उनकी किसी भी लीला में दोष देखना हमारा अपराध है, जो भी दोष नज़र आता है, वह या तो हमारी दृष्टि का , या हमारी मानसिकता का, या हमारे चारो ओर झूठे वातावरण का है, इसलिए इस विषय को गंभीरता से सच को जानो, अगर विरोध करना है तो जो लोग अभद्र रूप से कृष्ण लीला दर्शाते है, उनका बहिष्कार कीजिये, कृष्ण-लीला वो अमृत है जो हमे, राग-द्वेष,काम-क्रोध-लोभ-अभिमान इत्यादि अनेकानेक विष रुपी विषयो से मुक्त करते है,
आज के युग में इस पवित्र लीला दर्शन को बहुत से लोग मज़ाक में लेते है, असहनीय ढंग से निंदा करते नहीं थकते, अभद्र कटाक्ष करते है, लेकिन जो इस विषय को गहनता से, भावपूर्ण और गंभीरता से समझने का प्रयास करेगा तो उन्हें मालूम होगा की, जिस पर अभद्र टिप्पणी, कटाक्ष, या मज़ाक हास-परिहास कर रहे है, सही मायने में भगवान् का अपमान तो कर ही रहे है, साथ ही साथ अपनेआप को भगवदनिन्दा के अपराध से भी ग्रसित कर रहे है, जाने अनजाने मूर्खो का सा व्यवहार करके,अपने आप को भगवान् से दूर कर रहे है, वैसे तो आस्था रखने वाले लोग ऐसा नहीं करते, जो नास्तिक है, केवल वही ऐसा करते है, जिन्हे अभी प्रभु-प्रेम की आसक्ति नहीं है, जिन्हे केवल कटाक्ष करना ही आता हो, वही लोग केवल ऐसा करते है, ऐसे लोग यदि एक बार हरिलीला को हृदय में स्थापित करके लीला दर्शन के लिए बैठे तो उन्हें पता लगेगा जीवन में आनंद का निर्झर स्त्रोत भर देने वाला अनुभव है रास-लीला, रास ही नहीं महारास जिसमे केवल एक ही पुरुष श्री कृष्ण थे और गोपिया हज़ारो की संख्या में थी, वहां काम-सिद्धि को जोड़ना निपट-मूर्खता है, बुद्धि से यदि तर्क भी किया जाए तो क्या यह संभव है की जहां हज़ारो स्त्रियाँ मौजूद है और केवल एक पुरुष तो क्या वहां काम सिद्धि हो सकती है, ये विषय मेरी चर्चा का नहीं है,किन्तु यहां तार्किक लोगो के लिए मैंने लिख दिया है, प्रभु मुझे क्षमा करे, काम जयी भगवान् की लीलाओ में यदि काम का दर्शन किसी जीव को होता है तो उससे बड़ा अभागी, क्रूर, मुर्ख, बुद्धिहीन,पापी,अधर्मी कोई हो नहीं सकता है, वह विदित-अविदित कारणों से अपनेआप को पाप ही नहीं घोर पाप का भागी बना रहा है, ऐसे लोगो को चाहिए की यदि वो लीला दर्शन को नहीं समझते तो उससे दूर रहे, किन्तु बिना बिचारे,जाने समझे कोई कटाक्ष ना करे,क्योंकि "बिना बिचारे जो करे सौ पाछे पछताय,काम बिगरे आपनो होवत जग हसाय"
आज भी श्री धाम जो रास मंडल है उनमे सभी पुरुष ही लीला करते है, क्योंकि भगवान् की मर्यादा को सँवार कर संभाला जाए, जिस समय भगवान् ने लीलाये की थी वह समय अलग था और लीला करने वाला काम-विजयी श्री कृष्ण स्वयं है, लेकिन आज कलियुग है, किसी के धर्म-ईमान को डोलते देर नहीं लगती, इसी मर्यादा का पालन करते हुए लीलाओ का मंचन करते हुए श्रीधाम के मूलनिवासी केवल पुरुषो के माध्यम से लीला करते है, इसीलिए ये रास-लीला पूर्ण रूप से ठाकुर जी को समर्पित करके उसी पवित्र भाव से मंचन होती है, इसमें कोई संदेह नहीं है, लीला करने वाले जो पात्र निभाते है वह निष्पक्ष रूप से उसी के भाव में रहते है, कोई अन्य भाव नहीं रहता मन में, और लीला दर्शन वाले भी अगर शुद्ध भाव में अपने मन को स्थापित कर, भगवद भाव से लीला दर्शन करे तो उनकी गलत-फहमी छू मन्त्र हो जायेगी,
हां ! जो कटाक्ष करते है उन्हें अपने भीतर झांकना चाहिए और समझना चाहिए की वो कैसी लीला दर्शन कर रहे है, आज की विडंबना यह है की आजकल नौटंकी करने वाले जो की लीला का, महारास का अर्थ भी नहीं समझते और नाचने-गाने का माध्यम और हसि-मज़ाक का विषय समझते है वह भी भगवान् की पवित्र लीलाओ का मंचन अभद्र ढंग से करते है, जोकि एक पापकर्म है, और कटाक्ष करने वाले ऐसी लीलाओ का दर्शन करके उसे रास समझते है, तो कटाक्ष करने वालो पहले ये तो निर्णय करो की तुम कोन सा महारास देख रहे हो जोकि महारास का अंग नहीं है, केवल पैसा कमाने का और तुम्हारे मनोरंजन का साधन है,
महारास, तो एक दिव्यभाव है, ऐसा मनोभाव जिसमे तन-मन और आत्मा को शुद्ध करने के बाद पवित्र दृष्टि से दर्शन किया जाए तो क्षण भर में प्रियाप्रितम का नैकट्य मिल जाना कोई बड़ी बात नहीं है,
रासलीला
भगवान कृष्ण के रस को चखने का अनुपम माध्यम है,बड़ी बड़ी कथाये सुनना, ज्ञान यज्ञ करना, व्रत तप करना कलियुग में बहुत मुश्किल है,तभी प्रभु ने केवल और केवल नाम सुमिरन को ही मुक्ति का मार्ग बतलाया है और उस से भी सहज है भगवान की लीलाओं का रसास्वादन करना जिससे न केवल नवधा भक्ति बल्कि दशवी भक्ति जो की प्रेमाभक्ति है,उसकी प्राप्ति सहज ही हो जाती है, न कोई यत्न,न कोई नियम, न कोई व्रत या तप करना पड़ता है केवल और केवल लीला दर्शन और दर्शन करते करते भावो के माध्यम से प्रभु का नैकट्य प्राप्त हो जाता है,
रासलीला की लुप्त होती प्रथा को बचाने के लिए और कुछ महत्वपूर्ण तथ्य जोकि रासलीला के लिए सबको जानने चाहिए इसीलिए मैंने अपनी बुद्धि अनुसार कुछ तथ्यों को उजागर करने का प्रयास किया है,ये मेरे व्यक्तिगत भाव है, इसलिए किसी भी प्रकार की विवाद के लिए नहीं है, मेरे भाव लीला के प्रति मेरे ठाकुर जी को समर्पित है, ...............................जय जय श्री राधे.....................................
COMMENTS