आलौकिक , दिव्य प्रेम का महत्व आलौकिक प्रेम दुष्ट हृदय, पापी और अधमी को भी पार कर सकता है, कोई कितना भी कुटि...
आलौकिक , दिव्य प्रेम का महत्व
आलौकिक प्रेम दुष्ट हृदय, पापी और अधमी को भी पार कर सकता है, कोई कितना भी कुटिल और दम्भी क्यों न हो? जब आलौकिक प्रेमी की शरण और सानिध्य में आ जाता है तो वह भी दिव्या और आलौकिक हो जाता है जैसे लोहा कितना भी मैला कुचला जंग वाला हो पारस के सानिध्य से स्वर्ण बन जाता है, ऐसा ही उदहारण मीरा बाई और उनकी नन्द ऊदाबाई के सन्दर्भ में है, क्योंकि बात मीरा बाई जी के प्रेम की हो रही है पहले ब्लॉग में भी उन्ही का उद्धरण प्रस्तुत है,
विक्रमजीत राणा जो की मीरा बाई जी के सांसारिक पति है, मीरा के ऊपर नज़र रखने के लिए ऊदाबाई जोकि उनकी सगी बहन को नियुक्त करते है और कहते है की येन केन प्रकरेण तुम मीरा का मन बदल दो और उन्हें भक्ति मार्ग छोड़कर साही आनंद ऐश्वर्य का भोग करने को प्रेरित करो, मंद बुद्धि उदा भी प्रयत्न में लग गई अपनी सहायक दासियो के संग,
ऊदा : मीरा, साधु-संतो की संगति छोड़ दो! पुरे नगर में बदनामी हो रही है,
मीरा जी : उन्हें कलंक लगाने दीजिये, इससे मेरा क्या बिगड़ता है? मुझे तो साधु संतो अर्थात हरिभक्ति में लीन रहना है, संसार के कलंक और निंदा की मुझे कोई परवाह नहीं है,
ऊदा: तुम हमेशा ये भगवा चोला पहनती हो, रानी हो तुम नाही कोई अलंकार और गहने इत्यादि धारण करती हो, इससे राजघराना निन्दित होता है,
मीरा: गिरधर का प्रेम और संतोष ही मेरे गहने है, मुझे इस संसार के गहनों की आवश्यकता नहीं है, नाही कोई प्रलोभन है,ऊदा: राणा तुमसे क्रुद्ध है और इसीलिए तुम्हे विष दिया, कभी सर्पो का हार तो कभी कांटो की सैया, क्यों अपने प्राणो से प्रेम नहीं करती?
मीरा: मेरे लिए किसी का क्रोध, घृणा या कुकृत्य मायने नहीं रखती, मेरा सम्बन्ध आलौकिक गिरधर से है उन्ही की आस विशवास है, गिरधर के अलावा कोई भी वस्तु से मेरा सरोकार नहीं, विष को अमृत किया सर्प हार बने सालिग्राम, कांटो कि सैया फूलन की सेज बनी यह सब गिरधर की करनी है, फिर भी तुम कहती हो मेरा विश्वास मेरा प्रेम असत्य है, नहीं ऊदा मुझे मेरे गिरधर के संग रहने दो,
ऊदा: मीरा तुम्हारे जीवन का उद्देश्य क्या है?
मीरा: मेरा जीवन गिरधर को समर्पित है और मार्ग दो धारी तलवार पर चलने जैसा दुर्गम है लेकिन कृष्ण प्रेम में सब सुगम है, मेरी आस्था और प्रेम अगर निस्चल है तो गिरधर के भरोसे मुझे इस मार्ग पर चलने में आनंद आ रहा है, लेकिन आप इस आनंद को नहीं समझते,
इस प्रकार ऊदा का सभी प्रयत्न असफल हो गया, जैसे जैसे वह मीरा की वाणी श्रवण करती धीरे धीरे उसका ही भाव बदलने लग गया, लेकिन अभी पूरी तरह से नहीं, एक दिन मीरा बाई जी भक्तियुत अपने गिरधर को रिझाने के लिए पद गा रही थी,
" जब से मोहि नंदनंदन दृष्टि पड्यो माई I
तब से लोक परलोक कछु न सोहाई II
मोरां की चन्द्रकला सीस मुकुट सोहे I
केसर को तिलक भाल तीन लोक मोहे II
कुण्डल की अलक-झलक कपोलन पर छाई I
मानो मीन सरोवर तजि मकर मिलन आई II
कुटिल भृकुटि तिलक भाल चितवन में टोना I
खंजन अरु मधुप मीन भूले मृगछौना II
सूंदर अति नासिका सुग्रीव तीन रेखा I
नटवर प्रभु भेष धरे रूप अति बिषेखा II
अधर बिम्ब अरुण नैन मधुर मंद हाँसी I
बसन डंक दाड़िम दुति चमके चपला-सी II
छुद्र-घंट किंकणी अनूप धुनि सोहाई I
गिरिधर के अंग अंग मीरा बलि जाई II"
इस प्रकार भक्ति-भाव और अद्भुत प्रेम भाव से गिरधर को मनाते हुए ऊदा ने मीरा जी को देखा तो प्रभावित हुए बिन न रह सकी, उसके मन भी ख्याल आया की जिसके प्रेम में मीरा इतनी भाव विभोर है जिसे इतना प्रेम करती है उसे देखना चाहिए, और मीरा से कहने लगी की मुझे भी अपने प्रीतम के दर्शन कराओ, मीरा जी अति सरल है उन्होंने अपने गिरधर से प्रार्थना की कि वह उदा को दर्शन देकर कृतार्थ करे, और पद गा-गा कर प्रभु को रिझाने लगी, गिरधर भी अपने प्रेमी भक्त कि बात कैसे टालते और उदा को दर्शन दिया,
कहने का अभिप्राय यही है कि आलौकिक प्रेम, दिव्य प्रेम में ऐसी शक्ति है कि जो न केवल प्रेमी को बल्कि उसके सानिध्य में आने वाले सभी लोगो को भी पार के देता है, उनका उद्धार कर देता है, ऐसे ही प्रेम कि परकाष्ठा है श्री मीरा बाई जी का प्रेम, जब ऐसा भाव कि "मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई" ऐसी शरणागति हो जाए तभी प्रेम आलौकिक प्रेम हो जाता है, हम सब सांसारिक वस्तुओ के मोह में पड़े है, किसी को गाडी, बंगला कार चाहिए किसी को झोलिया भर दे रे श्याम भर दे चाहिए, किसी को तालिया बजवाकर वाह वाह चाहिए, कोई प्रभु को रिझाने के नाम पर अपनी प्रशंसा चाहता है तो पता नहीं किस किस लालच को बतलाकर संकीर्तन करवाया जाता है आज के युग में, मीरा ने किसी से तालिया नहीं बजाने को कहा, फिर भी उनके कीर्तन में सभी झूम उठते है, कभी तालिया नहीं बजवाई कभी किसी से कोई अनुग्रह नहीं किया, फिर भी उनके कीर्तन कि सौरभ से हजारो लोग उनके पीछे चल पड़ते थे, क्यों? क्योंकि वह प्रेम निश्छल है, आलौकिक है दिव्य है
जय श्री राधेकृष्ण !
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