देवी विष्णुप्रिया जी गौरशक्तिं महामायां नवद्वीपनिवासिनीम्। विष्णुप्रियां सतीं साध्वीं तां देवीं प्रणतोऽस्म्यहम्। (नव...
विष्णुप्रियां सतीं साध्वीं तां देवीं प्रणतोऽस्म्यहम्।
(नवद्वीप में निवास करने वाली श्रीगौरांग देवी की शक्ति महामाया-स्वरूपिणी सती-साध्वी श्रीविष्णुप्रियादेवी को मैं प्रणाम करता हूँ।)
गौरांग महाप्रभु अपने भक्ति-आवेश और वैराग्य के कारण जगत प्रसिद्ध है, उनकी पूजा-अर्चना हर कोई करता है, किन्तु श्री विष्णुप्रिया जी जोकि अपने प्रिय से सुदूर एकांत में गहन तपस्चर्या करती रही उसे कोई नहीं जनता, उनकी तपस्या का किसी को ही शायद महत्व पता हो, आज इस लेख में आइये नारी की महत्ता और विष्णुप्रिया जी के त्याग के कुछ अंश जानते है,
विष्णुप्रिया जी एक परिचय :राजपंडित सनातन की पुत्री और चैतन्य महाप्रभु की दूसरी पत्नी थीं। सर्पदंश से चैतन्य की पहली पत्नी लक्ष्मीदेवी की मृत्यु हो गई थी। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विष्णुप्रिया के साथ हुआ। सन् 1509 में 24 वर्ष की अवस्था में चैतन्य महाप्रभु घर और पत्नी को छोड़कर सन्यासी हो गये।
विष्णुप्रिया जी एक परिचय :राजपंडित सनातन की पुत्री और चैतन्य महाप्रभु की दूसरी पत्नी थीं। सर्पदंश से चैतन्य की पहली पत्नी लक्ष्मीदेवी की मृत्यु हो गई थी। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विष्णुप्रिया के साथ हुआ। सन् 1509 में 24 वर्ष की अवस्था में चैतन्य महाप्रभु घर और पत्नी को छोड़कर सन्यासी हो गये।
यह विश्व महामाया शक्ति के ही अवलम्ब से अवस्थित है। शक्तिहीन संसार की कल्पना ही नहीं हो सकती। सर्वशक्तिमान शिव भी शक्ति के बिना शव बने पड़़े रहते हैं। जब उनके अचेतन शव में शक्ति देवी का संचार होता है, तभी वे शव से शिव बन जाते हैं। शक्ति प्रच्छन्न रहती है और शक्तिमान प्रकट होकर प्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है। यथार्थ में तो उस शक्ति की ही साधना कठोर है। वनवासी वीतरागी विरक्त तपस्वियों की अपेक्षा छिपकर साधना करने वाली सती-साध्वी, शक्तिरूपिणी देवी की तपस्या को मैं अधिक श्रेष्ठ मानता हूँ।
भगवान बुद्धदेव के राज्य-त्याग की सभी प्रशंसा करते हैं, किन्तु उस साध्वी गोपा का कोई नाम भी नहीं जानता जो अपने पांच वर्ष के पुत्र राहुल को संन्यासी बनाकर स्वयं भी राजमहल का परित्याग करके अपने पति भगवान बुद्धदेव के साथ भिक्षुणी वेष में द्वार-द्वार भिक्षा माँगती रही। परमहंस रामकृष्णदेव के वैराग्य की बात सभी पर विदित है, किन्तु उस भोली बाला शारदादेवी का नाम बहुत कम लोग जानते हैं जो पांच वर्ष की अबोध बालिका की दशा में अपने पितृगृह को परित्याग करके अपने पगले पति के घर में आकर रहने लगी। परमहंसदेव ने जब प्रेम के पागलपन में संन्यास लिया था, तब वह जगन्माता पूर्ण युवती थी। अपने पति के पागलपन की बातें सुनकर वह लोकलाज की कुछ भी परवा न करके अपने संन्यासी स्वामी के साथ रहने लगी। ऐसी सती-साध्वी देवियों के चरणों में हम कोटि-कोटि प्रणाम करते हैं।
महाप्रभु संन्यास लेकर गृहत्यागी वैरागी बन गये, उससे उस पतिप्राणा प्रिया जी को कितना अधिक क्लेश हुआ होगा, यह विषय अवर्णनीय है। मनुष्य की शक्ति के बाहर की बात है। एक बार वृन्दावन जाते समय केवल विष्णुप्रिया जी की ही तीव्र विरहवेदना को शान्त करने के निमित्त क्षणभर के लिये प्रभु अपने पुराने घर पर पधारे थे। उस समय विष्णुप्रिया जी ने अपने संन्यासी पति के पादपद्मों में प्रणत होकर उनसे जीवनालम्बन के लिये किसी चिह्न की याचना की थी। दयामय प्रभु ने अपने पादपद्मों की पुनीत पादुकाएं उसी समय प्रिया जी को प्रदान की थीं और उन्हीं के द्वारा जीवन धारण करते रहने का उपदेश किया था। पति की पादुकाओं को पाकर पतिपरायणा प्रिया जी को परम प्रसन्नता हुई और उन्हीं को अपने जीवन का सहारा बनाकर वे इस पाँचभौतिक शरीर को टिकाये रहीं। उनका मन सदा नीलाचल के एक निभृत के स्थान में किन्हीं अरुण रंग वाले दो चरणों के बीच में भ्रमण करता रहता। शरीर यहाँ नवद्वीप में रहता,
उसके द्वारा वे अपनी वृद्धा सास की सदा सेवा करती रहतीं। शचीमाता के जीवन का एकमात्र अवलम्बन अपनी प्यारी पुत्र वधू का कमल के समान म्लान मुख ही था। माता उस म्लान मुख को विकसित और प्रफुल्लित करने के लिये भाँति-भाँति की चेष्टाएँ करतीं। पुत्र वधू के सुवर्ण के समान शरीर को सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से सजातीं। प्रभु के भेजे हुए जगन्नाथ जी के बहुत ही मूल्यवान पट्टवस्त्र को वे उन्हें पहनातीं तथा और विविध प्रकार से उन्हें प्रसन्न रखने की चेष्टा करतीं। किन्तु विष्णुप्रिया जी की प्रसन्नता तो पुरी के गम्भीरा मन्दिर के किसी कोने में थिरक रही है, वह नवद्वीप में कैसे आ जाये। शरीर तो उसके एक ही है इसीलिये इन वस्त्राभूषणों से विष्णुप्रिया जी को अणुमात्र भी प्रसन्नता न होती। वे अपनी वृद्धा सास की आज्ञा को उल्लंघन नहीं करना चाहती थीं। प्रभु के प्रेषित प्रसादी पट्टवस्त्र का अपमान न हो, इस भय से वे उस मूल्यवान वस्त्र को भी धारण कर लेतीं और आभूषणों को भी पहन लेतीं किन्तु उन्हें पहनकर वे बाहर नहीं जाती थीं।
उसके द्वारा वे अपनी वृद्धा सास की सदा सेवा करती रहतीं। शचीमाता के जीवन का एकमात्र अवलम्बन अपनी प्यारी पुत्र वधू का कमल के समान म्लान मुख ही था। माता उस म्लान मुख को विकसित और प्रफुल्लित करने के लिये भाँति-भाँति की चेष्टाएँ करतीं। पुत्र वधू के सुवर्ण के समान शरीर को सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से सजातीं। प्रभु के भेजे हुए जगन्नाथ जी के बहुत ही मूल्यवान पट्टवस्त्र को वे उन्हें पहनातीं तथा और विविध प्रकार से उन्हें प्रसन्न रखने की चेष्टा करतीं। किन्तु विष्णुप्रिया जी की प्रसन्नता तो पुरी के गम्भीरा मन्दिर के किसी कोने में थिरक रही है, वह नवद्वीप में कैसे आ जाये। शरीर तो उसके एक ही है इसीलिये इन वस्त्राभूषणों से विष्णुप्रिया जी को अणुमात्र भी प्रसन्नता न होती। वे अपनी वृद्धा सास की आज्ञा को उल्लंघन नहीं करना चाहती थीं। प्रभु के प्रेषित प्रसादी पट्टवस्त्र का अपमान न हो, इस भय से वे उस मूल्यवान वस्त्र को भी धारण कर लेतीं और आभूषणों को भी पहन लेतीं किन्तु उन्हें पहनकर वे बाहर नहीं जाती थीं।
प्रभु का पुराना भृत्य ईशान अभी तक प्रभु के घर पर ही था। शचीमाता उसे पुत्र की भाँति प्यार करतीं। वही प्रिया जी तथा माता जी की सभी प्रकार की सेवा करता था। ईशान बहुत वृद्ध हो गया था, इसीलिये प्रभु ने वंशीवदन नामक एक ब्राह्मण को माता की सेवा के निमित्त और भेज दिया था। ये दोनों ही तन-मन से माता तथा प्रिया जी की सभी सेवा करते थे। प्रिया जी के पास कांचना नाम की एक उनकी सेविका सखी थी, वह सदा प्रिया जी के साथ रहती और उनकी हर प्रकार की सेवा करती। दामोदर पण्ड़ित भी नवद्वीप में ही रहकर माता की देख-रेख करते रहते और बीच-बीच में पुरी जाकर माता जी तथा प्रिया जी का सभी संवाद सुना आते। विष्णुप्रिया जी उन दिनों घोर त्यागमय जीवन बिताती थीं। दामोदर पण्ड़ित के द्वारा प्रभु जब इनके घोर वैराग्य और कठिन तप का समाचार सुनते तब वे मन ही मन अत्यधिक प्रसन्न होते।
विष्णुप्रिया जी का एकमात्र अवलम्बन वे प्रभु की पुनीत पादुकाएं ही थीं। अपने पूजागृह में वे एक उच्चासन पर पादुकाओं को पधराये हुए थीं और नित्यप्रति धूप, दीप, नैवेद्य आदि से उनकी पूजा किया करती थीं। वे निरन्तर–
-इसी मंत्र को जपती रहतीं। उन्होंने अपना आहार बहुत ही कम कर दिया था, किन्तु शची माता के आग्रह से वे कभी-कभी कुद अधिक भोजन कर लेती थीं। पुत्रशोक से जर्जरित हुई वृद्धा माता का हृदय फट गया था। पुत्र की दिव्योन्मादकारी अवस्था सुनकर तो उसके घायल हृदय में मानो किसी ने विष से बुझे हुए बाण वेध दिये हों। एक दिन माता ने अधीर होकर भक्तों से कहा– ‘निमाई के विरहदु:ख की ज्वाला अब मेरे अन्त:करण को तीव्रता के साथ जला रही है, अब मेरा यह पार्थिव शरीर टिक न सकेगा, इसलिये तुम मुझे भगवती भागीरथी के तट पर ले चलो।’ भक्तों ने जगन्माता की आज्ञा का पालन किया, और वे स्वयं अपने कंधों पर पालकी रखकर माता को गंगा किनारे ले गये। पीछे से पालकी पर चढ़कर विष्णुप्रिया जी भी वहाँ पहुँच गयीं। पुत्रशोक से तड़फड़ाती हुई माता ने अपनी प्यारी पुत्र वधू को अपने पास बुलाया। उसके हाथ को अपने हाथ से धीरे-धीरे पकड़कर माता ने कष्ट के साथ पुत्र वधू का माथा चूमा और उसे कुछ उपदेश करके इस नश्वर शरीर को त्याग दिया।
शचीमाता के वैकुण्ठ गमन से सभी भक्तों को अपार दु:ख हुआ। सास की क्रिया कराकर प्रिया जी घर लौटीं। अब वे नितान्त अकेली रह गयी थीं। ईशान माता से पहले ही परलोकवासी बन चुका था, उसे अपनी स्नेहमयी माता का हृदयविदारक दृश्य अपनी आँखों से नहीं देखना पडा। घर में वंशीवदन था, और दामोदर पण्डित भी गृह के कार्यों की देख-रेख करते थे। विष्णुप्रिया जी का वैराग्य और भी अधिक बढ़ गया, अब वे दिन-रात्रि अपने प्राणनाथ के विरह में तड़पती रहती थीं। अभी तक माता के वियोग का दु:ख कम नहीं हुआ था कि प्रिया जी को यह हृदयविदारक समाचार मिला कि श्री गौर अपनी लीला को संवरण करके अपने नित्यधाम को चले गये। इस दुस्सह समाचार को सुनकर तपस्विनी विष्णुप्रिया जी, कटे हुए केले के वृक्ष के समान भूमि पर गिर पड़ीं। उन्होंने अन्न–जल का एकदम परित्याग कर दिया। स्वामिनी-भक्त वंशीवदन ऐसी दशा में केसे अन्न ग्रहण करता।
वह प्रिया जी का मन्त्र शिष्य भी था, इसलिये उसने भी अपने मुँह में अन्न का दाना नहीं दिया। भक्तों ने आकर भाँति-भाँति की विनती की, किन्तु प्रिया जी ने अन्न-जल ग्रहण करना स्वीकार ही नहीं किया। जब स्वप्न में आकर प्रत्यक्ष श्री गौरांग देव ने उनसे अभी कुछ दिन और शरीर धारण करने की आज्ञा दी, तब उन्होंने थोड़ा अन्न ग्रहण किया।
एक दिन प्रिया जी भीतर शयन कर रही थीं, वंशीवदन बाहर बरामदे में सो रहा था। उसी समय स्वप्न में उन्होंने देखा– मानो प्रत्यक्ष श्री गौरांग आकर कह रहे हैं– ‘जिस नीम के नीचे मैंने माता के स्तन का पान किया था, उसी के नीचे मेरी काष्ठ की मूर्ति स्थापित करो, मैं उसी में आकर रहूँगा।’ विष्णुप्रिया देवी उसी समय चौंककर उठ बैठीं, प्रात:काल होने को था, वंशीवदन भी जाग गया और उसने भी उसी क्षण ठीक यही स्वप्न देखा था। जब दोनों ने परस्पर एक-दूसरे को स्वप्न की बात सुनायी, तब तो शीघ्र ही दारुमयी मूर्ति की स्थापना का अयोजन होने लगा। वंशीवदन ने उसी नीम की एक सुन्दर लकडी काटकर बढ़ई से एक बहुत ही सुन्दर श्री गौरांग की मूर्ति बनवायी। पंद्रह दिन में मूर्ति बनकर तैयार हो गयी, वस्त्राभूषण पहनाकर श्रीगौरांग विग्रह को सिंहासन पर पधराया गया, तब सभी को उसमें प्रत्यक्ष श्रीगौरांग के दर्शन होने लगे। वंशीवदन ने दूर-दूर से भक्तों को बुलाकर खूब धूमधाम से उस मूर्ति की प्रतिष्ठा की और एक बडा भारी भण्डारा किया।
देवी विष्णुप्रिया जी ने श्रीविग्रह की नित्य-नैमित्तिक पूजा के निमित्त अपने भाई तथा भाई के पुत्र यादवनन्दन को मन्दिर में नियुक्त किया। श्री विष्णुप्रिया जी नित्यप्रति मन्दिर में दर्शन करने के निमित्त जाया करती थीं और वंशीवदन भी उस मनोहर मूर्ति के दर्शनों से परम प्रसन्न होता था। वह मूर्ति अब तक श्री नवद्वीप में विराजमान है
कुछ काल के अनन्तर वंशीवदन भी इस असार संसार को परित्याग करके परलोकवासी बन गये। अब प्रिया जी की सभी सेवा का भार वृद्ध दामोदर पण्डित के ही ऊपर पड़ा। अपने प्रिय शिष्य के वियोग से प्रिया जी को अत्यधिक क्लेश हुआ और अब उन्होंने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया। पहले अँधेरे में कांचना के साथ गंगा स्नान करने के निमित्त घाट पर चली जाती थीं, अब घर में ही गंगा जल मँगाकर स्नान करने लगीं। कोई भी पुरुष उनके दर्शन नहीं कर सकता था। उन्होंने वैसे तो पर-पुरुष से जीवन भर में कभी बातें नहीं कीं, किन्तु अब उन्होंने भक्तों को भी दर्शन देना बंद कर दिया। शाम के समय पर्दे की आड़ में से भक्तों को उनके चरणों के दर्शन होते थे, उन अरुण रंग के कोमल चरणकमलों के दर्शन से ही भक्त अपने को कृतकृत्य समझते।
उन दिनों प्रिया जी का तप अलौकिक हो रहा था। वे सदा पूजा मन्दिर में ही बैठी रहतीं। एक पात्र में चावल भरकर सामने रख लेतीं और दूसरे पात्र को खाली ही रखतीं। प्रात:काल स्नान करके वे महामंत्र का जप करने बैठतीं। एक बार–
यह सोलह नामों वाला मंत्र कह लिया और एक चावल उस खाली पात्र में डाल दिया। इस प्रकार तीसरे पहर तक वे निरन्तर जप करती रहतीं।जप की संख्या के साथ डाले हुए उतने ही चावलों को तीसरे पहर बनातीं। उनमें न तो नमक डालती और न दाल बनातीं। बस, उन्हीं में से थोड़े से चावल भोग लगाकर प्रसादरूप में स्वयं पा लेतीं, और शेष थोड़े से भक्तों को प्रसाद बांटने के निमित्त थाली में छोड़ देतीं, जिसे कांचना भक्तों में बांट देती। पाठक, अनुमान तो लगावें। बत्तीस अक्षर वाले इस मंत्र को जपने से कितने चावल तीसरे पहर तक होते होंगे, उन्हें ही बिना दाल-साग के पाना और प्रसाद के लिये शेष भी छोड़ देना। अल्पाहार की यहाँ हद हो गयी। ईशान नागन ने अपने ‘चैतन्यप्रकाश’ नामक ग्रन्थ में स्वयं वर्णन किया है–
विष्णुप्रिया माता शचीदेवीर अन्तर्धाने।
भक्त–द्वारे द्वाररुद्ध कैला स्वेच्छाक्रमे।।
तार आाज्ञा विना ताने निेषेध दर्शने।
अत्यन्त्य कठोर व्रत करिला धारणे।।
प्रत्यूषेते स्नान कहर कृताह्निक हय्या।
हरिनाम करि किछु तण्डुल लइया।।
नाम प्रति एक तण्डुल मृत-पात्रे राखय।
हेन मते तृतीय प्रहर नाम लय।।
जपान्ते सेइ संख्यार तण्डुल मात्र लय्या।
यत्ने पाक करे मुख वस्त्रेते बान्धिया।।
अलवण अनुपकरण अन्न लय्या।
महाप्रभुर भोग लगाय काकुति करिया।।
विविध विलाप करि दिया आचमनी।
मुष्टिक प्रसाद मात्र भुंजेन आपनि।।
अवशेषे प्रसादान्न बिलाय भक्तेरे।
एछन कठोर ब्रत के करिते पारे।।
अर्थात ‘शचीमाता के अन्तर्धान हो जाने के अनन्तर श्री विष्णुप्रिया देवी भक्तों के द्वारा अपने घर के किवाड़ बंद करा लेती थीं। द्वार खुलवाने न खुलवाने का अधिकार उन्होंने स्वयं ही अपने अधीन कर रखा था। उनकी आज्ञा के बिना कोई भी उनके दर्शन नहीं कर सकता था। उन्होंने अत्यन्त ही कठारे व्रत धारण कर रखा था।प्रात:काल नित्य कर्मों से निवृत्त होकर वे हरिनाम-जप करने के निमित्त कुछ चावल अपने सम्मुख रख लेती थीं और प्रति मंत्र पर एक-एक चावल मिट्टी के पात्र में डालती जाती थीं। इस प्रकार वे तीसरे पहर तक जप करती थीं। फिर तीसरे पहर यत्नपूर्वक वस्त्र से मुख को बाँधकर उन चावलों को पाक करती थीं। बिना नमक और बिना दाल शाक के उन चावलों का महाप्रभु को भोग लगाती थीं, भाँति-भाँति के स्नेह वचन कहतीं, स्तुति-प्रार्थना करके विविध भाँति के विलाप करतीं, अन्त में आचमनी देकर भोग उतारतीं और उसमें से एक मुट्ठीभर चावल प्रसाद समझकर पा लेतीं। शेष बचा हुआ प्रसाद भक्तों में वितरित कर दिया जाता था।
इस प्रकार का कठोर व्रत कौन कर सकेगा?’ सचमुच कोई भी इस व्रत को नहीं कर सकता। श्री गौरांग की अर्धांगिनी ! सचमुच तुम्हारा यह व्रत तुम-जैसी तपस्वी की प्रणयिनी के ही अनुरूप है। माता! तुम्हारे ही तप से तो गौरभक्त तप और व्रत का कठोर नियम सीखे हैं। हमारी माताएँ तुम्हें अपना आदर्श बना लें तो यह अशान्ति पूर्ण संसार स्वर्ग से भी बड़कर सुखकर और आनन्दप्रद बन जाय। अब विष्णुप्रिया जी का वियोग दिनों दिन अधिकाधिक बढ़ने लगा। अब वे दिन-रात रोती ही रहती थीं। कांचना उन्हें श्री चैतन्य लीलाएँ सुना-सुनाकर सान्त्वना प्रदान करती रहती, किन्तु विष्णुप्रिया जी का हृदय अपने पति के पास पतिलोक में जाने के लिये तड़प रहा था। इसलिये रात-दिन उनके नेत्रों से अश्रुधारा ही प्रवाहित होती रहती।
फाल्गुनी पूर्णिमा थी, चैतन्यदेव के जन्म का दिवस था। विष्णुप्रिया जी की अधीरता आज अन्य दिनों की अपेक्षा अत्यधिक बढ़ गयी थी। वे पगली की तरह हा प्राणनाथ ! हा हृदयरमण ! हा जीवनसर्वस्व कहकर लम्बी-लम्बी सांसें छोड़ती थीं। कांचना उनकी दशा देखकर चैतन्य–चरित्र सुना-सुनाकर सान्त्वना देने लगी किन्तु आज वे शान्त होती ही नहीं थीं, थोड़ी देर के पश्चात् उन्होंने कहा– ‘कांचने ! तू यादव को तो बुला ला, आज मैं उनकी मूर्ति के भीतर से दर्शन करना चाहती हूँ।’ कांचना ने उसी समय आज्ञा का पालन किया। वह जल्दी से यादवाचार्य गोस्वामी को बुला लायी। आचार्य ने मन्दिर के कपाट खोले। लंबी-लंबी सांस लेती हुई वस्त्र से शरीर ढककर विष्णुप्रिया जी ने मन्दिर में प्रवेश किया और थोड़ी देर एकान्त में रहने की इच्छा से किवाड़ बंद करा दिये।
यादवाचार्य ने किवाड़ बंद कर दिये। कांचाना द्वार पर खड़ी रही। जब बहुत देर हो गयी तब कांचना ने व्यग्रता के साथ आचार्य से किवाड़ खोलने को कहा। आचार्य ने ड़रते-ड़रते किवाड़ खोले। बस, अब वहाँ क्या था, श्री विष्णुप्रिया जी तो अपने पति के साथ एकीभूत हो गयीं। उसके पश्चात फिर किसी को श्री विष्णुप्रिया जी के इस भौतिक शरीर के दर्शन नहीं हुए। मन्दिर को शून्य देखकर कांचना चीत्कार मारकर बेहोश होकर गिर पड़ी, सभी भक्त हाहाकार करने लगे। हा गौर ! हा विष्णुप्रिये ! की करुणा भरी ध्वनि से दिशा-विदिशाएं भर गयीं। भक्तों के करुणाक्रन्दन से आकाश मण्डल गूँजने लगा।
यादवाचार्य ने किवाड़ बंद कर दिये। कांचाना द्वार पर खड़ी रही। जब बहुत देर हो गयी तब कांचना ने व्यग्रता के साथ आचार्य से किवाड़ खोलने को कहा। आचार्य ने ड़रते-ड़रते किवाड़ खोले। बस, अब वहाँ क्या था, श्री विष्णुप्रिया जी तो अपने पति के साथ एकीभूत हो गयीं। उसके पश्चात फिर किसी को श्री विष्णुप्रिया जी के इस भौतिक शरीर के दर्शन नहीं हुए। मन्दिर को शून्य देखकर कांचना चीत्कार मारकर बेहोश होकर गिर पड़ी, सभी भक्त हाहाकार करने लगे। हा गौर ! हा विष्णुप्रिये ! की करुणा भरी ध्वनि से दिशा-विदिशाएं भर गयीं। भक्तों के करुणाक्रन्दन से आकाश मण्डल गूँजने लगा।
सचमुच धन्य है ऐसी पतिपरायणा स्त्रियाँ, शायद इन देवियो के सतबल पर ही आज भी धरम टिका हुआ है, विष्णुप्रिया जी ने अपने घोर वैराग्य,तप से इस पृथ्वी को धन्य किया और इस संसार की नारियो के लिए एक आदर्श स्थापित किया, मेरा ऐसी पुण्यात्मा देवी के चरणों में कोटिशः नमन है,
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