महाप्रभु जी और रामानंद राय जी संवाद कृष्णभक्तिरसभविताः मतिः क्रियतां यदि कुतोअपि लभ्यते I तत्र लौल्यमपि मूल्यकेवलं जन्मकोटि...
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महाप्रभु जी और रामानंद राय जी संवाद |
कृष्णभक्तिरसभविताः मतिः
क्रियतां यदि कुतोअपि लभ्यते I
तत्र लौल्यमपि मूल्यकेवलं
जन्मकोटिसुकृतैर्न लभ्यते II
अर्थात 'मनुष्य को श्रीकृष्ण -भक्ति-रस से भावित-मति जैसे भी प्राप्त हो सके वैसे ही प्राप्त करनी चाहिए, उसे प्राप्त करने का मूल्य क्या है? उसके प्रति लोलुपता. लोभी-भाव,सदा ह्रदय में उसी की इच्छा बनी रहना, उसे मनुष्य कोटि जन्म के सुकृत से भी प्राप्त नहीं कर सकता'I
महाप्रभु जी रामानंद राय जी से प्रभावित होकर पूछते है," मनुष्य का परम पुरुषार्थ ओर सर्वश्रेष्ठ धर्म भगवान् मधुसूदन की अहैतु की भक्ति करना ही है", 'किन्तु भक्ति किस प्रकार की जाय, यह बताइये?''
रामनन्दराय जी ने कहा," प्रभो ! में समझता हूँ, प्रेमपूर्वक भक्ति करने से ही इष्टसिद्धि हो सकती है,भगवान् प्रेममय है, प्रेम ही उनका स्वरुप है,वे रसराज है,इसलिए जैसे भी हो सके उस रसार्णव में घुसकर खूब गोते लगाने चाहिए,"
जैसे श्री रामचरित मानस में तुलसी बाबा कहते हैं कि -
"कामिहि नारि पिआरि जिमि !!लोभिहि प्रिय जिमि दाम !
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम !!"
अर्थात जैसे कामी व्यक्ति को स्त्री प्रिय होती है ! और उसके सारे प्रयास सारी चेष्टा सिर्फ उस स्त्री को पाने के लिए ही होती है वैसा ही प्रयास हम प्रभु को पाने के लिए करें ! किसी धन के लोभी के जैसे धन में रूचि होती है, प्रेम होता है, हर क्षण जो उसी के बारे में सोचता रहता है, ऐसे ही भक्त को भगवान् से प्रेम होना चाहिए,
जैसे सागर में मछली गोते लगती रहती है आनंद से विचरण करती है, ऐसे ही भक्त को अपने प्रभु के प्रेम रुपी सागर में निरंतर गोते लगाने चाहिए, एक क्षण के लिए भी उस प्रेम रस-सागर बृजचंद्र को भूलना नहीं चाहिए, नहीं तो जैसे जल-विहीन मछली की दशा हो जाती है, वैसे ही भक्त के हृदय में भी विरह की तड़प होने लगेगी, इसलिए उसे किसी भी स्थिति में अपने प्रेमी के प्रेम से विलग होना ही नहीं चाहिये,
प्रभु को पाने का सर्वोत्तम तरीका, प्रेमाभक्ति ही है, प्रेम की कोई सीमा नहीं होती, कोई नियम नहीं होते, प्रेम निष्कपट केवल अपने प्रेमी के लिए होता है, यदि भक्त प्रेमस्वरूप परमात्मा के प्रेम में निरंतर खोया रहेगा,सांसारिक विषयो से अनासक्त होकर केवल ओर केवल अपने भगवान् के लिए प्रेम करेगा तभी उसे अपने परम् प्रिय परमात्मा की उपलब्धि हो सकती है,
"एकभावे वन्द हरि जोड़ करि हात I नन्दनन्दन कृष्ण मोर प्राणनाथ II"
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