जगन्नाथ जी रथयात्रा एवं महाप्रभु का दिव्यौलास श्री जगन्नाथ जी की रथ यात्रा का गौरभाक्तो और स्वयं महाप्रभु को बहुत उत्साह होता है...
श्री जगन्नाथ जी की रथ यात्रा का गौरभाक्तो और स्वयं महाप्रभु को बहुत उत्साह होता है, जैसे ही रथयात्रा का दिवस आया तो सभी भक्त भाव-विभोर हो गए,महाप्रभु की दशा का तो वर्णन हो ही नहीं सकता, क्योंकि पंद्रह दिनों के विरह के बाद आज भगवान के दर्शन हुए है, क्योंकि आज नेत्रोत्सव है, आज प्रभु के दर्शनों के बाद कल रथयात्रा निकलेगी, तो अत्यंत उत्साह से महाप्रभु पुरुषोत्तम भगवान् को निहार रहे है,
गुण्टिचा (उद्यान मन्दिर) के मार्जन के दूसरे दिन नेत्रोत्सव था। महाप्रभु अपने सभी भक्तों को साथ लेकर जगन्नाथ जी के दर्शन के लिये गये। पंद्रह दिनों के अनवसर के अनन्तर आज भगवान के दर्शन हुए हैं, इससे महाप्रभु को बड़ा ही हर्ष हुआ। वे एकटक लगाये श्रीजगन्नाथ जी के मुखारविन्द की ओर निहार रहे थे। उनकी दोनों आखों में से अश्रुओं की दो धाराएँ बह रही थीं। उनके दोनों अरुण ओष्ठ नवपल्लवों की भाँति हिल रहे थे और वे धीरे-धीरे जगन्नाथ जी से कुछ कह रहे थे, मानो इतने दिन के वियोग के लिए प्रेमपूर्वक उलाहना दे रहे हों।
जैसे गोपियों को श्री कृष्ण के अंतर्ध्यान होने पर अत्यंत विरह की पीड़ा थी वैसे ही महाप्रभु कितने दिनों से तड़प रहे है, आज निर्मोही के दर्शन हो गए, तो अपने प्रेमी को प्रेम भरा उल्हना दे रहे है, दोपहर तक महाप्रभु अनिमेष भाव से भगवान के दर्शन करते रहे। फिर भक्तों के सहित आप अपने स्थान पर आये और महाप्रसाद पाकर फिर कथा-कीर्तन में लग गये।
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प्रेमपूर्वक उलाहना |
दूसरे दिन जगन्नाथ जी की रथ यात्रा का दिवस था। प्रभु के आनन्द की सीमा नहीं थी। वे प्रात:काल होने के लिये बड़े ही आकुल बने हुए थे। मारे हर्ष के उन्हें रात्रिभर नींद ही नहीं आयी। परम् भक्त को नींद भी कैसे आ सकती है, जिसका तन-मन-सर्वस्व जिस प्रीतम को पाने के लिए फड़कता है, जिसमे चेतना ही कृष्ण प्रेम की है, अन्यथा तो यह काया हाड-माँस का पिंजर है, उसके लिए तो उसके प्रीतम का उत्सव मानो सभी खुशियों का संग्रह है, निश्चित रूप से बेचैनी होगी, नींद भी नहीं आएगी, जो विरहणी बहुत समय से मिलान को तड़प रही हो और उसे खबर मिल जाए की कल उसके प्रीतम आ रहे है, ऐसी ही दशा महाप्रभु की है, नींद कहाँ से आएगी? जो प्रीतम के प्रेम में डूबा हुआ निरन्तर अश्रुपात कर रहा है, उसके लिए तो एक एक क्षण कष्ट से बीत रहा है,
रात भर वे प्रेम में बेसुध हुए जागरण ही करते रहे। दो घड़ी रात्रि रहते ही आप उठकर बैठ गये और सभी भक्तों को भी जगा दिया। शौच स्नानादि से निवृत्त होकर सबके साथ महाप्रभु ‘पाण्डुविजय’ के दर्शन के लिये चले।
रथयात्रा के विषय में कुछ जानकारी :
ज्येष्ठ की पूर्णिमा से लेकर आषाढ़ की अमावस्या तक भगवान महालक्ष्मी के साथ एकान्त में वास करते हैं। प्रतिपदा के दिन नेत्रोत्सव होता है तभी जगन्नाथ जी के दर्शन होते हैं। अर्थात पंद्रह दिनों के लम्बे विरह के बाद आज मनोहारी भगवान् के दर्शन होने है तो वह उत्सव नेत्रों के लिए अत्यन्य सुखकारी दिवस है, इसीलिए इसे नेत्रों का उत्सव कहते है, संसार की सभी वस्तुओ का सार आसार है,केवल और केवल प्रभु का प्रेम और उनके दर्शन ही सार है तो भक्तो के लिए तो यह बहुत भारी उत्सव ही होता है,
द्वितीया या तृतीया को रथ पर चढ़कर भगवान श्रीराधिका जी के साथ एक सप्ताह से अधिक निवास करने के लिये सुन्दराचल को प्रस्थान करते हैं। वही रथ यात्रा कहलाती है! जिस समय रथ जाता है उसे ‘रथ यात्रा’ कहते हैं और विश्राम के पश्चात जब रथ लौटकर मन्दिर की ओर आता है उसे ‘उलटी रथ-यात्रा’ कहते हैं।
रथ-यात्रा के समय तीन रथ होते हैं। सबसे आगे जगन्नाथ जी का रथ होता है, उनके पीछे बलराम जी तथा सुभद्रा जी के रथ होते हैं। भगवान का रथ बहुत विशाल होता है, मानो छोटा-मोटा पर्वत ही हो। सम्पूर्ण रथ सुवर्णमण्डित होती है। उसमें हजारों घण्टा, टाल, किंकिणी तथा घागर बँधे रहते हैं। उसकी छतरी बहुत ऊँची और विशाल होती है। उसमें भाँति-भाँति की ध्वजा-पताकाएँ फहराती रहती हैं। वह एक छोटे मोटे नगर के ही समान होता है। सैकड़ों आदमी उसमें खड़े हो सकते हैं। चारों ओर बड़े बड़े शीशे लटकते रहते हैं। सैकड़ों मनुष्य स्वच्छ सफेद चंवरों को डुलाते रहते हैं। उसके चंदवें मूल्यवान रेशमी वस्त्रों के होते हैं तथा सम्पूर्ण रथ विविध प्रकार के चित्रपटों से बहुत ही अच्छी तरह से सजाया जाता है। उसमें आगे बहुत ही लम्बे और मजबूत रस्से बँधे होते हैं, जिन्हें मनुष्य ही खींचते हैं। भगवान के रथ को गुण्टिचा भवन तक मनुष्य ही खींचकर ले जाते हैं। उस समय का दृश्य बड़ा ही अपूर्व होता है।
रथयात्रा का शुभारम्भ एवं महाप्रभु का दिव्यौलास :
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रथयात्रा का शुभारम्भ |
प्रात:काल रथ सिंह द्वार पर खड़ा होता है, उसमें ‘दयितागण’ भगवान को लाकर पधारते हैं, जिस समय सिंहासन से उठाकर भगवान रथ में पधराये जाते हैं, उसे ही ‘पाण्डु विजय’ कहते हैं। ‘दयिता’ जगन्नाथ जी के सेवक होते हैं। ‘दयिता’ वैसे तो एक निम्न श्रेणी की जाति है, किन्तु भगवान की सेवा के अधिकारी होने के कारण सभी लोग उनका विशेष सम्मान करते हैं। उनमें दो श्रेणी हैं, साधारण दयिता तो शूद्रतुल्य ही होते हैं, किन्तु उनमें जो ब्राह्मण होते हैं, वे ‘दयितापति’ कहलाते हैं। अनवसर के दिनों में वे ही भगवान को बाल भोग में मिष्टान्न अर्पण करते हैं और भगवान की तबीयत खराब बताकर ओषधि भी अर्पण करते हैं। स्नान आदि से लेकर रथ के लौटने के दिन तक उनका श्रीजगन्नाथ जी की सेवा में विशेष अधिकार होता है। वे ही किसी प्रकार रस्सियों द्वारा भगवान को सिंहासन पर रथ पर पधराते हैं। उस समय कटक के महाराजा वहाँ स्वयं उपस्थित रहते हैं।
महाप्रभु अपने भक्तों के सहित ‘पाण्डुविजय’ के दर्शन के लिये पहुँचे। महाराज जी ने महाप्रभु के दर्शन की अच्छी व्यवस्था कर दी थी, इसीलिये प्रभु ने भलीभाँति सुविधापूर्वक भगवान के दर्शन किये। दर्शन के अनन्तर अब रथ चलने के लिये तैयार हुआ। भारत वर्ष के विभिन्न प्रान्तों के लाखों नर नारी रथ यात्रा देखने के लिये उपस्थित थे। चारों ओर गगनभेदी जय ध्वनि ही सुनायी देती थी।
भगवान के रथ पर विराजमान होने के अनन्तर महाराज प्रतापरुद्र जी ने सुवर्ण की बुहारी से पथ को परिष्कृत किया और अपने हाथ से चन्दन मिश्रित जल छिड़का। आज भी परम्परानुसार पूरी के राजा इस नियम का पालन करते है,और प्रति वर्ष यह यात्रा उत्सव की जाती है,असंख्यों इन्द्र, मनु, प्रजापति तथा ब्रह्मा जिनकी सेवा में सदा उपस्थित रहते हैं, उनकी यदि नीच सेवा को करके महाराज अपने यश और प्रताप को बढ़ाते हैं, तो इसमें कौन सी आश्चर्य की बात है? उनके सामने राजा महाराजाओं की तो बात ही क्या है, ब्रह्मा जी भी एक साधारण जीव हैं। मान सम्मान के सहित उनकी सेवा कोई कर ही क्या सकता है, क्योंकि संसार भर की सभी प्रतिष्ठा उनके सामने तुच्छ से भी तुच्छ है। मान, प्रतिष्ठा, कीर्ति और यश के वे ही उदगम स्थान हैं। ऐश्वर्य से, पदार्थों से तथा अन्य प्रकार की वस्तुओं से कोई उनकी पूजा कर ही कैसे सकता है? वे तो केवल भाव के भूखे हैं।
महाराज के पूजा-अर्चा तथा पथ-परिष्कार कर लेने पर गौड़देशीय भक्तों ने तथा भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों से आये हुए नर नारियों ने भगवान के रथ की रज्जु पकड़ी। सभी ने मिलकर जोरों से ‘जगन्नाथ जी की जय’ बोली। जयघोष के साथ ही असंख्यों घण्टा किंकिणियों तथा टालों को एक साथ बजाता हुआ और घर घर शब्द करता हुआ भगवान का रथ चला। उनके पीछे बलभद्र जी तथा सुभद्रा जी के रथ चले। चारों ओर जयघोष हो रहा था। सम्पूर्ण पथ सुन्दर बालुकामय बना हुआ था। राजपथ के दोनों पार्श्वों में नारियल के सुन्दर सुन्दर वृक्ष बड़े ही भले मालूम पड़ते थे। सुन्दराचल जाते हुए भगवान के रथ की छटा उस समय अपूर्व ही थी। रथ कभी तो जोरों से चलता, कभी धीरे धीरे चलता, कभी एकदम ठहर जाता और लाख प्रयत्न करने पर भी फिर आगे नहीं बढ़ता। भला, जिनके पेट में करोड़-दो-करोड़ नहीं, असंख्यों ब्रह्माण्ड भरे हुए हैं, उन्हें ये कीट पतंग की तरह बल रखने वाले पुरुष खींच ही क्या सकते हैं? भगवान स्वयं इच्छामय हैं, जब उनकी मौज होती है तो चलते हैं, नहीं तो जहाँ के-तहाँ ही खड़े रहते हैं। लोग कितना भी जोर लगावें, रथ आगे को चलता ही नहीं, तब उड़िया भक्त भगवान को लाखों गालियाँ देते हैं। पता नहीं गालियों से भगवान क्यों प्रसन्न हो जाते हैं, गाली सुनते ही रथ चलने लगता है।
महाप्रभु रथ के आगे आगे नृत्य करते हुए चल रहे थे। रथ चलने से पूर्व उन्होंने अपने हाथों से सभी भक्तों को मालाएँ पहनायीं तथा उनके मस्तकों पर चन्दन लगाया। और कई कई मंडलियों में विभ्भिन भक्तो को बांटकर नैऋत्य करने लगे, महाप्रभु सभी मण्डलियों में नृत्य करते। वे-बात की-बात में एक मण्डली से दूसरी मण्डली में आ जाते और वहाँ नृत्य करने लगते। वे किस समय दूसरी मण्डली में जाकर नृत्य करने लगे, इसका किसी को भी पता नहीं होता। सभी समझते महाप्रभु हमारी ही मण्डली में नृत्य कर रहे हैं।
यात्रीगण आश्चर्य के सहित प्रभु के नृत्य को देखते। जो भी देखता वही देखता-का-देखता ही रह जाता। महाप्रभु की ओर से नेत्र हटाने को किसी का जी ही नहीं चाहता। मनुष्यों की तो बात ही क्या, साक्षात जगन्नाथ जी भी प्रभु के नृत्य को देखकर चकित हो गये और वे रथ को खड़ा करके प्रभु की नृत्यकारी छबि को निहारने लगे। मानो वे प्रभु के नृत्य से आश्चर्यचकित होकर चलना भूल ही गये हों। भगवान् तो भाव के भूखे है,वे भावातीत होने पर यह नहीं देखते की विदुरानी उनके कदली फल नहीं किन्तु छिलके खिला रही है, वह यह नहीं देखते की जो बेर शबरी माता खिलाती है, वह उनके झूठे है, तो अपने प्रिय भक्त और अपने स्वरुप श्री महाप्रभु के नृत्य को देखकर जगन्नाथ जी उन पर मोहित होकर अपना प्रभुत्व भूल जाना कौन सी बड़ी बात है?
महाप्रभु ने अपने कोकिल कूजित कण्ठ से बड़ी करुणा के साथ जगन्नाथ जी की स्तुति करने लगे। भक्तों ने भी प्रभु के स्वर में स्वर मिलाया।
जयति जयति देवो देवकीनन्दनौऽसौ।
जयति जयति कृष्णो वृष्णिवंशप्रदीप:।
जयति जयति मेघश्यामल: कोमलांगो
जयति जयति पृथ्वीभारहारो मुकुन्द।।[1]
नहां विप्रो न च नरपतिर्नापि वैश्यो न शूद्रो
नाहं वणीं न च गृहपतिर्नो वनस्थो यतिर्वा।
किन्तु प्रोद्यन्निखिलपरमानन्दपूर्णामृताब्धे-
र्गोपीभर्तु: पदकमलयोर्दासदासानुदास:।।[2]
‘दासानुदास’ यह पद समाप्त हुआ कि फिर झाँझ, मृदंग और खोल स्वत: ही बजने लगे। रथ घर-घर शब्द करके फिर चलने लगा। महाप्रभु फिर उसी भाँति उद्दाम नृत्य करने लगे। उनके सम्पूर्ण शरीर में स्तम्भ, स्वेद, पुलक, अश्रु, कम्प, वैवर्ण, स्वरविकृति आदि सभी सात्त्विक विकारों का उदय होने लगा। उनके शरीर के सम्पूर्ण रोम एकदम खड़े हो गये, दाँत कड़ाकड़ बजने लगे। स्वर भंग एकदम हो गया, चेष्टा करने पर ठीक ठीक शब्द मुख से नहीं निकलते थे। आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। पसीने का तो कुछ पूछना ही नहीं। मानो सुवर्ण के सुमेरु पर्वत से असंख्य नदियाँ निकल रही हों मुख में से झाग निकल रहे थे। कभी कभी लेट जाते, फिर उठ पड़ते और अलातचक्र की भाँति चारों ओर घूमने लगते।
अब प्रभु राधाभाव से भावान्वित हो गये। उन्हें भान होने लगा मानो श्रीश्यामसुन्दर बहुत दिनों के बिछोह के बाद मिलने के लिये आये हैं। इसी भाव से वे जगन्नाथ जी की ओर भाँति-भाँति के प्रेम भावों को हाथों द्वारा प्रदर्शित करते हुए नृत्य करने लगे। अब उन्हें प्रतीत होने लगा मानो श्रीकृष्ण आकर मिल गये हैं, किन्तु इस मिलन में सुख नहीं है, जो वृन्दावन के पुलिन कुंजों में आता था। इसी भाव में विभोर होकर वे इस श्लोक को पढ़ने लगे-
य कौमारहर: स एव हि वरस्ता एव चैत्रक्षपा।
स्ते चोन्मीलितमालतीसुरभय: प्रौढा: कदम्बानिला:
सा चैवास्मि तथापि तत्र सुरतव्यापारलीलाविधौ।
रेवारोधसि वेतसीतरुतले चेत: समुत्कण्ठते।।[1]
नायिका पुनर्मिलन के समय कह रही है, ‘जिस कौमार-काल में रेवानदी के तट पर जिन्होंने हमारे चित्त को हरण किया था, वे ही इस समय हमारे पति हैं। वही मधुमास की मनोहारिणी रजनी हैं, वही उन्मीलित मालती पुष्प की मन को मस्त कर देने वाली भीनी भीनी सुगन्ध आ रही है, वही कदम्ब-कानन से स्पर्श की हुई शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु बह रही है, पति के साथ सुरत-व्यापार लीला करने वाली नायिका भी मैं वही हूँ और मन को हरण करने वाले नायक भी ये वे ही हैं, तो भी मेरा चंचरीक के समान चंचल चित्त सन्तुष्ट नहीं हो रहा है, यह तो उसी रेवा के रमणीय तट के लिये उत्कण्ठित हो रहा है।’ हाय रे ! विरह! बलिहारी है तेरे पुनर्मिलन की।
जो भक्त प्रभु के प्रेम में होते है उनका कोई नेम नहीं होता, नाही वह किसी सांसारिक मर्यादा को कुछ समझते है, और जो मर्यादाओ से बांध कर प्रभु से मिलना चाहते है, जो लोक-लाज में बंधे रहते है, या अपने रूप-सौंदर्य,ज्ञान या धन के अभिमान में बंधे है उन्हें प्रभु के चरण कभी नहीं मिल सकते, प्रभु को तो केवल निर्मल मन जन ही भाते है, तुलसी बाबा भी यही कहते है,
"निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहे कपट छलछिद्र न भावा"
कबीर बाबा ने सच कहा है-
पियका मिलना सुगम है, तेरा चलन न वैसा।
नाचन निकली बापुरी, फिर घूँघट कैसा।
सचमुच जहाँ पर्दा है वहाँ मिलन कैसा? जहाँ बीच में दीवार खड़ी है वहाँ दर्शन सुख कहाँ? जहाँ अन्तराय है वहाँ सच्चा सुख हो ही नहीं सकता। जब तक पद प्रतिष्ठा, पैसा-परिवार, पाण्डित्य और पुरुषार्थ का अभिमान है तब तक प्यारे के पास पहुँचना अत्यन्त ही कठिन है। जब तक अहंकृति की गहरी खाईं बीच में खुदी हुई है, तब तक प्यारे के महल तक पहुँचना टेढ़ी खीर हैं। जब तक सभी अभिमानों को त्यागकर निष्किंचन बनकर प्यारे के पादपह्रों के समीप नहीं जाता, तब तक उसके प्रसाद को प्राप्त करने में कोई भी समर्थ नहीं हो सकता।
ऐसे ही नाचते-कूदते, भावविभोर कीर्तन करते हुए, अनेको जीवो को अपने अनुपम दर्शन देते हुए जगन्नाथ भगवान्र और महाप्रभु जी रथ के सहित गुण्टिचा भवन के समीप पहुँच गये I वहाँ जाकर भगवान को मन्दिर में पधराया गया। भगवान के पुजारियों ने जगन्नाथ जी की आरती आदि की। महाप्रभु ने मन्दिर के सामने ही कीर्तन आरम्भ कर दिया। बड़ी देर तक संकीर्तन होता रहा। फिर महाप्रभु सभी भक्तों के सहित भगवान की सन्ध्याकालीन भोग आरती में सम्मिलित हुए। सभी ने भगवान की वन्दना और स्तुति की। तदनन्तर भक्तों के सहित महाप्रभु ने गुण्टिचा उद्यान मन्दिर के समीप आई टोटा नामक एक बाग में रात्रिभर निवास किया। गुण्टिचा मन्दिर में नौ दिनों तक उत्सव होता है। महाप्रभु भी तब तक भक्तों के सहित यहीं रहे।
इस प्रकार जगन्नाथ जी यह रथयात्रा विश्व प्रसिद्द है, जोकि आज भी उन्ही भावो के सहित हर वर्ष निकलती है, इसके रस का आस्वादन कोई बिरला महाप्रभु जी का कृपापात्र ही पूर्ण रूप से प्राप्त कर सकता है, संसार से बद्ध जीव जबतक प्रभु प्रेम के आसक्त होकर, सांसारिक व्याधि का नहीं भूल जाते तबतक प्रभुप्रेम का आस्वादन पूर्ण प्राप्त नहीं होते, इसे तो इसी भाव से पूर्ण कर रहा हूँ,
परिवदतु जनो यथा तथा वा
नतु मुखरो न वयं विचारयाम:।
हरिरसमदिरामदातिमत्ता
भुवि विलुठाम नटाम निर्विशाम।।
बकवादी लोग जैसा चाहें वैसा अपवाद किया करें, हम उस पर ध्यान नहीं देंगे, हम तो बस हरिनाम-रस की मदिरा के नशे में मस्त हो भूमि पर नाचेंगे, लोटेंगे और लोटते-लोटते बेसुध हो जायँगे।
जय जय गौरहरि, जय जगन्नाथ स्वामी I
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