भ्राता- प्रेम और परिवारिक सम्बन्ध (श्री रामायण जी की दृष्टि से )

भरत जी का अलौकिक प्रेम  आज के युग में परिवार जो एक दूसरे से दूर होते जा रहे है, भौतिक दूरियों के साथ-साथ मन से भी दूरियाँ बढ़ती जा रही है...

भरत जी का अलौकिक प्रेम 
आज के युग में परिवार जो एक दूसरे से दूर होते जा रहे है, भौतिक दूरियों के साथ-साथ मन से भी दूरियाँ बढ़ती जा रही है,आपसी रिश्तो में जो दूरिया बढ़ती जा रही है यह सबसे ज्यादा घातक है समाज के लिए, ऐसी दुर्भावना न केवल परिवार को बल्कि समाज को भी खोखला कर रही है, आज भाई का भाई से प्रेम खत्म होता जा रहा है, जमीं जायदाद के लिए एक दूसरे के खून के प्यासे होते जा रहे है, कोर्ट-कचहरी में आये दिन चकर काटते रहते है, मानसिक दुर्भावना इतनी बलवती होती जा रही है की कोई सम्बन्ध सुदृढ़ नहीं रहा, ऐसे समय में श्री रामायण जी के भरत और राम जी के आपस के प्रेम और त्याग का अनुसरण किया जाए तो, परिवार में कोई भी संकट, दुःख या तकलीफ हो सब सुख में बदल जाते है, बस आवश्यकता है, प्रेम, त्याग, सहनशीलता, और धैर्य की,विशवास की, फिर कोई भी समस्या हो सुलझ जाती है,




जब परिवार के सदस्य एक दूसरे के सुख की कामना करते है, ऐसा व्यवहार अपना लेते है की में अपने परिवार के हर सदस्य को सुख पहुंचा दूँ, यदि सभी एक दूसरे के प्रति ऐसा भाव रखने लगे तो सब सुखी हो जाएंगे, भरत लाल जी श्री राम जी के सुख की कामना करते है और श्री राम जी भरत जी के प्रति सुखभाव रखते है, दोनों एक-दूसरे के सुख के लिए ततपर है, तभी सुख होता है, आइये श्री भरत चरित्र के माध्यम से अपने जीवन को बदले और " सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामय, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु  ! मा कश्चिद दुःख भवेद " की भावना को बलवती करे की कोई भी, किसी प्रकार से दुखी न हो सबका कल्याण हो,



  भरत जी की श्री राम जी के प्रति भक्ति अनुपम व् अद्वित्य है, इनका त्याग संयम,व्रत,नियम,सभी अत्यंत सराहनीय एवं अनुकरण के योग्य है,  भरत जी के चरित्र से स्वार्थ-त्याग, विनय, सहिष्णुता, गंभीरता, सरलता, क्षमा, वैराग्य,और स्वामिभक्ति जैसे अद्वित्य गुणों की शिक्षा ग्रहणीय है, भक्तिसहित निष्कामभाव से गृहस्थ में रहते हुए भी प्रजापालन,भक्ति और नियम पालन का अनूठा उद्धरण भरत चरित से मिलता है, भारत के जैसा सुहृदय, प्रेममूर्ति, मितभाषी, सरल,स्वामिभक्त,अन्य कोई चरित नहीं हो सकता,ढूंढ़ने पर भी जहां दोष दिखाई न दे ऐसा पवित्र चरित्र है भरत जी का, भरत जी धर्म और निति के जानने वाले, सदगुणसम्पन्न, त्यागी, संयमी, सदाचारी, प्रेम और विनय की मूर्ति, श्रद्धालु, और बड़े बुद्धिमान व्यक्तित्व के धनी है वैराग्य, सत्य, तप, क्षमा ,तितिक्षा, दया, वात्सल्य, धीरता, वीरता, गंभीरता, सरलता, सौम्यता, मधुरता, अमानिता और सुहृदयता आदि विलक्षण गुणों से परिपूर्ण चरित्र है भरत जी का,

भरत जी का पूर्ण जीवन श्री राम जी को समर्पित था, एक क्षण के लिए भी श्री राम जी की अवहेलना या उनका वियोग उनके लिए मृत्यु समान है, जब राजा दशरथ जी के अंतिम संस्कार के बाद भरत जी को ऋषि वशिष्ठ, माताओ ने समझाया की तुम अपना राज्याभिषेक करवा लो, तब भरत जी ने कहा, यह राज्य और मैं स्वयं मेरे प्रभु श्री राम जी का है, मेरा इस पर कोई अधिकार नहीं है, मैं स्वयं रघुनाथ जी से मिलकर उनसे विनती करूँगा के, हे नाथ! आप अयोध्या लौट चलिए और अपना राज्य स्वीकार कर हम सभी को आनंदित कीजिये, 'मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रघुनाथ जी अयोध्या के ही नहीं समस्त त्रिलोकी के सम्राट होने के योग्य है, मैं उनका दास हु और उन्ही की आज्ञा का अनुसरण करूंगा, आप सभी के संग उनके समक्ष जाकर अनुरोध करूँगा की वह वन से लौट चले और अपना उच्चित स्थान अयोध्या जी का राजसिंघासन स्वीकार करके हमे अपने चरणों में रखकर सेवा का लाभ दे, और फिर भी वह नहीं मानेंगे तो मैं भी लक्ष्मण की भाँति, वही वन में रहकर उनकी सेवा करूँगा, भरत केऐसे प्रेमपूर्वक वचन सुनकर सभी सभासदो की आँखों से अश्रु बहने लगे, 



भरत तीनो माताओ,गुरु वशिष्ठ और सैन्य दल-बल सहित श्री राम जी को लौटलाने के लिए वन में चल पड़ते है, मार्ग में निषाद राज गुह से भेंट होती है, किन्तु गुह के मन में शंका उठती है की अब भरत के हृदय में कोण सी वासना शेष है जो सेना सहित यह वन में भी प्रभु को मारने के लिया चला आया, किन्तु जब भरत से मिले तो उनकी शंका का निवारण करते हुए भरत जी बोले,' निषादराज! ऐसा अवसर नहीं आना चाहिए जिससे आपको मुझ पर संदेह हो, श्री राम मेरे बड़े भाई ही नहीं अपितु पिता समान है, मैं उनका दास हूँ, मैं यह केवल उनको अयोध्या जी लौटा लेने के लिए मनाने आया हूँ," भरत के ऐसे प्रेमयुक्त, करुण वाक्यों को सुनकर निषाद जी उनके भर्तृ -प्रेम से अत्यंत सुखी हुए, 

निषाद राज बोले," आप धन्य है भरत जी,जो बिना किसी प्रयास के मिले हुए राज्य को त्याग देना चाहते हो, आपके  समान इस भूमण्डल पर कोई दूसरा भाई नहीं हो सकता, वरना राज्य, धन, सम्पदा के लिए भाई को भाई मारते है, छल-कपट जमीन जायदाद के लिए खून के प्यासे भाइयो को बहुत देखा है, लकिन भाई के लिए भाई का ऐसा त्याग पूर्ण जगत में एक उद्धरण प्रस्तुत करेगा," 

बहुत देर तक ऐसे ही चर्चा होती रही, तब भरत जी के कहने पर गुहराज ने भरत को वह स्थान दिखाए जहाँ माता जानकी जी सहित श्री राम जी ने शयन किया और जहां जहां ठहरे थे, जब भरत ने इंगुदी वृक्ष के निचे कुशा के आसान से बना बना बिछोना देखा तो उनके नेत्रों से अश्रुपात होने लगा, वह मन ही मन यह सोचकर दुखी होने लगे की जो अति सुकुमारी माता जानकी जी, सम्पूर्ण सुखो को भोगने की अधिकारी है, उन्हें ऐसे स्थान पर सोना  पड़ता है, स्वयं प्रभु भी इतना कष्ट उठा रहे है, यह सब मेरे कारण हो रहा है, ऐसा देख कर  भरत जी विलाप करते है,और उनकी दशा अति विचित्र हो गयी है, मुझ से अच्छा तो लखन है, जो दिन रात प्रभु के साथ रहकर उनकी सेवा करता है, धिकार है मुझ जैसे भाई पर जिसके कारण सब लोको को ुख देनेवाले,सबका भला सोचनेवाले नीलवर्ण प्रभु श्रीराम जोकि सब प्रकार के सुख भोगने के योग्य है, उन श्रीरघुनाथ जी को अत्युत्तम राज्य को छोड़कर किस प्रकार पृथ्वी पर शयन करना पड़ रहा है, इस प्रकार अनेक प्रकार से विलाप करते हुए भरत जी ने वह रात्रि विश्राम किया और अगली सुबह आगे प्रस्थान किया, आगे चलकर महऋषि  भरद्वाज जी के आश्रम पहुंचे, महृषि ने आदर सत्कार किया किन्तु तभी कटाक्ष भी किया भरत जी को" अब किस हेतु से अर्थात अब आपका क्या निमित्त है जो यह वन में चले आये?" अर्थात अब क्या शेष है जो तुम वन में भी श्री राम से पाना चाहते हो? अब क्या अनिष्ट करना चाहते हो राम और लक्ष्मण के प्रति? ऐसा सुनकर भरत जी बहुत दुखी हुए,जैसे वज्र से किसी ने प्रहारकर घायल कर दिया हो, अश्रुधारा निर्बाध गति से बहने लगी, ऐसा लगा मानो अभी धरती  फट जाए और उसमे समा जाओ, इतना दुःख आह निकल गयी भरत के रोम-रोम से, वे लड़खड़ाती हुयी वाणी से बोले, " मुने! मुझसे कोई अपराध नहीं हुआ है, फिर भी आप मुझे दोषी समझते है तो, मुझ पापी को जीवित न जानिये, मैं मृत शव के समान हूँ, अतः आप मुझ से इतना कठोर बर्ताव न कीजिये, जो कुछ भी अनिष्ट हुआ वह सब मेरी माता कैकयी की कुचाल के कारन हुआ है, मेरी इस सब मैं कोई सहमति या इच्छा नहीं थी, मैं तो केवल और केवल श्रीराम जी से आग्रह करने आया हूँ की अब वह शीघ्र अयोध्या लौट चले और अपना राज्य संभाल ले, अतः आप कृपा कर मुझे वह स्थान बताइये जहाँ मेरे प्रभु माता जानकीओर लखण निवास कर रहे है, 


तब भरद्वाज जी कहते है,"            जाने चैतन्मनः स्थं  ते दृढीकरणंमस्तिव्ती I
                                                   परिछ्म त्वाम त्वत्यर्थ कीर्तिम समभिवर्धयं II       

"भरत! मुझे तुम्हारे मन की बात पता है, तथापि उसे दृढ करने के लिए और ऐसी शुद्ध भावना का अभिवर्धन करने के लिए मैंने तुमसे यह सब बाते पूछी है" और इस  संसार में तुम्हारे गुणों की कीर्ति फैले ऐसा जानकर भी तुमसे ऐसा कटाक्ष किया है, तब भरद्वाज जी अनुग्रह पर भरत जी ने उनका आतिथ्य स्वीकार किया और रात्रि विश्राम उन्ही के आश्रम में किया,भरत जी रात्रि  में स्वप्न देखते है की बहुत बड़े राज महल में है और वह श्री राम जी को सिंघासन पर बिठला कर स्वयं चंवर दुला रहे है, और अनेक भांति से सेवा कर रहे है, धन्य है भरत प्रेम की स्वप्न में भी वह केवल रघुनाथ जी का दास ही बनते है अर्थात स्वप्न में भी प्रभु सेवा में संलग्न रहते है, 



प्रातः काल होते ही भरत जी सेना सहित आगे बड़े और चित्रकूट के निकट पहुँच गए, सीता जी और रामलखन दूर से उड़ती हुयी धुल देखकर हैरान होते है और कारण जाने ने की इच्छुक होते है, तब लखनलाल जी पेड़ पर चढ़कर देखते है की, धूल उडाता हुआ भरत सैन्य दल-बल से उन्ही की और आ रहा है, और लखन लाल अत्यंत क्रोधित होकर धनुष हाथ में लेकर बोलते है, भरत के मन में अब भी शांति नहीं है, जो वन में हमको कष्ट देना चाहता है, में आज एक ही बाण से उसके प्राण हर लूंगा, किन्तु राम जी अत्यंत शांत है और लक्ष्मण को सावधान करते हुए कहते है, की है लक्ष्मण! थोड़ा विचार करके बोलो, भरत मुझे अत्यंत प्रिय है और वह स्वप्न में भी हमारा कोई अनिष्ट नहीं सोच सकता फिर अनिष्ट करने की बहुत दूर की बात है, अभी जो तुम बिन बिचारे बोल रहे हो, कहि ऐसा न हो बाद में पछताना पड़े, अर्थात कोई भी बात बोलने से पहले सौ बार सोच-समझ लेना चाहिए, भरत ने तुम्हारा कब और क्या अपकार किया है? जिसके कारण आज तुम उससे ऐसा भय,आशंका कर रहे हो, भरत के आने पर कोई अनुचित वचन कहे या अनुचित व्यवहार किया तो ऐसा समझना की तुम मेरे साथ ही वैसा कर रहे हो, यदि राजयसिंघासन के लिए ऐसा कह रहे हो तो में भरत को कह दूंगा की वह तुम्हे दे दे, वह मेरी बात कभी नही टाल सकता है, रघुनात जी को कितना प्रेम और विशवास है भरत जी पर, परम् साधु प्रवृति और निर्दोष होने पर भी भरत जी को किस किस के कोप का भागी और संदेह का शिकार होना पड़ा है, फिर भी धैर्यशील भरत सब कुछ शांतचित होकर सहन करते है, भरत का प्रेम, स्वामिभक्ति, और सहिष्णुता सरहानीय है,   



भरत जी सभी मंत्रियो, शत्रुघ्न इत्यादि को राम जी के स्थान का पता लगाने का आदेश देते हुए कहते है की, जब तक श्री रघुनाथ जी के कमलसदृश्य विशाल नेत्र और चन्द्रमा के समान सुशोभित मुख कमल को न देख लूंगा मुझे शांति नही मिलेगी, जब तक उनके चरण-कमल से लिपट नही लूंगा मुझे अब धैर्य नही होता है, जबतक अयोध्या के राजसिंघासन के असली अधिकारी,पीतपितामहो के साम्राज्य पर प्रतिष्ठित नही हो जाते मुझे शांति नही मिलेगी, इस प्रकार बहुत कुछ बोलते हुए भरत पैदल ही वन के भीतर दौड़ जाते है, ऊँचे वृक्ष पर चढ़ कर श्री राम को खोजते है तभी उनकी दृष्टि, दूर आश्रम में बैठे रघुनाथ और माता जानकी जी पर पड़ती है, जैसे ही दर्शन हुए उनके अर्धमृत शरीर में जैसे प्राण आ गए ऐसा लगता था, और दौड़ दौड़ कर जैसे बछड़ा अपनी माँ से मिलने के लिए दौड़ पड़ता है आश्रम की और भागने लगे, जैसे ही द्वार पर पहुंचे तो प्रभु का सन्यासी रूप देखकर शोक मग्न हो गए, अश्रुधारा बहने लगी, पाँव लड़खड़ाने लगे, अत्यंत  करुण दशा हो  गयी भरत की, राम जी माता जानकी सहित एक चबूतरे पर बैठे है, लक्ष्मण भी वही पास में विध्यमान है, वक्लवस्त्र धारण किये है, लम्बी -लम्बी जटायुक्त मस्तक है रघुनाथ जी का, 




है! विधाता का क्या लेख है जो तीनो लोको के नाथ है, जो राजयसभा में उच्च सिंघासन पर बैठकर मंत्री युक्त सभा में विराजित होने के अधिकारी है, जो नाना प्रकार के अलंकारों से सुसज्जित होकर रेशमी सूंदर वस्त्र धारण करने के योग्य है वह यह वन में मृगचर्म और वल्कल धारण किये विराज रहे है, जो माता जानकी जनक जी की राजकुमारी और स्वयं चक्रवर्ती राजा दशरथ की कुलवधू है, वह इस प्रकार की यातना सह रही है, है धिक्कार है मुझ जैसे भाई पर, जो इनके दुःख का कारण बना है, ऐसे ही विचार से बोझिल भरत गिरते लड़खड़ाते हुए प्रभु चरणों के समीप जा कर गिर पड़े, उनका कंठ अवरुद्ध हो गया, अश्रु बह रहे है,ऐसे करुण दशा देखकर भरत की रघुनाथ भी व्यथित हो गए और उसे उठाकर गले से लगा लिया, धैर्य देते हुए अपने पास बिठा लिया, भारत की करुण दशा देख श्रीरामचन्द्र जी कहने लगे, " हे भरत तुमने ऐसे मार्मिक दशा क्यों बना ली है? क्यों विलाप करते हुए वन में आये हो? तब भरत ने पिताजी के स्वर्गवास की बात बताई, तब प्रभु जी शोकाकुल हुए और गुरुजनो इत्यादि से शोक सभा और शांति विचार सुनकर धैर्य धारण किया,

तब भरत जी ने सभी गुरुजनो और मंत्रियो और प्रजा सहित श्री रामचंद्र जी को अयोध्या लौट चलने का आग्रह किया और राजयका भार संभाल कर सब को आनंदित करने को कहा, तब श्री राम जी ने शास्त्रोक्त बहुत सी बाते कहकर और सर्वोपरि पिताजी की आज्ञा -पालन का महत्व समझाया,की तुम राज्य ग्रहण करो भरत, परन्तु भरत को संतोष नही हो रहा है, उन्होंने कहा'" भगवन! आपकी बराबरी कौन कर सकता है? आपके लिए सुख-दुःख, मान-अपमान,निंदा-स्तुति-सब समान है,जिसको आपके जैसा ज्ञान है, वह संकट पड़ने पर भी विषाद नही करेगा,परन्तु मैं ऐसा नही हूँ, आप हम पर दया  कीजिये, और आप पुरुषो में श्रेष्ठ है, आपके चरणों में माथा टेककर यही प्रार्थना है की आप मेरा और मेरी माता का कलंक धोकर पूज्य पिताजी को भी निंदा से बचा लीजिये,भरत जी को ऐसा देखकर सभी पुरवासी, गुरु और माताओ ने सभी ने श्री रामचंद्र जी को लौटने के लिए प्रार्थना की, 


किन्तु श्रीराम ने फिर बहुत से न्याय और धर्म से युक वचन कहकर भरत को समझाया, किन्तु भरत भी नही मानने वाले थे और बोले जब तक प्रभु प्रसन्न नही होंगे मैं यही आपके सामने भूखा-प्यासा बैठा रहूँगा, तब श्री राम जी ने कहा भाई तुम्हारा ऐसा करना धर्म की विरुद्ध है, अतः ऐसा हठ त्याग दो, तब भरत कहते है की पिता आज्ञा के लिए वन में रहने जरूरी है तो आपके स्थान पर मैं वन में वास कर लेता हूँ, किन्तु श्री राम जी ने कहा ऐसा करने का हमारा अधिकार नही है, 

श्री राम जी कहते है की मैं जनता हूँ भरत बड़ा क्षमाशील और गुरुजनो का सत्कार करनेवाला है, इस सत्यप्रतिज्ञ महात्मा में सभी कल्याणकारी गुण विद्यमान है,जब चौदह वर्षो के बाद मैं लौटूंगा तो तुम्हारे साथ इस पृथ्वी का प्रमुख राजा बनूँगा,माता कैकयी ने पिताजी से जो वर माँगा मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया है, इसलिए भरत भाई! अब तुम मेरा वचन मानकर पिताजी के वचन को असत्य के बंधन से रहित कर दो, इस प्रकार दोनों भाइयो का अति प्रेमपूर्ण, नीतिसंगत संवाद सुनकर सभी अत्यंत खुश हुए और उनकी भूरि भूरि प्रसंशा की,

तब सभी महऋषियो ने भरत को श्री राम जी की बात मानने को समझाया किन्तु भरत जी को संतोष नही हो रहा था, तब उन्होंने कहा' " मैं किसी भी प्रकार राजीको सँभालने के लायक नही हूँ, आर्य! ये दो स्वर्णभूषित पादुकाएँ है, आप इनपर अपने चरण रखकर अनुग्रहित कीजिये, यही पादुकाएं सम्पूर्ण जगत के योगक्षेम का निर्वाह करेंगी, और जैसे ही चौदह वर्ष पूर्ण होंगे बिना विलम्ब के आपको मुझे दर्शन देना होगा यदि एक भी दिन का विलम्ब हुआ तो मैं अग्नि में प्रवेश कर लूंगा, तबतक आपका राज्य मेरे पास आप ही की धरोहर है और जब आप लौटकर इसे ग्रहण कर लेंगे तभी मुझे संतोष होगा,  कितना उत्तम भाव होगा भरत जी का, आज के युग में तो भाई भाई को लड़ते देखा जाता है हिस्सा पाने के लिए, जमीं-जायदाद हड़पने के लिए, किन्तु यह मिली हुयी सम्पत्ति भाई को भाई लौटाने के लिए संवाद करते है, 




भरत जी का त्याग इतना ही नही है, चरणपादुकाओं को श्री राम जी के स्थान पर स्थापित करके उनकी सेवा करना, चंवर डुलाना, राज-कार्य हेतु सब आज्ञा लेना, और जो भी राज्य का कार्य-भार था करने लगे, यही नही स्वयं वल्कल वस्त्र धारण करना, जमीन पर सोना,और कहि कहि यह भी लिखा है की भरत जी ने ऐसा व्रत किया था की चौदह वर्ष तह गाय के गोबर से निकले हुए अन्न के दाने को ही भोजन रूप ग्रहण करूँगा, इतना कठिन त्याग है भरत जी के जीवन में, इतना त्याग तो स्वयं श्री राम जी ने भी ही किया वन में रहकर, ऐसे महात्मा भाई को पाकर स्वयं श्री राम जी भी धन्य हो जाते है,   


अंत में भरतलाल जी के चरित्र का पठन करने के बाद यही कहने और समझना उचित होगा की परिवार में यदि भाइयो का प्रेम सुदृढ़ रहता है तो कोई भी दुःख किसी को तकलीफ नहीं दे सकता, भले ही कैकयी और मंथरा जैसे आसुरी प्रवृति के विचार करने वाले हमारे आस-पास कितने ही हो वह क्षणिक दुःख पहुंचा सकते है, किन्तु सुमित्रा मॉ के जैसे त्यागी लोग भी है जो निस्वार्थ अपने पुत्र लक्ष्मण को अपने भाई की सेवा के लिए त्याग देते हे, मांडवी जैसी त्यागशील पत्नी भी है और श्रुतकीर्ति जैसी त्यागिनी भी तो है, इसलिए परिवार की डोर को आपसी प्रेम, विशवास, त्याग और संयम से सींचना पड़ता है, तभी अयोध्या जैसा घर बनता है, उम्मीद करता हूँ मेरा यह लेख हम सब की जिंदगी में प्रेम को बढ़ाये और गृहस्थ जीवन को सुखमय बनाये,,  

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DIVINE LOVE: भ्राता- प्रेम और परिवारिक सम्बन्ध (श्री रामायण जी की दृष्टि से )
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