सुंदरकांड का आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण जैसा की संकट के समय, और दुःख में विपत्ति के समय हम सब को सुंदरकांड का पाठ क...
जैसा की संकट के समय, और दुःख में विपत्ति के समय हम सब को सुंदरकांड का पाठ करने को कहा जाता है, सुंदरकांड वह पाठ है जिसमे गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री हनुमंतलाल जी की अद्भुत शक्तियों, साहस, वीरता, सूझबूझता,धैर्य,बुद्धिमता,ज्ञान,सहनशीलता धरम-निति,कर्त्तव्यपरायणता आदि गुणों का एकसाथ वर्णन किया है,यही सभी गुण ऐसे है जो मनुष्य को विपत्ति के समय शक्ति प्रदान करते है,सबसे बड़ा गुण है भगवान् पर विशवास जैसे हनुमान जी को श्री राम जी पर पूर्ण भरोसा है और वह बड़ी से बड़ी विपत्ति को प्रभु के विशवास के भरोसे पार कर गए ऐसे ही मनुष्य को भगवान् पर विशवास रखना चाहिए, जैसे जैसे हम सुंदरकांड का अध्ययन करते जाते है,हमे भी साहस मिलता है संकटो से लड़ने का, हमारी बुद्धि को भी विश्वास होता जाता है, भगवान् पर,और स्वयं के भीतर की शक्तियों का, इसलिए सुंदरकांड का पाठ वास्तव में बहुत ही लाभकारी है, आइये कुछ चौपाइयों का पठन करते हुए हम इस विषय की गहराई को समझे,
सर्वप्रथम जांबवंत जी ने हनुमान जी को जो माया के कारण अपनी भीतरी शक्तियों को भूल गए थे याद करवाया की तुम बहुत शक्तिशाली हो, बचपन में तुमने सूर्य को सेब समझकर अपने मुख में ले लिया था,कितनी अद्भुत शक्तिया है तुम्हारे भीतर, उनका स्मरण करो और आगे बढ़ो,
" कहे रीछपति सुनु हनुमाना,का चुप्पी सिद्धि रहे बलवाना I
पवन तनय बल पवन समाना ,बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना I
कवन सौं काज कठिन जग माहि, जो नहीं होये तात तुम पाहि I
अर्थात हे ! हनुमान जी ऐसा कौन सा कार्य है जो आप नहीं कर सकते, आपके भीतर अपार शक्तियों का खजाना है, उन्हें याद करो और अपने कार्य के लिए तैयार हो जाओ,
ऐसे ही हमारे जीवन में अनेक ऐसे संदर्भ आते है, जब हम निराश हो जाते है, और कुछ भी न करने की स्थिति बना लेते है और दुखी मन से बैठ जाते है, तब हमे ऐसे ही अपने भीतर की शक्तियों का स्मरण करना चाहिए,और उन विपत्तियों से डरने की बजाए अडिग होकर लड़ने के लिए ततपर हो जाना चाहिए,
* सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर I
बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥
भावार्थ : समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान्जी खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान् हनुमान्जी उस पर से बड़े वेग से उछले, हनुमान जी सामने सौ योजन का भयंकर समुन्द्र एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में विध्यमान है किन्तु अपनी शक्तियों के उजागर होते ही वह तुरंत उसे लांघने को तैयार हो गए,
ऐसे ही हमारे जीवन में भी बहुत -सी समस्या विकराल रूप धारण कर आ जाती है किन्तु भगवान् का विश्वास और अपने आप पर भरोसा हमे सदैव कामयाबी दिला सकता है, जोकि हम उन समस्या से लड़ सकते है,बस हमे हिम्मत करके आगे बढ़ने को तत्पर रहना होगा,
* हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥
भावार्थ : हनुमान्जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा- भाई! श्री रामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ? अर्थात हनुमान जी अपने कार्य अपनी मंजिल को पाने में इतने तत्पर थे की बिना मंजिल को हासिल किये मुझे एक पल के आराम करने की भी इच्छा नहीं है, निर्बाध गति से मुझे आगे बढ़ना है,
जब हमारा मन मजबूत हो गया की हमे अपनी समस्या से लड़ना है तो जब तक जीत हासिल नहीं कर लेंगे तब तक ना कहि रुकेंगे और आगे ही आगे बढ़ते जाएंगे, कोई भी प्रलोभन, कोई भी बाधा हमे रोक नहीं सकती आगे बढ़ने से, इसलिए निरंतर आगे बढ़ते जाना है, स्वामी विवेकानंद जी का यह वाक्य भी यह स्मरण करना उचित लगता है की " उठो , जागो और रुको नहीं जबतक की अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच जाते",
* जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥5॥
भावार्थ : जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमान्जी उसका दूना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन (चार सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान्जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया॥5॥
* बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥6॥
भावार्थ : और उसके मुख में घुसकर (तुरंत) फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा माँगने लगे। (उसने कहा-) मैंने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था॥6॥
दोहा :
* राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥2॥
भावार्थ : तुम श्री रामचंद्रजी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान्जी हर्षित होकर चले॥2॥
समुन्द्र पार करना एक समस्या थी उसी के भीतर एक और समस्या सुरसा नामक राक्षसी प्रगट हो गयी, अर्थात समस्या के भीतर अनेक समस्याएं आ जाती है, हम अपने जीवन में भी देखते है की जब कोई दुःख आता है तो संग अनेक समस्याएं लेकर आता है,जैसे बीमारी की समस्या आयी तो साथ ही मानसिक समस्या, धन की समस्या, या निराशा रुपी अनेक छोटी छोटी समस्याएं साथ में आ जाती है, किन्तु जैसे बुद्धि के इस्तेमाल से हनुमान जी सुरसा जैसे समस्या से निकल गए, हम भी अगर थोड़ा बुद्धि का और चतुराई से काम ले तो ये समस्याएं शीघ्र शांत होने लगती है, इसलिए धैर्य को नहीं छोड़ना चाहिए और अडिग अबाध गति से लक्ष्य की और बढ़ते रहना है,
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥
भावार्थ : समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जंतु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर॥1॥
* गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान् कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥2॥
भावार्थ : उस परछाईं को पकड़ लेती थी, जिससे वे उड़ नहीं सकते थे (और जल में गिर पड़ते थे) इस प्रकार वह सदा आकाश में उड़ने वाले जीवों को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान्जी से भी किया। हनुमान्जी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया॥2॥
* ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥3॥
भावार्थ : पवनपुत्र धीरबुद्धि वीर श्री हनुमान्जी उसको मारकर समुद्र के पार गए। वहाँ जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी। मधु (पुष्प रस) के लोभ से भौंरे गुंजार कर रहे थे॥3॥
अभी एक समस्या गयी नहीं, की दूसरी आ गयी, किन्तु कोई बात नहीं जैसे पहली से निपट लिए दूसरी को भी निपटा लेंगे अर्थात धीरबुद्धि से कोई भी समस्या आएगी तो हम उसे लांघकर आगे बढ़ते जाएंगे, समस्या नहीं आएगी ऐसा नहीं है लकिन हम इतने धीर बुद्धि बन जाएंगे की आने दो समस्या कोई बात नहीं हम में भी तुझे लड़ने की ताकत है, हम में भी विशवास है स्वयं पर, यदि ऐसा विचार बन जाए तो समस्या खतम होने में देर नहीं लगती और मंजिल मिलने में भी कोई संशय नहीं रहता,
भावार्थ : नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान्जी ने मन में विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूँ और रात के समय नगर में प्रवेश करूँ॥3॥
अर्थात कई बार जीवन में बड़ी बड़ी समस्या आ जाती है, कई बार अपने स्वाभिमान को चोट पहुंचकर उन समस्या से लड़ना पड़ता है किन्तु कोई बात नहीं हमे अपने लक्ष्य को पाना है तो स्वयं को छोटा बना लेने में कोई हर्ज़ नहीं होता, झुककर भी जीता जाता है, हनुमान जी ने बड़े बड़े राक्षस लंका की रखवाली में देखे तो उनसे उलझने की बजाए उन्होंने स्वयं को छोटा बना लिए और आगे बढ़ गए, इसलिए कई बार स्वाभिमान त्याग कर समय को बचाते हुए, जो जरूरी नहीं है उन समस्याओ को नकारा जा सकता है और अपने प्रधान लक्ष्य की और बढ़ना ही बुद्धिमता है, इसका तातपर्य ऐसे भी हो सकता है की जब कोई विकट समस्या सामने है उसका हल नहीं हो रहा तो उसके प्रत्येक पहलु को समझकर उसे छोटे छोटे भाग में विभक्त करके भी उसे छोटा बनाकर सुलझाया जा सकता है,
भावार्थ : और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचंद्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया। तब हनुमान्जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान् का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया॥2॥
अर्थात यह बात है विश्वास की जैसे हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी आसरा लिया है हमे भी समस्याओ के लड़ते वक्त अपने इष्ट भगवान् को अवश्य स्मरण करना चाहिए, जिससे मानसिक शक्ति का विकास होता है, भरोसा एक ऐसी शक्ति है जो हारे को भी जीत में बदल देती है, इसलिए भगवान् का भरोसा, अपने भीतर की शक्तियों का विश्वास साथ रखकर आगे बढ़ते रहना है,
भावार्थ : उन्होंने (विभीषण ने) राम नाम का स्मरण (उच्चारण) किया। हनमान्जी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए। (हनुमान्जी ने विचार किया कि) इनसे हठ करके (अपनी ओर से ही) परिचय करूँगा, क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती। (प्रत्युत लाभ ही होता है)॥2॥
ऐसा नहीं है की दुःख आते है तो कोई सहायक नहीं मिलेगा, अवश्य ही कोई न कोई शुभचिंतक तो होगा ही, ऐसे समय में हमे धैर्य से किसी साधु समान व्यक्ति का अनुशरण करना चाहिए, जैसे हनुमान जी को विभीषण मिले ऐसे ही हमे भी कोई न कोई अवश्य मिल जाएगा जो हमारा थोड़ा भी मार्गदर्शन कर सकता है जो हमारे लिए बहुत ही लाभकारी हो जाता है लक्ष्यप्राप्ति के लिए, इसलिए सज्जन पुरुषो से मदद ली जा सकती है, और कोई सज्जन विशवास पात्र न मिले तो हमारे सद्ग्रन्थ जैसे गीता जी रामायण ऐसे भूमिका के रूप में हमारे पास है उन्ही का अनुशरण करके आगे बढ़ना चाहिए,
भावार्थ : हनुमान्जी वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूँ (इनका दुःख कैसे दूर करूँ)? उसी समय बहुत सी स्त्रियों को साथ लिए सज-धजकर रावण वहाँ आया॥1॥
यहाँ हनुमान्जी बहुत धैर्यशाली बन गए, अपनी मंजिल अर्थात सीता जी को सामने देखकर भी धैर्य नहीं खोया, उत्तेजित नहीं हुए और धैर्य से वही छिप कर सब देखते है की क्या कुछ हो रहा है? रावण के आने पर और सीता जी को चेतावनी देने पर भी क्रोध में आपा नहीं खो दिया,जैसे की अक्सर हम लोग करते है, जब मंजिल के पास होते है और कोई रुकावट आ जाती है तो हम अपना आपा खो देते है उसे पाने को झटपटाते है, नहीं उस समय ज्यादा धीरज से काम लेना होगा, नहीं तो हाथ आयी मंजिल और दूर हो जायेगी इसलिए यह हमे धैर्य की शिक्षा मिलती है,
भावार्थ:-हनुमान्जी के प्रेमयक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है॥13॥
अर्थात मंजिल मिल जाए तब भी अभिमान से फूलना नहीं चाहिए, अहम को पोषित न करके प्रेम रूप यंत्र से उसे सवीकार करना चाहिए, अन्यथा मिली हुयी मंजिल अभिमान के कारण हाथो से निकल जाती है, जैसे जानकी जी हनुमान को मिली लकिन उनके मन में संदेह था की ये कोई राक्षस तो नहीं है, किन्तु हनुमान जी ने प्रेम से उन्हें विश्वास दिलाया यदि वह गर्व करते की नहीं में राम जी का दूत हूँ, आपको मुझ पर विशवास करना होगा तो शायद सीता जी उनसे मुँह मोड़ लेती और कदापि विश्वास नहीं करती, इसलिए प्रेम रुपी साधन बड़ी बड़ी समस्याओ का हल होता है, कभी भी अभिमान को पोषित नहीं करना चाहिए,
भावार्थ:-अतः मेरे हृदय में बड़ा भारी संदेह होता है (कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे जीतेंगे!)। यह सुनकर हनुमान्जी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का (अत्यंत विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान् और वीर था॥4॥
भावार्थ:-तब (उसे देखकर) सीताजी के मन में विश्वास हुआ। हनुमान्जी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया॥5॥
कभी कभी जो लक्ष्य हम पाना चाहते है और पा भी ले तो ऐसा संदेह सम्भव है की क्या सही में हम उस लक्ष्य के योग्य है? जैसे सीता जी के मिलने पर भी हनुमान जी को अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ा और अपना विकराल रूप उन्हें विश्वास दिलाने के लिए करना पड़ा, किन्तु निरभिमानिता से वापस छोटे बन गए अर्थात जैसे थे वैसे ही सरल स्वभाव में स्थित हो गए, ऐसे ही जीवन में कई बार दुसरो को हमे अपना शक्ति प्रदर्शन कर देना चाहिए ताकि उन्हें विश्वास हो जाए की हम योग्य है किन्तु इस बात का अभिमान भी नहीं करना चाहिए, जैसे हनुमान जी जानते थे की वह सीता जी को बचा कर ले जा सकते है किन्तु उन्होंने ऐसा अभिमान नहीं दिखाया और केवल अपना लक्ष्य जोकि सीता जी का पता लगाने तक सिमित है वही किया, अतः विजय होने पर भी गर्व नहीं करना चाहिए बल्कि सरल हृदय से उसे स्वीकार करना चाहिए,
भावार्थ:-तब जिन्होंने मुझे मारा, उनको मैंने भी मारा। उस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझको बाँध लिया (किंतु), मुझे अपने बाँधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं है। मैं तो अपने प्रभु का कार्य करना चाहता हूँ॥3॥
भावार्थ:-हे रावण! मैं हाथ जोड़कर तुमसे विनती करता हूँ, तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो। तुम अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो और भ्रम को छोड़कर भक्त भयहारी भगवान् को भजो॥4॥
भावार्थ:-जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, वह काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है, उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकीजी को दे दो॥5॥
जब हनुमान जी को रावण के सामने प्रस्तुत किया गया तब भी उन्होंने धर्म-निति का साथ नहीं छोड़ा अर्थात विपत्ति के समय धर्म का आचरण नहीं छोड़ना चाहिए, हनुमंत लाल जी सर्व समर्थ है, परम शक्तिशाली है किन्तु लेश मात्र भी इस बात का अभिमान नहीं करते, रावण के प्रश्नो का धरम-निति से जवाब देते है की मैं न्यायपूर्वक अपने स्वामी की आज्ञा का पालन कर रहा हु, मैंने केवल उन्ही लोगो को दण्डित किया है जो मुझे मरना चाहते थे, अन्य किसी को कोई हानि नहीं पहुंचाई है, और आप को भी यही कहना चाहता हूँ की राम जी अत्यंत कोमल हृदय वाले है इसलिए वैर न करके माता जानकी उन्हें लौटा दीजिये, कहने का भाव यही है की हमारे जीवन में अनेक ऐसे क्षण आते है जब हम क्रोधित हो जाते है, तब हमे धर्म और निति से व्यवहार करना चाहिए,
भावार्थ:-यह वचन सुनते ही हनुमान्जी मन में मुस्कुराए (और मन ही मन बोले कि) मैं जान गया, सरस्वतीजी (इसे ऐसी बुद्धि देने में) सहायक हुई हैं। रावण के वचन सुनकर मूर्ख राक्षस वही (पूँछ में आग लगाने की) तैयारी करने लगे॥2॥
भावार्थ:-(पूँछ के लपेटने में इतना कपड़ा और घी-तेल लगा कि) नगर में कपड़ा, घी और तेल नहीं रह गया। हनुमान्जी ने ऐसा खेल किया कि पूँछ बढ़ गई (लंबी हो गई)। नगरवासी लोग तमाशा देखने आए। वे हनुमान्जी को पैर से ठोकर मारते हैं और उनकी हँसी करते हैं॥3॥
जब विशवास अडिग हो तो परिस्थितिया भी सहायक होने लगती है, हनुमान जी मृत्यु के समीप भरी सभा में राक्षसों के मध्य निडर खड़े है क्योंकि उनका विश्वास पूर्ण है, जैसे ही उनकी पूंछ में आग लगाने का निर्णय हुआ तो वह खुश थे की शायद इनके मान-मर्दन के लिए भगवान् सहायक हो गए है, वरना मैं कहाँ से अग्नि लाता इन सबका इंतजाम इन्होने स्वयं कर दिया है, ऐसे ही विपत्ति के समय यदि हमारा विश्वास नहीं डगमगाता और हम सद्बुद्धि से भगवान् का आसरा लेते है अर्थात सकारात्मक विचारो को सोचते है तो प्रकर्ति अर्थात प्रभु भी हमारे सहायक बन जाते है, जैसे की हनुमान जी के साथ हुआ,
भावार्थ:-हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान् ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। तब जाम्बवान् ने हनुमान्जी के सुंदर चरित्र (कार्य) श्री रघुनाथजी को सुनाए॥3॥
हनुमान जी को अपनी मंजिल मिल गयी थी ,सीता जी की खबर, अब वह राम जी के पास लौटे तो सभी ने उनकी भूरि- भूरि प्रशंसा की, अर्थात जीवन में जब हम अपनी मंजिल हासिल कर लेते है, तो सभी हमारे सहायक हो जाते है, जैसे सामाजिक लोग, घर परिवार के सदस्य इत्यादि किन्तु हमे सभी से प्रेम करना चाहिए, निरभिमानिता के साथ, जैसे हनुमान जी अपनी सारी जीत का श्रेय श्री राम जी को अर्पण कर देता है,
*पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥3॥
अर्थात कई बार जीवन में बड़ी बड़ी समस्या आ जाती है, कई बार अपने स्वाभिमान को चोट पहुंचकर उन समस्या से लड़ना पड़ता है किन्तु कोई बात नहीं हमे अपने लक्ष्य को पाना है तो स्वयं को छोटा बना लेने में कोई हर्ज़ नहीं होता, झुककर भी जीता जाता है, हनुमान जी ने बड़े बड़े राक्षस लंका की रखवाली में देखे तो उनसे उलझने की बजाए उन्होंने स्वयं को छोटा बना लिए और आगे बढ़ गए, इसलिए कई बार स्वाभिमान त्याग कर समय को बचाते हुए, जो जरूरी नहीं है उन समस्याओ को नकारा जा सकता है और अपने प्रधान लक्ष्य की और बढ़ना ही बुद्धिमता है, इसका तातपर्य ऐसे भी हो सकता है की जब कोई विकट समस्या सामने है उसका हल नहीं हो रहा तो उसके प्रत्येक पहलु को समझकर उसे छोटे छोटे भाग में विभक्त करके भी उसे छोटा बनाकर सुलझाया जा सकता है,
* प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥1॥
भावार्थ : अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है॥1॥
* गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥2॥
अर्थात यह बात है विश्वास की जैसे हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी आसरा लिया है हमे भी समस्याओ के लड़ते वक्त अपने इष्ट भगवान् को अवश्य स्मरण करना चाहिए, जिससे मानसिक शक्ति का विकास होता है, भरोसा एक ऐसी शक्ति है जो हारे को भी जीत में बदल देती है, इसलिए भगवान् का भरोसा, अपने भीतर की शक्तियों का विश्वास साथ रखकर आगे बढ़ते रहना है,
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥
ऐसा नहीं है की दुःख आते है तो कोई सहायक नहीं मिलेगा, अवश्य ही कोई न कोई शुभचिंतक तो होगा ही, ऐसे समय में हमे धैर्य से किसी साधु समान व्यक्ति का अनुशरण करना चाहिए, जैसे हनुमान जी को विभीषण मिले ऐसे ही हमे भी कोई न कोई अवश्य मिल जाएगा जो हमारा थोड़ा भी मार्गदर्शन कर सकता है जो हमारे लिए बहुत ही लाभकारी हो जाता है लक्ष्यप्राप्ति के लिए, इसलिए सज्जन पुरुषो से मदद ली जा सकती है, और कोई सज्जन विशवास पात्र न मिले तो हमारे सद्ग्रन्थ जैसे गीता जी रामायण ऐसे भूमिका के रूप में हमारे पास है उन्ही का अनुशरण करके आगे बढ़ना चाहिए,
* तरु पल्लव महँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा॥1॥
यहाँ हनुमान्जी बहुत धैर्यशाली बन गए, अपनी मंजिल अर्थात सीता जी को सामने देखकर भी धैर्य नहीं खोया, उत्तेजित नहीं हुए और धैर्य से वही छिप कर सब देखते है की क्या कुछ हो रहा है? रावण के आने पर और सीता जी को चेतावनी देने पर भी क्रोध में आपा नहीं खो दिया,जैसे की अक्सर हम लोग करते है, जब मंजिल के पास होते है और कोई रुकावट आ जाती है तो हम अपना आपा खो देते है उसे पाने को झटपटाते है, नहीं उस समय ज्यादा धीरज से काम लेना होगा, नहीं तो हाथ आयी मंजिल और दूर हो जायेगी इसलिए यह हमे धैर्य की शिक्षा मिलती है,
* कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥13॥
अर्थात मंजिल मिल जाए तब भी अभिमान से फूलना नहीं चाहिए, अहम को पोषित न करके प्रेम रूप यंत्र से उसे सवीकार करना चाहिए, अन्यथा मिली हुयी मंजिल अभिमान के कारण हाथो से निकल जाती है, जैसे जानकी जी हनुमान को मिली लकिन उनके मन में संदेह था की ये कोई राक्षस तो नहीं है, किन्तु हनुमान जी ने प्रेम से उन्हें विश्वास दिलाया यदि वह गर्व करते की नहीं में राम जी का दूत हूँ, आपको मुझ पर विशवास करना होगा तो शायद सीता जी उनसे मुँह मोड़ लेती और कदापि विश्वास नहीं करती, इसलिए प्रेम रुपी साधन बड़ी बड़ी समस्याओ का हल होता है, कभी भी अभिमान को पोषित नहीं करना चाहिए,
* मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा॥4॥
* सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥5॥
कभी कभी जो लक्ष्य हम पाना चाहते है और पा भी ले तो ऐसा संदेह सम्भव है की क्या सही में हम उस लक्ष्य के योग्य है? जैसे सीता जी के मिलने पर भी हनुमान जी को अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ा और अपना विकराल रूप उन्हें विश्वास दिलाने के लिए करना पड़ा, किन्तु निरभिमानिता से वापस छोटे बन गए अर्थात जैसे थे वैसे ही सरल स्वभाव में स्थित हो गए, ऐसे ही जीवन में कई बार दुसरो को हमे अपना शक्ति प्रदर्शन कर देना चाहिए ताकि उन्हें विश्वास हो जाए की हम योग्य है किन्तु इस बात का अभिमान भी नहीं करना चाहिए, जैसे हनुमान जी जानते थे की वह सीता जी को बचा कर ले जा सकते है किन्तु उन्होंने ऐसा अभिमान नहीं दिखाया और केवल अपना लक्ष्य जोकि सीता जी का पता लगाने तक सिमित है वही किया, अतः विजय होने पर भी गर्व नहीं करना चाहिए बल्कि सरल हृदय से उसे स्वीकार करना चाहिए,
*जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥3॥
*बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥4॥
* जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै॥5॥
जब हनुमान जी को रावण के सामने प्रस्तुत किया गया तब भी उन्होंने धर्म-निति का साथ नहीं छोड़ा अर्थात विपत्ति के समय धर्म का आचरण नहीं छोड़ना चाहिए, हनुमंत लाल जी सर्व समर्थ है, परम शक्तिशाली है किन्तु लेश मात्र भी इस बात का अभिमान नहीं करते, रावण के प्रश्नो का धरम-निति से जवाब देते है की मैं न्यायपूर्वक अपने स्वामी की आज्ञा का पालन कर रहा हु, मैंने केवल उन्ही लोगो को दण्डित किया है जो मुझे मरना चाहते थे, अन्य किसी को कोई हानि नहीं पहुंचाई है, और आप को भी यही कहना चाहता हूँ की राम जी अत्यंत कोमल हृदय वाले है इसलिए वैर न करके माता जानकी उन्हें लौटा दीजिये, कहने का भाव यही है की हमारे जीवन में अनेक ऐसे क्षण आते है जब हम क्रोधित हो जाते है, तब हमे धर्म और निति से व्यवहार करना चाहिए,
* बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥2॥
* रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥3॥
जब विशवास अडिग हो तो परिस्थितिया भी सहायक होने लगती है, हनुमान जी मृत्यु के समीप भरी सभा में राक्षसों के मध्य निडर खड़े है क्योंकि उनका विश्वास पूर्ण है, जैसे ही उनकी पूंछ में आग लगाने का निर्णय हुआ तो वह खुश थे की शायद इनके मान-मर्दन के लिए भगवान् सहायक हो गए है, वरना मैं कहाँ से अग्नि लाता इन सबका इंतजाम इन्होने स्वयं कर दिया है, ऐसे ही विपत्ति के समय यदि हमारा विश्वास नहीं डगमगाता और हम सद्बुद्धि से भगवान् का आसरा लेते है अर्थात सकारात्मक विचारो को सोचते है तो प्रकर्ति अर्थात प्रभु भी हमारे सहायक बन जाते है, जैसे की हनुमान जी के साथ हुआ,
* नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥3॥
हनुमान जी को अपनी मंजिल मिल गयी थी ,सीता जी की खबर, अब वह राम जी के पास लौटे तो सभी ने उनकी भूरि- भूरि प्रशंसा की, अर्थात जीवन में जब हम अपनी मंजिल हासिल कर लेते है, तो सभी हमारे सहायक हो जाते है, जैसे सामाजिक लोग, घर परिवार के सदस्य इत्यादि किन्तु हमे सभी से प्रेम करना चाहिए, निरभिमानिता के साथ, जैसे हनुमान जी अपनी सारी जीत का श्रेय श्री राम जी को अर्पण कर देता है,
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