Home Vikas Aggarwal Gopi Geet गोपी गीत : द्वितीय श्लोक (आत्मभाव) गोपी गीत श्लोक अर्थ भावार्थ द्वितीय श्लोक गोपी गीत डा...
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गोपी गीत द्वितीय श्लोक(सभावार्थ)
शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥2॥
-भावार्थ-
हे हृदयेश्वर हमारे प्राणधन ! हमारे हृदय में केवल आप ही निवास करते है,आप हमारे हृदय के स्वामी है, आप ही ने अपने नेत्र कटाक्षो से हमारा वध किया है,आपके नेत्र इतने नुकीले और घायल करने वाले है की हमारा हृदय इसकी पैनी धार से विदीर्ण अर्थात चिर गया है एक तो आपके विरह की वेदना ऊपर से इन नेत्रो द्वारा हृदय के विदीर्ण होने की पीड़ा हम तो मर ही जाएंगी केशव,केवल अश्त्रों शस्त्रो से मारना ही मारना नही होता है नेत्रो का मारण भी मृत्यु की पीड़ा देता है,
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यह जो आपके नेत्र है जैसे शरद ऋतू के चंदमा की मनोहारी चांदनी की शोभा जैसे किसी सूंदर सरोवर पर दृश्यमान होकर उर सरोवर को अति आलोकिक बना देती है अर्थात बहुत दिव्य बना देती है ऐसेही यह आपके नेत्रो की सोभा की चांदनी से हमारा वक्ष स्थल विदीर्ण हो गया है, हम आपके बिना तड़प रही है कहि हमारे प्राणपखेरु उड़ नही जाए,हम आपके नेत्रो को जोकि अपनी सुंदरता से किसी को भी घायल कर देते है उन नेत्रों के दर्शन चाहती है,
हम सब आपके चरणों की दासी है और कोई शुल्क भी नही लेती अर्थात हम बिन मोल बिकानी है आपकी सेवा के लिए, हमे कोई उपहार या पारितोषिक नही चाहिए हम तो केवल आपके दर्शनों की प्यासी है, हम आपके नेत्रो की सुंदरता का आनंद लेना चाहती है हमे और कुछ भी प्रलोभन नही है,
प्यारे दरसन दीज्यो आय, तुम बिन रह्यो न जाय॥
जल बिन कमल, चंद बिन रजनी। ऐसे तुम देख्यां बिन सजनी॥
आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन, बिरह कलेजो खाय॥
दिवस न भूख, नींद नहिं रैना, मुख सूं कथत न आवै बैना॥
कहा कहूं कछु कहत न आवै, मिलकर तपत बुझाय॥
क्यूं तरसावो अंतरजामी, आय मिलो किरपाकर स्वामी॥
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