ईश्वर भक्त संत मलूकदास कर्मयोगी संत मलूकदास जी महाराज का जन्म उत्तरप्रदेश के कौशांबी जिले के ग्राम कड़ा माणिकपुर में वैश...
ईश्वर भक्त संत मलूकदास
कर्मयोगी संत मलूकदास जी महाराज का
जन्म उत्तरप्रदेश के कौशांबी जिले के ग्राम कड़ा माणिकपुर में वैशाख कृष्ण पंचमी
(गुरुवार) को हुआ था। उनमें बाल्यावस्था में ही कविता लिखने का गुण विकसित हो चुका
था। उन्होंने जो भी शिक्षा प्राप्त की, वह स्वाध्याय, सत्संग व भ्रमण के द्वारा
प्राप्त की।
महाराजश्री कर्मयोगी संत थे। वह जाति-पाति के घोर विरोधी थे। उनकी वाणी अत्यंत सिद्ध होने के साथ-साथ वे त्रिकालदर्शी भी थे। उन्होंने समूचे देश में भ्रमण करते हुए वैष्णवता और रसोपासना का प्रचार-प्रसार किया। हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही उनके शिष्य थे।
महाराजश्री कर्मयोगी संत थे। वह जाति-पाति के घोर विरोधी थे। उनकी वाणी अत्यंत सिद्ध होने के साथ-साथ वे त्रिकालदर्शी भी थे। उन्होंने समूचे देश में भ्रमण करते हुए वैष्णवता और रसोपासना का प्रचार-प्रसार किया। हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही उनके शिष्य थे।
अब तेरी सरन आयो राम॥१॥
जबै सुनियो साधके मुख, पतित पावन नाम॥२॥
यही जान पुकार कीन्ही अति सतायो काम॥३॥
बिषयसेती भयो आजिज कह मलूक गुलाम॥४॥
आचार्य मलूकदास के पास सत्संग हेतु लोगों का तांता लगा रहता था। संत
तुलसीदास तक ने कई दिनों तक उनका आतिथ्य स्वीकार किया था। मुगल शासक औरंगजेब भी
उनके सत्संग से अत्यंत प्रभावित था। एक किंवदंती के अनुसार भगवान श्रीराम ने
उन्हें साक्षात दर्शन दिए थे।
गरब न कीजै बावरे, हरि गरब प्रहारी।
गरबहितें रावन गया, पाया दुख भारी॥१॥
जरन खुदी रघुनाथके, मन नाहिं सुहाती।
जाके जिय अभिमान है, ताकि तोरत छाती॥२॥
एक दया और दीनता, ले रहिये भाई।
चरन गहौ जाय साधके रीझै रघुराई॥३॥
यही बड़ा उपदेस है, पर द्रोह न करिये।
कह मलूक हरि सुमिरिके, भौसागर तरिये॥४॥
ऐसा माना जाता है।
शुरू में संत मलूकदास नास्तिक थे। उन्हीं दिनों की
बात है, उनके गांव में एक साधु आकर टिक गया। प्रतिदिन सुबह-शाम गांववाले साधु का
दर्शन करते और उनसे रामायण सुनते। एक दिन मलूकदास भी पहुंचे। उस समय साधु
ग्रामीणों को राम की महिमा बता रहा था, 'राम दुनिया के सबसे बड़े दाता है। वे भूखों
को अन्न, नंगों को वस्त्र और आश्रयहीनों को आश्रय देते हैं।' साधु की बात मलूकदास
के पल्ले नहीं पड़ी। उन्होंने तर्क पेश किया- 'क्षमा करे महात्मन! यदि मैं चुपचाप
बैठकर राम का नाम लूं, काम न करूं, तब भी क्या राम भोजन देंगे?'
यदि मैं घनघोर जंगल में अकेला बैठ जाऊं, तब?
तब भी राम भोजन देंगे! साधु ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया।
बात मलूकदास को लग गई। पहुंच गए जंगल में और एक घने पेड़ के ऊपर
चढ़कर बैठ गए। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पेड़ थे। कंटीली झाड़ियां थीं। जंगल दूर-दूर तक
फैला हुआ था। धीरे-धीरे खिसकता हुआ सूर्य पश्चिम की पहाड़ियों के पीछे छुप गया।
चारों तरफ अंधेरा फैल गया। मगर न मलूकदास को भोजन मिला, न वे पेड़ से ही उतरे। सारी
रात बैठे रहे।
दूसरे दिन दूसरे पहर घोर सन्नाटे में मलूकदास को घोड़ों की टापों
की आवाज सुनाई पड़ी। वे सतर्क होकर बैठ गए। थोड़ी देर में चमकदार पोशाकों में कुछ
राजकीय अधिकारी उधर आते हुए दिखे। वे सब उसी पेड़ तले घोड़ों से उतर पड़े। लेकिन ठीक
उसी समय जब एक अधिकारी थैले से भोजन का डिब्बा निकाल रहा था, शेर की जबर्दस्त दहाड़
सुनाई पड़ी। दहाड़ का सुनना था कि घोड़े बिदककर भाग गए। अधिकारियों ने पहले तो स्तब्ध
होकर एक-दूसरे को देखा, फिर भोजन छोड़कर वे भी भाग गए। मलूकदास पेड़ से ये सब देख
रहे थे। वे शेर की प्रतीक्षा करने लगे। मगर दहाड़ता हुआ शेर दूसरी तरफ चला गया।
तीसरे पहर के लगभग डाकुओं का एक दल उधर से गुजरा। पेड़ के नीचे
चमकदार चांदी के बर्तनों में विभिन्न व्यंजनों के रूप में पड़े हुए भोजन को देखकर
वे ठिठक गए। डाकुओं के सरदार ने कहा,- भगवान की लीला देखो, हम लोग भूखे हैं और इस
निर्जन वन में सुंदर डिब्बों में भोजन रखा है। आओ, पहले इससे निपट लें।
डाकू स्वभावतः शकी होते हैं। एक साथी ने सावधान किया, मगर
सरदार, इस सुनसान जंगल में भोजन का मिलना मुझे तो रहस्यमय लग रहा है। कहीं इसमें
विष न हो। तब तो भोजन लाने वाला आसपास ही कहीं छिपा होगा। पहले उसे तलाशा जाए।
सरदार ने आदेश दिया। डाकू इधर-उधर बिखरने लगे। तभी एक डाकू की नजर मलूकदास पर पड़ी।
उसने सरदार को बताया। सरदार ने सिर उठाकर मलूकदास को देखा तो उसकी आंखें अंगारों
की तरह लाल हो गईं। उसने घुड़ककर कहा,- दुष्ट! भोजन में विष मिलाकर तू ऊपर बैठा है!
चल उतर। सरदार की कड़कती आवाज सुनकर मलूकदास डर गए मगर उतरे नहीं। वहीं से बोले,
व्यर्थ दोष क्यों मंढ़ते हो? भोजन में विष नहीं है।
यह झूठा है -सरदार ने एक साथी से कहा, पहले पेड़ पर चढ़कर इसे
भोजन कराओ। झूठ-सच का पता अभी चल जाता है।
आनन-फानन में तीन-चार डाकू भोजन का डिब्बा उठाए पेड़ पर चढ़ गए और
छुरा दिखाकर मलूकदास को खाने के लिए विवश कर दिया। मलूकदास ने भोजन कर लिया। फिर
नीचे उतरकर डाकुओं को पूरा किस्सा सुनाया। डाकुओं ने उन्हें छोड़ दिया। इस घटना के
बाद मलूकदास पक्के ईश्वर के भक्त हो गए। गांव पहुंचकर मलूकदास ने सर्वप्रथम पुजारी को धन्यवाद दिया। वे सोचने लगे, 'जिसने मुझे मारकर भी खिलाया, अब उस सर्वसमर्थ की मैं खोज करूँगा।'
अब तेरी सरन आयो राम॥१॥
जबै सुनियो साधके मुख, पतित पावन नाम॥२॥
यही जान पुकार कीन्ही अति सतायो काम॥३॥
बिषयसेती भयो आजिज कह मलूक गुलाम॥४॥
फिर तो उनके दर्शन से कइयों का जीवन बदला। उनके सत्संग से कइयों की वृत्तियाँ बदलीं, कई उजड़े दिल चमन हुए। उनका सान्निध्य पाकर कई गुमराह लोग अच्छी राह पर चल पड़े, हजारों लाखों लोग तर गये।
अब तो अजपा जपु मन मेरे .
सुर नर असुर टहलुआ जाके मुनि गंधर्व हैं जाके चेरे.
दस औतार देखि मत भूलौ, ऐसे रूप घनेरे.
अलख पुरुष के हाथ बिकने जब तैं नैननि हेरे .
कह मलूक तू चेत अचेता काल न आवै नेरे .
नाम हमारा खाक है, हम खाकी बंदे .
खाकहि से पैदा किये अति गाफिल गंदे
वे 108 वर्ष की उम्र तक जिये। संवत 1739 में जब वे संसार से जा रहे थे तो उन्होंने भक्तों से कहा कि "भगवान जगन्नाथ को स्नान कराने पर पनाली में से जहाँ जल नीचे गिरता है, वहाँ मेरी समाधि बनाना और जगन्नाथजी को भोग लगाने के लिए रोटी बनाने हेतु जो आटा गूँथा जाता है, उसमें से बचे हुए आटे का एक मोटा रोट बनाकर इस दास को भोग लगा देना।"
तेरा, मैं दीदार-दीवाना।
घड़ी घड़ी तुझे देखा चाहूँ, सुन साहेबा रहमाना॥
हुआ अलमस्त खबर नहिं तनकी, पीया प्रेम-पियाला।
ठाढ़ होऊँ तो गिरगिर परता, तेरे रँग मतवाला॥
खड़ा रहूँ दरबार तुम्हारे, ज्यों घरका बंदाजादा।
नेकीकी कुलाह सिर दिये, गले पैरहन साजा॥
तौजी और निमाज न जानूँ, ना जानूँ धरि रोजा।
बाँग जिकर तबहीसे बिसरी, जबसे यह दिल खोज॥
कह मलूक अब कजा न करिहौं, दिलहीसों दिल लाया।
मक्का हज्ज हियेमें देखा, पूरा मुरसिद पाया॥
भक्तों की हिम्मत नहीं हुई कि जगन्नाथपुरी में ऐसी व्यवस्था करवा दें, इसलिए उन्होंने एक बक्से में महाराज का शरीर रखकर दरिया में जलदेवता को अर्पण कर दिया। परंतु वह बक्सा तैरता हुआ किनारे आ गया और किसी को प्रेरणा हुई व जैसा मलूकदास जी चाहते थे वैसी ही व्यवस्था हो गयी। आज मलूकदासजी की समाधि भगवान जगन्नाथ के मंदिर के दक्षिण द्वार पर स्थित है और भगवान जगन्नाथ को भोग लगाने के लिए जो आटा गूँथा जाता है उसमें से बचे हुए आटे का रोट बनता है और उसी का मलूकदास जी को भोग लगाया जाता है।
जीवात्मा परमात्मा का सनातन अंश है। वह अगर उस परमात्मा का आश्रय लेकर कुछ ठान लेता है तो प्रकृति उसकी अवश्य मदद करती है। उसे पूरा किये बिना नहीं रहती, फिर चाहे निमित्त किसे भी बनाये।
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