"कृष्ण केवल नाम ही पर्याप्त है" कृष्ण को क्या व्यापारी समझ लिया है? कि रुपया दे दो, कुछ मांग लो, नारियल बाँध दो, धागा बाँध ...
"कृष्ण केवल नाम ही पर्याप्त है" कृष्ण को क्या व्यापारी समझ लिया है? कि रुपया दे दो, कुछ मांग लो, नारियल बाँध दो, धागा बाँध दो, मांग लो, स्वर्ण का छत्र चढ़ा दो, क्यों? कृष्ण दुकान खोलकर बैठा है, क्या? की मांग लो, कृष्ण को कभी समझने की कोशिश किया, क्या है वह ? हम अपने रिश्तेदार से मांगने जाते है, किसी धनाढ्य के मदद मांगते है, तो वह क्या करता है? पहले तो तुम पर हँसता है, की मुर्ख हो, तुमने सब कुछ गवा दिया, फिर अगर मदद करेगा भी तो तुम्हारे जमीर को चोट पहुंचकर कुछ कर देगा, हाँ भई मैंने तुम्हे इतने रूपये दिए है, मैंने तुम्हारा इलाज करवा दिया, दस - बीस लोगो को भी सुना देगा, की देखो बेचारा कितना लाचार हो गया, मैंने इसकी मदद कर दी है, ऐसा मांगना और ऐसा देना दोनों ही व्यर्थ है,
देना है तो कृष्ण की जैसा दो, मांगना है तो सुदामा के जैसे माँगो की कुछ न होते हुए भी कभी कुछ माँगा ही नहीं, कितना दरिद्र, कितना लाचार, बेबस किन्तु कभी कृष्ण को मांगने के लिए प्रेम किया ही नहीं, क्या वह नहीं जनता की उसका मित्र कितना बड़ा सम्राट है? क्या कुछ नहीं कर सकता उसके लिए? किन्तु नहीं, कभी नहीं माँगा, और कभी कृष्ण के प्रेम का भी परित्याग नहीं किया,
भले ही पत्नी के आग्रह पर या कहने पर श्री कृष्ण की द्वारका चले गए, किन्तु माँगा तब भी नहीं कुछ, कृष्ण द्वारिकानाथ ने बहुत सत्कार किया, बहुत मान -सम्मान, इतना की लोटे के जल को छुआ नहीं अश्रु जल से उस दरिद्र सुदामा के पग प्रक्षालन किया,
"देख दशा दीन सुदामा की, करूणानिधि करुणा कर के रोये,पात्र जल छुआ नहीं, अश्रु जल से पग धोये",
बहुत सम्मान किया और सेवा किया, जब सुदामा चलने लगे तो कहने लगे, भाई ये जो मेरे दिए वस्त्र, आभूषण धारण किये है, निकाल कर वापिस कर दो, जैसे आये हो, वही अपने वस्त्र पहिन लो, अरे ! त्रिलोकी के नाथ, इतने बड़े धनाढ्य पुरुष ऐसा बोल रहे है, रुक्मणि आदि रानियाँ भी चकित, नाथ ! ये क्या कह रहे हो? कृष्ण कहते है, तुम अपने कार्य से मतलब रखो, यह मेरे और मेरे मित्र की बात है, सुदामा भी थोड़ा सोचते है, ये क्या लीला कर रहे है, कृष्ण या ये भी केवल दिखावा कर रहे है, किन्तु सुदामा परम् संतोषी भक्त भी है, कृष्ण के गुरु भाई भी है, चले विदा होकर जैसे आये वैसे ही चल रहे है,
महलो से बाहर. गलियों-कुच्छो से बाहर द्वारिका के बीच से, द्वारिका के लोग देखते है, द्वारपाल देखते है, अरे! ये कौन अतिथि आया है? द्वारिका में, जब आया था, तो हमे हैरान कर दिया की मैं द्वारिकानाथ का मित्र हूँ, यह बतलाकर, और अब जा रहा है तो जैसी दीन- हीन दशा में आया था, वैसे ही लौट रहा है, हमने तो आजतक कितने लोग, रिश्तेदार, सगे सम्बन्धी देखे जो ऐसे हाल आये और द्वारिकानाथ से भर भर कर धन दौलत ले गए, ये कौन महान व्यक्ति है जो जैसे आया वैसे जा रहा है, सब उसे देख कर प्रणाम कर रहे है, पाँव छू रहे है, कहते है आप धन्य है, आप कौन है जिसे कोई लोभ नहीं? आप को हम सब प्रणाम करते है,
यह सब देखकर सुदामा अश्रुपात करता है, की मेरे कन्हैया ! तेरी लीला समझ गया, आज यदि एक पीतांबर भी मैंने तेरे द्वार से ले लिया होता, तो यह सब मेरे पाँव में नहीं लोटते, यह सब तुमने मेरे मान-सम्मान के लिए ही किया है, तुम देना तो जानते हो, किन्तु कब, कैसे देना है? यब भी जानते हो, तुम कभी किसी को गिराकर, या निचा दिखा कर नहीं देते, सुदामा को कृष्ण ने दो लोक की संपत्ति दे दी, झोपड़े की जगह महल बन गए, किन्तु सुदामा को जताया नहीं, दुनिया को बताया नहीं, और सुदामा भी कम नहीं, भले ही कृष्ण देने में कम न हो, किन्तु सुदामा ने अपनी कुटिया उसी वृक्ष के नीचे बनाई जहा सदैव कृष्ण नाम जप करते है, वही रहते है, वही प्रेम है,
हम कृष्ण से मांगते है, कैसे गिरकर ? किन्तु कृष्ण गिराकर देने वाले नहीं है, क्योंकि गिराकर देना, नीचा दिखाकर देना दुनिया वालो का काम है, कृष्ण तो अपने भक्तो को उठाकर रखता है, कभी गिरने नहीं देता, कभी भिखारी नहीं बनाता, बल्कि अपने प्रेम में रंगकर प्रेमी बनाता है,
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