श्रीराधामाधव नित्य निरन्तर- महाभाव स्वरूप श्रीराधामाधव नित्य निरन्तर महाभाव स्वरूप दोनों एक ही है,जैसे गंगा की लहरे गंगा का ही स्व...
श्रीराधामाधव नित्य निरन्तर- महाभाव स्वरूप
श्रीराधामाधव नित्य निरन्तर महाभाव स्वरूप दोनों एक ही है,जैसे गंगा की लहरे गंगा का ही स्वरूप है, एक ही है किन्तु फिर भी विलग दृष्टिगोचर होती है किन्तु विलुप्त होने पर एक ही गंगा जी है, ऐसे ही लीला की दृष्टि से दो रूप धारण कर राधाजी और माधव जी अलग अलग दृष्टिगोचर होते है, केवल लीलामृत और भक्तो के आनंद के लिए ऐसा होता है,श्रीकृष्ण आकृष्ट हैं- प्रेम के प्रति अर्थात श्रीराधा जी प्रेम स्वरूपा है; और श्रीराधा आकृष्ट हैं-रस के प्रति! श्री कृष्ण है रसराज अर्थात रसरूप,प्रेम और रस के मिलन से ही आनंद की उत्पत्ति होती है और श्रीराधामाधव का मिलन नित्यनिरन्तर होने पर ही आनंदस्वरूप हो जाते है, इनकी यह प्रेम-रसमयी अन्तरंग-स्वरूपभूता लीला ही श्रीराधा-माधव का नित्य विलास-विहार है। इसमें सर्वदा सर्वत्र केवल पवित्रतम, प्राकृत जगत से अतीत माधुर्य-ही-माधुर्य है। श्रीकृष्ण की आत्मा श्रीराधाजी है और राधिका जी की आत्मा श्रीकृष्ण हैं। दोनों में लेशमात्र भी अन्तर नहीं है।
भगवान श्रीकृष्ण के अन्तर्धान हो जाने पर वियोग-दुःख-कातरा रानियाँ कालिन्दी-यमुना जी के तट पर आती हैं और कालिन्दी की अधिष्ठात्री-देवी को मूर्तिमती तथा प्रफुल्लित देखकर पूछती हैं-‘जैसे हम श्रीकृष्ण की धर्मपत्नियाँ हैं, वैसे ही तुम भी हो; हम विरहाग्नि में जली जा रही हैं, पर तुम प्रसन्न दीखती हो। कल्याणि! इसका कारण बताओ।’ रानियों की यह बात सुनकर यमुनाजी हँस पड़ीं; फिर प्रियतम की पत्नि होने के नाते उन्हें अपनी ही बहन मानकर उनके दुःख से द्रवित होकर बोलीं-
आत्मारामस्य कृष्णस्य धु्रवमात्मास्ति राधिका।
तस्या दास्यप्रभावेण विरहोऽस्मान् न संस्पृशेत्।।
तस्या एवांशविस्ताराः सर्वाः श्रीकृष्णनायिकाः।
नित्यसंयोग एवास्ति तस्याः साम्मुख्ययोगतः।।
स एव सा स सैवास्ति वंशी तत्प्रेमरूपिका।[1]
“आत्मा में ही रमण करने के कारण भगवान श्रीकृष्ण ‘आत्माराम’ हैं और उनकी आत्मा हैं- श्रीराधा जी। मैं दासी की तरह श्रीराधा की सेवा करती रहती हूँ। उनकी सेवा के प्रभाव से भगवान का विरह मुझे स्पर्श नहीं करता। भगवान की जितनी भी रानियाँ हैं, सब श्रीराधा के ही अंश का विस्तार हैं। भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा सदा एक-दूसरे के सम्मुख हैं, उनका परस्पर नित्य संयोग है; इसलिये राधा के स्वरूप में अंशतः विद्यमान श्रीकृष्ण की अन्य रानियों को भी भगवान का संयोग प्राप्त है (इस बात को वे जानतीं नहीं)।श्रीकृष्ण ही राधा हैं और राधा ही श्रीकृष्ण हैं। उन दोनों का प्रेम ही वंशी है।” श्रीराधा जी के प्रेम का स्वरूप
आत्मा तु राधिका तस्य तयैव रमणादसौ। आत्माराम इति प्रोक्त ऋषिभिर्गूढवेदिभिः।।
“श्रीराधिका जी भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा हैं। उनमें सदा रमण करने के कारण ही रहस्य-रस के मर्मज्ञ ज्ञानी पुरुष श्रीकृष्ण को ‘आत्माराम’ कहते हैं।” इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘मैं राधा के हृदय में आत्मारूप से स्थित हूँ- अहं राधाया हृदये आत्मारूपेण संस्थितः।
श्रीराधा का तत्त्व, महत्त्व, स्वरूप आदि श्रीराधाजी के तत्त्व, महत्त्व, स्वरूप, महाभाव, प्रेम तथा लीला के शास्त्रों में असंख्य वचन हैं। यहाँ केवल भगवत्स्वरूप त्रिदेव-भगवान शिव, भगवान नारायण, भगवान ब्रह्मा और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के कुछ वचन उद्धृत किये जाते हैं। इन वचनों से श्रीराधाजी के स्वरूप-महत्त्व का कुछ अनुमान हो सकेगा।
यथा ब्रह्मस्वरूपश्च श्रीकृष्णः प्रकृतेः परः। तथा ब्रह्मस्वरूपा च निर्लिप्ता प्रकृतेः परा।। आविर्भावस्तिरोभावस्तस्याः कालेन नारद। न कृत्रिमा च सा नित्या सत्यरूपा यथा हरिः।।
‘जैसे ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण प्रकृति से पर-अतीत हैं, वैसे ही श्रीराधा भी ब्रह्मस्वरूपा, निर्लिप्ता और प्रकृति से अतीत हैं। नारद! समय पर उनका आविर्भाव और तिरोभाव होता है। हरि की तरह ही वे भी अकृत्रिमा, नित्या और सत्यरूपा है।’
राधा रासेश्वरी रम्या रामा च परमात्मनः।।
रासोद्भवा कृष्णकान्ता कृष्णवक्षःस्थलस्थिता।
कृष्णप्राणाधिदेवी च महाविष्णोः प्रसूरपि।।
सर्वाद्या विष्णुमाया च सत्या नित्या सनातनी।
ब्रह्मस्वरूपा परमा निर्लिप्ता निर्गुणा परा।।
‘परमात्मा की पराशक्ति राधा रासेश्वरी, रम्या, रामा, कृष्णकामिनी, रासोद्भवा, कृष्णकान्ता, कृष्णवक्षःस्थलस्थिता, कृष्णप्राणाधिदेवी और महाविष्णु की भी जननी हैं। वे ब्रह्मस्वरूपा, परमा, निर्लिप्ता (संसारासक्ति से सर्वथा रहित, निर्लेप), निर्गुणा (प्राकृत गुणों से अतीत स्वरूपभूत सौन्दर्य-माधुर्यादि गुणों से युक्त) एंव परा (प्रपंचातीत स्वरूपस्थित) हैं।’
देवर्षि नारद जी से भगवान शिव कहते हैं-
अन्तरंगैस्तथा नित्यविभूतैस्तैश्चिदादिभिः। गोपनादुच्यते गोपी राधिका कृष्णवल्लभा।।
देवी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका परदेवता। सर्वलक्ष्मीस्वरूपा सा कृष्णाह्लादस्वरूपिणी।।
ततः सा प्रोच्यते विप्र ह्लादिनीति मनीषिभिः। तत्कलाकोटिकोटयंशा दुर्गाद्यास्त्रिगुणात्मिकाः।।
सा तु साक्षान्महालक्ष्मीः कृष्णो नारायणः प्रभुः। नैतयोर्विद्यते भेदः स्वल्पोऽपि मुनिसत्तम।।
इयं दुर्गा हरी रुद्रः कृष्णः शक्र इयं शची। सावित्रीयं हरिब्रह्मा धूमोर्णासौ यमो हरिः।।
बहुना किं मुनिश्रेष्ठ विना ताभ्यां न किंचन। चिदचिल्लक्षणं सर्वं राधाकृष्णमयं जगत्।।
इत्थं सर्वं तयोरेव विभूतिं विद्धि नारद। न शक्यते मया वक्तुं वर्षकोटिशतैरपि।।
“नारद जी! श्रीकृष्ण प्रिया राधा अपनी चैतन्य आदि नित्य रहने वाली अन्तरंग विभूतियों से इस प्रपंच का गोपन-संरक्षण करती हैं, इसलिये उन्हें ‘गोपी’ कहते हैं। वे श्रीकृष्ण की अराधना में तन्मय होने के कारण ‘राधिका’ कहलाती हैं। श्रीकृष्णमयी होने से ही वे ‘परा देवता’ हैं। सम्पूर्ण-लक्ष्मीस्वरूपा हैं। श्रीकृष्ण के आह्लाद का मूर्तिमान स्वरूप होने के कारण मनीषीजन उन्हें ‘ह्लादिनी’ शक्ति कहते हैं। दुर्गादि त्रिगुणात्मि का शक्तियाँ उनकी कला के करोड़वें का भी करोड़वाँ अंश हैं। श्रीराधा साक्षात महालक्ष्मी हैं और भगवान श्रीकृष्ण साक्षात नारायण हैं। मुनिश्रेष्ठ! इनमें थोड़ा-सा भी भेद नहीं है। श्री राधा दुर्गा हैं और श्रीकृष्ण रुद्र। श्रीकृष्ण इन्द्र हैं तो ये शची (इन्द्राणी) हैं। वे सावित्री हैं तो ये साक्षात ब्रह्मा हैं। श्रीकृष्ण यमराज हैं तो ये उनकी पत्नी धूमोर्णा हैं। अधिक क्या कहा जाय, उन दोनों के बिना किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं है। जड-चेतनमय सारा संसार श्रीराधा कृष्ण का ही स्वरूप है। विशुद्ध प्रेमिका श्रीराधागोपिका
भगवान श्रीनारायण कहते हैं-
प्राणाधिकप्रियतमा सर्वाभ्यः सुन्दरी परा।।
सर्वयुक्ता च सौभाग्यभागिनी गौरवान्विता।
वामांगार्धस्वरूपा च गुणेन तेजसा समा।।
परावरा सारभूता परमाद्या सनातनी।
परमानन्दरूपा च धन्या मान्या च पूजिता।।
रासक्रीडाधिदेवी श्रीकृष्णस्य परमात्मनः।
रासमण्डलसम्भूता रासमण्डलमण्डिता।।
रासेश्वरी सुरसिका रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका।।
परमाह्लादरूपा च संतोषहर्षरूपिणी।
निगुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी।।
निरीहा निरहंकारा भक्तानुग्रहविग्रहा।
वेदानुसारिध्यानेन विज्ञाता सा विचक्षणा।।
दृष्टिदृष्टा न सा चेशैः सुरेन्द्रैर्मुनिपुंगवैः।
वह्निशुद्धांशुकधरा नानालंकारभूषिता।।
कोटिचन्द्रप्रभा पुष्टसर्वश्रीयुक्तविग्रहा।
श्रीकृष्णभक्तिदास्यैककरी च सर्वसम्पदाम्।।
अवतारे च वाराहे वृषभानुसुता च या।
तत्पादपद्यसंस्पर्शात् पवित्रा च वसुंधरा।।
ब्रह्मादिभिरदृष्टा या सर्वैर्दृष्टा च भारते।
स्त्रीरत्नसारसम्भूता कृष्णवक्षःस्थले स्थिता।।
यथाम्बरे नवघने लीला सौदामनी मुने।
षष्टिवर्षसहस्राणि प्रपप्तं ब्रह्मणा पुरा।।
यत्पादपद्यनखरदृष्टये चात्मशुद्धये।
न च दृष्टं च स्वप्नेऽपि प्रत्यक्षस्य तु का कथा।।
तेनैव तपसा दृष्टा भुवि वृन्दावने वने।
“ये परमात्मा श्रीकृष्ण को प्राण से भी बढ़कर प्रिय हैं। सम्पूर्ण देवियों की अपेक्षा इनमें सुन्दरता अधिक है। इनमें सभी सदगुण सदा विद्यमान हैं। ये परम सौभाग्यवती हैं। इन्हें अनुपम गौरव प्राप्त है। परब्रह्म का वामाद्धांग ही इनका स्वरूप है। ये ब्रह्म के समान ही गुण और तेज से सम्पन्न हैं। इन्हें परावरा, सारभूता, परमाद्या, सनातनी, परमानन्दरूपा, धन्या, मान्या और पूज्या कहा जाता है। ये नित्यनिकुंजेश्वरी रासक्रीड़ा की अधिष्ठात्री देवी हैं। परमात्मा श्रीकृष्ण के रासमण्डल में इनका आविर्भाव हुआ। इनके विराजने से रासमण्डली की विचित्र शोभा होती है।
गोलोक धाम में रहने वाली ये देवी ‘रासेश्वरी’ एवं ‘सुरसिका’ नाम से प्रसिद्ध हैं। रासमण्डल में पधारे रहना इन्हें बहुत प्रिय है। ये गोपी के वेष में विराजती हैं। ये परम आह्लादस्वरूपिणी हैं। इनका विग्रह संतोष और हर्ष से परिपूर्ण है। ये निर्गुण (प्राकृतिक त्रिगुणों से रहित स्वरूपभूत दिव्य-गुणवती), निराकारा (पांचभौतिक शरीर से रहित, दिव्यचिन्मयस्वरूपा), निर्लिप्ता (लौकिक विषय-राग से रहित), आत्मस्वरूपिणी (श्रीकृष्ण की आत्मा) नाम से विख्यात हैं। इच्छा और अहंकार से रहित हैं। भक्तों पर कृपा करने के लिये ही इन्होंने अवतार धारण कर रखा है। वेदोक्त विधि के अनुसार ध्यान करने से विद्वान पुरुष इनके रहस्य को समझ पाते हैं। सुरेन्द्र एंव मुनीन्द्र तथा ईश्वर कोटि के देवता भी अपने चर्म-चक्षुओं से इन्हें देखने में असमर्थ हैं। ये नीले रंग के दिव्य वस्त्र धारण करती हैं, अनेक प्रकार के दिव्य आभूषण इन्हें सुशोभित किये रहते हैं। इनकी कान्ति करोड़ों चन्द्रमाओं के समान प्रकाशमान है। इनका सर्वांग सम्पन्न श्री विग्रह ऐश्वर्यों से सम्पन्न है। ये भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति एंव दास्य की एकमात्र प्रदान करने वाली तथा सम्पूर्ण सम्पत्तियों को देने वाली हैं। श्वेतवराहकल्प में श्रीवृषभानु के घर पुत्री के रूप से ये पधारी हैं। इनके चरण-कमल का संस्पर्श प्राप्तकर पृथ्वी परम पवित्र हो गयी है। मुने! जिन्हें ब्रह्मा आदि देवता भी नहीं देख सके, वे ही ये देवी भारतवर्ष में सबके दृष्टिगोचर हो रही हैं। ये स्त्रीमय रत्नों के सार से प्रकट हुई हैं। ये भगवान श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर इस प्रकार विराजती हैं, जैसे आकाश स्थित नवीन नील मेघों में बिजली चमक रही हो।
इन्हें पाने के लिये ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तपस्या की है। उनकी तपस्या का उद्देश्य यही था कि ‘इनके चरण-कमल के नख के दर्शन सुलभ हो जायँ, जिससे मैं परम पवित्र बन जाऊँ।’ परंतु स्वप्न में भी वे इन भगवती के दर्शन प्राप्त न कर सके, फिर प्रत्यक्ष की तो बात ही क्या है। उसी तप के प्रभाव से ये देवी ‘वृन्दावन’ नामक वन में ब्रह्मा के सामने प्रकट हुई हैं- धराधाम पर इनका पधारना हुआ है।”
ब्रह्माजी श्रीराधा से कहते हैं-
त्वं कृष्णांगर्द्धसम्भूता तुल्या कृष्णेन सर्वतः। श्रीकृष्णस्त्वमयं राधा त्वं राधा वा हरिः स्वयम्।।
नहि वेदेषु मे दृष्ट इति केन निरूपितम्। पुरुषाश्च हरेरंशास्त्वदंशा निखिलाः स्त्रियः।।
आत्मना देहरुपा त्वमस्याधारस्त्वमेव हि। अस्यास्तु प्राणैस्त्वं मातस्त्वत्प्राणैरयमीश्वरः।।
किमहो निर्मितः केन हेतुना शिल्पकारिणा। नित्योऽयं च तथा कृष्णस्त्वं च नित्या तथाम्बिके।।
अस्यांशा त्वं त्वंदशो वाप्ययं केन निरूपितः।
‘तुम श्रीकृष्ण के आधे अंग से प्रकट हुई हो, अतः सभी दृष्टियों से श्रीकृष्ण के समान हो। तुम स्वयं श्रीकृष्ण हो और ये श्रीकृष्ण स्वयं राधा हैं, अथवा तुम राधा हो और ये स्वयं श्रीकृष्ण हैं- इस बात का किसी ने निरूपण किया हो, ऐसी बात मैंने वेदों में नहीं देखी है।’ श्री राधिकाजी
‘जैसे समस्त ब्रह्माण्ड में सभी जीवधारी श्रीकृष्ण के अंशांश हैं, उसी प्रकार उन सब में तुम्हीं शक्ति रूपिणी होकर विराजमान हो। समस्त पुरुष श्रीकृष्ण के अंश हैं और सारी स्त्रियाँ तुम्हारी अंशभूता हैं। परमात्मा श्रीकृष्ण की तुम देहरूपा हो, अतः तुम्हीं अनकी आधारभूता हो। माँ! इनके प्राणों से तुम प्राणवती हो और तुम्हारे प्राणों से परमेश्वर श्रीहरि प्राणवान हैं। अहो! क्या किसी शिल्पी ने किसी हेतु से इनका निर्माण किया है? कदापि नहीं। अम्बिके! ये श्रीकृष्ण नित्य हैं और तुम ही नित्या हो। तुम इनकी अंशस्वरूपा हो या ये ही तुम्हारे अंश हैं, इसका निरूपण किसने किया है?’ अर्थात इस गूढ़ रहस्य का विवेचन कौन कर सकता है? या इसे कौन समझा सकता है? यह परम् गूढ़तम ज्ञान है,
श्रीराधा ही सर्वस्व है, यही गति,मति,संगति,भक्ति,शक्तिहै,यही श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण ही यह है,भेद-अभेद है,अर्थात इन दोनों में जो भेद,विलगाव कर सके ऐसा कोई नहीं है, और जो मूढ़मति ऐसा करते है उनकी गति श्रीराधामाधव ही जाने क्या होगी? जैसे बर्फ और भाप और जल सब तत्व रूप से एक ही है ऐसे ही राधाकृष्ण भी कोई विलग तत्व न होकर एकहि तत्व है,इसलिए किसी भी दृष्टि से भेद नहीं करना चाहिए,यही परम् सत्य है,
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