महाप्रभु की गम्भीरा लीला:महाप्रभु की अन्तर्दशा, अर्धबाह्यदशा और बाह्यदशा (Part4)

महाप्रभु की अन्तर्दशा, अर्धबाह्यदशा और बाह्यदशा अभी तक हमने महाप्रभु की भावसंधि में होने वाली लीलाओ का आस्वादन किया, दिनोदिन उनकी...



अभी तक हमने महाप्रभु की भावसंधि में होने वाली लीलाओ का आस्वादन किया, दिनोदिन उनकी दशा अत्यंत गंभीर होती जा रही है, अब हम उनकी वेदनाओ के कारन होने वाली अन्तर्दशा, अर्धबाह्यदशा और बाह्यदशा को जानने की चेष्टा करेंगे।

नामों की सुमधुर गूँज गोविन्द और स्वरूप गोस्वामी के कानों में भर गयी। वे इन नामों को सुनते-सुनते ही सो गये। किन्तु प्रभु की आँखों में नींद कहाँ ? उनकी तो प्राय: सभी रातें हा नाथ ! हा प्यारे ! करते-करते ही बीतती थीं।
थोड़ी देर में स्वरूप गोस्वामी की आँखें खुलीं तो उन्हें प्रभु का शब्द सुनायी नहीं दिया। सन्देह होने से वे उठे, गम्भीरा में जाकर देखा, प्रभु नहीं हैं। मानो उनके हृदय में किसी ने वज्र मार दिया हो। अस्त-व्यस्तीभाव से उन्होंने दीपक जलाया। गोविन्द को जगाया। दोनों ही उस विशाल भवन के कोने-कोने में खोज करने लगे, किन्तु प्रभु का कही पता ही नहीं। सभी घबडाये-से इधर-उधर भागने लगे।


गोविन्द के साथ वे सीधे मन्दिर की ओर गये वहाँ जाकर क्या देखते हैं, सिंहद्वार के समीप एक मैंले स्थान में प्रभु पड़े हैं। उनकी आकृति विचित्र हो गयी थी। उनका शरीर खूब लम्बा पडा था। हाथ-पैर तथा सभी स्थानों की सन्धियाँ बिलकुल खुल गयी थीं।मानो किसी ने टूटी हड्डियां लेकर चर्म के खोल में भर दी हो। शरीर अस्त-व्यस्त पड़ा था। श्वास-प्रश्वास की गति एकदम बंद थी। कविराज गोस्वामी ने वर्णन किया है–
प्रभु पड़ि आछेन दीर्घ हात पांच छय।
अचेतन देह नाशाय श्वास नाहि बय।।
एक-एक हस्त-पाद-दीर्घ तिन हात।
अस्थि ग्रंथिभिन्न, चर्मे आछे मात्र तात।।
हस्त, पाद, ग्रीवा, कटि, अस्थि-संधि यत।
एक-एक वितस्ति भिन्न हय्या छे तत।।
चर्ममात्र उपरे, संधि आछे दीर्घ हय्या।
दु:खित हेला सबे प्रभुरे देखिया।।
मुख लाला-फेन प्रभुर उत्तान-नयन।
देखिया सकल भक्तेर देह छाडे प्रान।।
अर्थ स्पष्ट है, भक्तों ने समझा प्रभु के प्राण शरीर छोड़कर चले गये। तब स्वरूप गोस्वामी जी जोरों से प्रभु के कानों में कृष्ण नाम की ध्वनि की। उस सुमधुर और कर्णप्रिय ध्वनि को सुनकर प्रभु को कुछ-कुछ बाह्य-ज्ञान सा होने लगा। वे एक साथ ही चौंककर ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ कहते हुए उठ बैठे। 
महाप्रभु की अब प्राय: तीन दशाएँ देखी जाती थीं– अन्तर्दशा, अर्धबाह्यदशा और बाह्यदशा। 
अन्तर्दशा में वे गोपीभाव से या राधाभाव से श्रीकृष्ण के विरह में, मिलन में भाँति-भाँति के प्रलाप किया करते थे। 
अर्धबाह्यदशा में अपने को कुछ-कुछ समझने लगते और अब थोड़ी देर पहले जो देख रहे थे उसे ही अपने अन्तरंग भक्तों को सुनाते थे और उस भाव के बदलने के कारण पश्चात्ताप प्रकट करते हुए रुदन भी करते थे।

बाह्यदशा में खूब अच्छी-भली बातें करते थे और सभी भक्तों को यथायोग्य सत्कार करते, बड़ो को प्रणाम करते, छोटों की कुशल पूछते।
लखि मोहन मुख छटा तीर कँटीला नयनो का हिये धसां
दासी बिलपत होये विकल अकेली,जैसे कोई विषधर डसा
निज आलिंगन दान देओ मेरे स्वामी छुटे झूठा सब नशा
चरण धुर हो धूसरित भटकत हु बन देखत सब जग हँसा
निरखत मृदु नयन मुस्कान लुभानी सुधरे मोरी अन्तर्दशा
वृंदसखी कहे हे मोहन दो प्रेमदान अब क्यों विरह पाश कसा

इस प्रकार उनकी तीन ही दशाएँ भक्तों को देखने में आती थीं। तीसरी दशा में तो वे बहुत ही कम कभी-कभी आते थे, नहीं तो सदा अन्तर्दशा या अर्धबाह्यदशा में ही मग्न रहते थे। स्नान शयन, भोजन और पुरुषोत्तदर्शन, ये तो शरीर के स्वभावानुमान स्वत: ही सम्पन्न होते रहते थे। अर्धबाह्यदशा में भी इन कामों में कोई विघ्न नहीं होता था। प्राय: उनका अधिकांश समय रोने में और प्रलाप में ही बीतता था। रोने के कारण आँखें सदा चढ़ी सी रहती थीं,
एक दिन महाप्रभु समुद्र की ओर जा रहे थे, दूर से ही उन्हें बालुका का चटक नामक पहाड़- सा दीखा। बस, फिर क्या था, जोरों की हुंकार मारते हुए आप उसे ही गोवर्धन समझकर उसी ओर दौड़े। इनकी अद्भुत हुंकार को सुनकर जो भी भक्त जैसे बैठा था, वह वैसे ही इनके पीछे दौडा। किन्तु भला, ये किसके हाथ आने वाले थे। वायु की भाँति आवेश के झोकों के साथ उड़े चले जा रहे थे। उस समय इनके सम्पूर्ण शरीर में सभी सात्त्विक विकार उत्पन्न हो गये थे। बड़ी ही विचित्र और अभूतपूर्व दशा थी। प्रत्येक रोकूप मानो मांस का फोडा ही बन गया है, उनके ऊपर रोम ऐसे दीखते हैं जैसे कदम्ब की कलियाँ। प्रत्येक रोमकूप से रक्त की धार के समान पसीना बह रहा है। कण्ठ घर्घर शब्द कर रहा है, एक भी वर्ण स्पष्ट सुनायी नहीं देता। दोनों नेत्रों से अपार अश्रुओं की दो धाराएं बह रही हैं मानो गंगाजी और यमुना जी मिलने के लिये समुद्र की ओर जा रही हों। वैवर्ण के कारण मुख शंख के समान सफेद-सा पड़ गया है। शरीर पसीने से लथपथ हो गया है। शरीर में कँपकँपी ऐसे उठती हैं मानो समुद्र से तरंगें उठ रही हों।’ ऐसी दशा होने पर प्रभु और आगे न बढ़ सके। वे थर-थर कांपते हुए एकदम भूमि पर गिर पडे। 
गोविन्द पीछे दौडा आ रहा था, उसने प्रभु को इस दशा में पड़े हुए देखकर उनके मुख में जल डाला और अपने वस्त्र से वायु करने लगा। इतने में ही जगदानन्द पण्डित, गदाधर गोस्वामी, रमाई, नदाई तथा स्वरूप दामोदर आदि भक्त पहुँच गये। प्रभु की ऐसी विचित्र दशा देखकर सभी को परम विस्मय हुआ। सभी प्रभु को चारों ओर से घेरकर उच्च स्वर से संकीर्तन करने लगे। अब प्रभु को कुछ-कुछ होश आया। वे हुंकार मारकर उठ बैठे और और अपने चारों ओर भूल-से, भटके-से, कुछ गँवाये-से इधर-उधर देखने लगे।
स्वरूप गोस्वामी से रोते-रोते कहने लगे– ‘अरे ! हमें यहाँ कौन ले आया? गोवर्धन पर से यहाँ हमें कौन उठा लाया? अहा ! वह कैसी दिव्य छटा थी, गोवर्धन की नीरव निकुंज में नन्दलाल ने अपनी वही बांस की वंशी बजायी। उसकी मीठी ध्वनि सुनकर मैं भी उसी ओर उठ धायी। राधारानी भी अपनी सखी-सहेलियों के साथ उसी स्थान पर आयीं। अहा ! उस सांवरे की कैसी सुन्दर मन्द मुस्कान थी ! उसकी हँसी में जादू था। सभी गोपिकाएँ अकी-सी, जकी-सी, भूली-सी, भटकी-सी उसी को लक्ष्य करके दौड़ी आ रही थीं। सहसा वह सांवला अपनी सर्वश्रेष्ठ सखी श्रीराधिका जी को साथ लेकर न जाने किधर चला गया। तब क्या हुआ कुछ पता नहीं। यहाँ मुझे कौन उठा लाया? इतना कहकर प्रभु बड़े ही जोरों से हा कृष्ण ! हा प्राणवल्लभ ! हा हृदयरमण ! कहकर जोरों से रुदन करने लगे।

उपजै गाढ़ हृदय विरह दुःख, कब मौसौं बनी आवे II 
कोमल कनक कमल कर कबहुँ ,आवे कृपानिधि उठावै
रटन ऐसी कौन दिन करि हौ, बरबस धीर छुड़ावै 
कोमलचित कृपालु नन्दनन्दन ,अति आतुर ऊटी धावै
तन-मन की न संभार रहे मोहि,भूषण बसन भुलावै
धीरज धरत बनै नही केहिं भांति, पल-पल अति अकुलावै
वृंदसखी है मेरी कहौ मुख सौ ,बार बार हृदय लगावै
बलिहारी इस विरह अगन की,जौ प्रीतम संग मिलावै

महाप्रभु एक दिन समुद्र की ओर स्नान करने के निमित्त जा रहे थे। दूर से ही समुद्र तट की शोभा देखकर वे मुग्ध हो गये। वे खड़े होकर उस अद्भुत छटा को निहारने लगे। अनन्त जलराशि से पूर्ण सरितापति सागर अपने नीलरंग के जल से अठखेलियाँ करता हुआ कुछ गम्भीर-सा शब्द कर रहा है। समुद्र के किनारे पर खजूर, ताड, नारियल और अन्य विविध प्रकार के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष अपने लम्बे-लम्बे पल्लवरूपी हाथों से पथिकों को अपनी ओर बुला-से रहे हैं। वृक्षों के अंगों का जोरों से आलिंगन किये हुए उनकी प्राणप्यारी लताएँ धीरे-धीरे अपने कोमल करों को हिला-हिलाकर संकेत से उन्हें कुछ समझा रही हैं। नीचे एक प्रकार की नीली-नीली घास अपने हरे-पीले-लाल तथा भाँति-भाँति के रंग वाले पुष्पों से उस वन्यस्थली की शोभा को और भी अधिक बढ़ाये हुए हैं।


मानो श्रीकृष्ण की गोपियों के साथ होने वाली रासक्रीडा के निमित्त नीले रंग के विविध चित्रों से चित्रित कालीन बिछा रही हो। महाप्रभु उस मनमोहिनी दिव्य छटा को देखकर आत्मविस्मृत से बन गये वे अपने को प्रत्यक्ष वृन्दावन में ही खड़ा हुआ समझने लगे। समुद्र का नीला जल उन्हें यमुना जल ही दिखायी देने लगा। उस क्रीडा स्थली में सखियों के साथ श्रीकृष्ण को क्रीड़ा करते देखकर उन्हें रास में भगवान के अन्तर्धान होने की लीला स्मरण हो उठी। बस, फिर क्या था, लगे वक्षों से श्रीकृष्ण का पता पूछने। वे अपने को गोपी समझकर वृक्षों के समीप जाकर बडे ही करुणस्वर में उन्हें सम्बोधन करके पूछने लगे –
हे कदम्ब ! हे निम्ब ! अंब ! क्यों रहे मौन गहि।
हे बट ! उतँग सुरग वीर कहु तुम इत उत लहि।।
हे अशोक ! हरि-सोक लोकमनि पियहि बतावहु।
अहो पनस ! सुभ सरस मरत-तिय अमिय पियावहु।।

इतना कहकर फिर आप-ही-आप कहने लगे– ‘अरी सखियो ! ये पुरुष-जाति के वृक्ष तो उस सांवले के संगी-साथी हैं। पुरुष जाति तो निर्दयी होती है। ये परायी पीर को क्या जाने। चलो, लताओं से पूछें। स्त्री-जाति होने उनका चित्त दयामय और कोमल होता है, वे हमें अवश्य ही प्यारे का पता बतावेंगी।

सखि! इन लताओं से पूछो। देखे, ये क्या कहती है?’ यह कहकर आप लताओं को सम्बोधन करके उसी प्रकार अश्रुविमोचन करते हुए गद्गद कण्ठ से करुणा के साथ पूछने लगे– 
हे मालति ! हे जाति ! जूथके ! सुनि हित दे चित।
मन-हरन मन-हरन लाल गिरिधरन लखे इत।।
हे केतकि ! इततें कितहूँ चितये पिय रूसे।
कै नँदनन्दन मन्द मुसुकि तुमरे मन मूसे।।
फिर स्वत: ही कहने लगे– ‘अरी सखियों ! ये तो कुछ भी उत्तर नहीं देतीं। चलो, किसी और से ही पूछें।’ यह कहकर आगे बढने लगे। आगे फलों के भार से नवे हुए बहुत-से वृक्ष दिखायी दिये। उन्हें देखकर कहने लगे–‘सखि! ये वृक्ष तो अन्य वृक्षों की भाँति निर्दयी नहीं जान पडते। देखो, सम्पत्तिशाली होकर भी कितने नम्र हैं। इन्होंने इधर से जाने वाले प्यारे का अवश्य ही सत्कार किया होगा। क्योंकि जो सम्पत्ति पाकर भी नम्र होते हैं, उन्हें कैसा भी अतिथि क्यों न हो, प्राणों से भी अधिक प्रिय होता है। इनसे प्यारे का पता अवश्यक लग जायगा। हाँ, तो मैं ही पूछती हूँ’। यह कहकर वे वृक्षों से कहने लगे– 
हे मुत्ताफल ! बेल धरे मुत्ताफल माला।
देखे नैन-बिसाल मोहना नँदके लाला।।
हे मन्दार ! उदार बीर करबीर ! महामति।
देखे कहूँ बलवीर धीर मन-हरन धीरगति।।

फिर चन्दन की ओर देखकर कहने लगे– ‘यह बिना ही मांगे सबको शीतलता और सुगन्ध प्रदान करता है, यह हमारे ऊपर अवश्य दया करेगा, इसलिये कहते है– 
हे चन्दन ! दुखदन्दन ! सबकी जरन जुडावहु।
नँदनन्दन, जगबन्दन, चन्दन ! हमहि बतावहु।।
फिर पुष्पों से फूली हुई लताओं की ओर देखकर मानो अपने साथ की सखियों से कह रहे हैं– 
पूछो री इन लतनि फूलि रहिं फूलनि जोई।
सुन्दर पियके परस बिना अस फूल न होई।।
प्यारी सखियो ! अवश्य ही प्यारे ने अपनी प्रिय सखी को प्रसन्न करने के निमित्त इन पर से फूल तोड़े हैं, तभी तो ये इतनी प्रसन्न हैं। प्यारे के स्पर्श बिना इतनी प्रसन्नता आ ही नही सकती। यह कह कर आप उनकी ओर हाथ उठा-उठाकर कहने लगे–  
हे चम्पक ! हे कुसुम ! तुम्हैं छबि सबसों न्यारी।
नेंक बताय जु देहु जहाँ हरि कुंज बिहारी।।
इतने में कुछ मृग उधर से दौड़ते हुए आ निकले। उन्हें देख-देखकर जल्दी कहने लगे–  
हे सखि ! हे मृगवधू ! इन्हें किन पूछहू अनुसरि।
डहडहे इनके नैन अबहिं कहुँ देखे हैं हरि।।
इस प्रकार महाप्रभु गोपीभवन में अधीर से बने चारों ओर भटक रहे थे, उन्हें शरीर का होश नहीं था। आँखों से दो अश्रुधाराएँ बह रही थीं। उसी समय आप पृथ्वी पर बैठ गये और पैर अँगूठे के नख से पृथ्वी को कुरेदन लगे। उसी समय आप फिर उसी तरह कहने लगे–  
हे अवनी ! नवनीत-चारे, चितचोर हमारे।
राखे कतहुँ दुराय बता देउ प्रान पियारे।।
वहीं पास में एक तुलसी का वृक्ष खडा था, उसे देखकर बड़े ही आह्लाद के साथ आलिंगन करते हुए कहने लगे–
   
हे तुलसी ! कल्यानि ! सदा गोविंद-पद-प्यारी।
क्यों न कहौ तुम नन्द–सुवन सों बिथा हमारी।।
इतना कहकर आप जोरों से समुद्र की ओर दौडने लगे और समुद्र के जल को यमुना समझकर कहने लगे–   
हे जमुना ! सबजानि बूझि तुम हठहिं गहत हो।
जो जल जग उद्धार ताहि तुम प्रकट बहत हो।।

थोड़ी देर में उन्हें मालूम हुआ कि करोड़ों कामदेवों के सौन्दर्य को फीका बनाने वाले श्रीकृष्ण ! कदम्ब के नीचे खड़े मुरली बजा रहे हैं। उन्हें देखते ही प्रभु उनकी ओर जल्दी से दौड़े। बीच में ही मूर्छा आने से बेहोश होकर गिर पड़े।
उसी समय राय रामानन्द, स्वरूप गोस्वामी, शंकर, गदाधर पण्डित और जगदानन्द आदि वहाँ आ पहुँचे। प्रभु अब अर्धबाह्य दशा में थे। वे आँखे फाड़-फाड़कर चारों आरे कृष्ण की खोज कर रहे थे और स्वरूप गोस्वामी के गले को पड़कर रोते-रोते कह रहे थे– ‘अभी तो थे, अभी इसी क्षण तो मैंने उनके दर्शन किये थे। इतनी ही देर में वे मुझे ठगकर कहाँ चले गये। मैं अब प्राण धारण न करूँगी। प्यारे के विरह में मर जाऊँगी। हाय ! दुर्भाग्य मेरा पीछा नहीं छोडता। पाये हुए को भी मैं गँवा बैठी।’ 

माई री ! मनै ठग लियो गुपाल, हाँ ! री ठग लियो गुपाल
मन्द मन्द हँसत, हँस हँस लुटावत अधर रस,होइ में बेहाल i
दै दै तारि, बुलावत बनवारी,तभी छिप जावै नन्द लाल.....ii
माई री ! मनै ठग लियो गुपाल, हाँ ! री ठग लियो गुपाल
इत-ऊत डोलत,बोली तोतरि बोलत,हरत हृदय जंजाल.......i 
चरण सुकोमल फिरत मोरे अंगना,नचावत मोहे निढाल   ii
मामाई री ! मनै ठग लियो गुपाल, हाँ ! री ठग लियो गुपाल........
नाम बसों श्वास में श्वास ही नाम, मिट गयो सब अंतराल...i 
बैरी जगत सौ नाता छूट गयो,मिट्यो सब भरमजाल......ii
माई री ! मनै ठग लियो गुपाल, हाँ ! री ठग लियो गुपाल
देख्यो जब ते रूप मनोहर रह्यो नही कोई ख्याल......i 
भूख प्यास की सुधि नही मोहि.मन भूल्यो सब चाल....ii
माई री ! मनै ठग लियो गुपाल, हाँ ! री ठग लियो गुपाल
कहे वृंदा सखी जा मन बसी या मनमोहन छवि रूप -रसाल.....i 
कछु और न भावै रहे बस नित श्याम सूंदर को ख्याल.........ii
माई री ! मनै ठग लियो गुपाल, हाँ ! री ठग लियो गुपाल

राय रामानन्दजी भाँति-भाँति की कथाएँ कहने लगे। स्वरूप गोस्वामी प्रभु ने कोई पद गाने के लिये कहा। स्वरूप गोस्वामी अपनी उसी पुरानी सुरीली तान से गीतगोविन्द के इस पद को गाने लगे–   
ललितलवंगलतापरिशीलनकोमलमलयसमीरे।
मधुकर निकरकरम्बितकोकिलकूजितकुंजकुटीरे।।
विहरति हरिरिह सरसवसन्ते।
नृत्यति युवतिजनेन समं सखि विरहिजनस्य जुरन्ते।।1।।
उन्मदमदनमनोरथपथिकवधूजनजनितविलापे ।
अलिकुलसंकुलकुसुमसमुहनिराकुलवकुलकलापे।।2।।
इस पद को सुनते ही प्रभु के सभी अंग-प्रत्यंग फड़कने लगे। वे सिर हिलाते हुए कहने लगे– ‘अहा, विहरति हरिरिह सरसवसन्ते!’ ठीक है, स्वरूप ! आगे सुनाओ। मेरे कर्णों में इस अमृत को चुआ दो। तुम चुप क्यों हो गये? इस अनुपम रस से मेरे हृदय को भर दो, कानों में होकर बहने लगे। और कहो, और कहो। आगे सुनाओ,फिर क्या हुआ। स्वरूप पद को गाने लगे
 मृगमदसौरभरभसवशंवदनवदलमालतमाले। 
युवजनहृदयविदारणमनसिजनखरुचिकिंशुकजाले।।3।।
 मदनमहीपतिकनकदण्डरुचिकेसरकुसुमविकासे। 
मिलितशिलीमुखपाटलपटलकृतस्मरतूणविलासे।।4।। 
महाप्रभु ने कहा– ‘अहा! धन्य है, रुको मत, आगे बढो। हाँ– ‘स्मरतूणविलासे’ ठीक है, फिर ?’ स्वरूप गोस्वामी गाने लगे– 
विगलितलज्जितजगदवलोकनतरुणवरुणकृतहासे।
 विरहिनिकृन्तनकुन्तमुखाकृतिकेतकिदन्तुरिताशे।।5।।
 माधविकापरिमिलललिते नवमालतिजातिसुगन्धौ। 
मुनिमनसामपि मोहनकारिणि तरुणा कारणबन्धौ।।6।।

 महाप्रभु कहने लगे–‘धन्य, धन्य‘ ‘अकारणबन्धौ’ सचमुच वसन्त युवक-युवतियों का अकृत्रिम सखा है। आगे कहो, आगे–स्वरूप उसी स्वर में मस्त होकर गाने लगे– 
स्फुरदतिमुक्तलतापरिरम्भणमुकुलितपुलकितचूते।
 वृन्दावनविपिने परिसरपरिगतयमुनाजलपूते।।7।।
 श्रीजयदेवभणितमिदमुदयति हरिचरणस्मृतिसारम्।
 सरसवसन्तसमयवनवर्णनमनुगतमदनविकारम्।।8।।




महाप्रभु इस पद को सुनते ही नृत्य करने लगे।




उन्हें फिर आत्मविस्मृति हो गयी। वे बार-बार स्वरूप गोस्वामी का हाथ पकड़कर उनसे पुन:-पुन: पद-पाठ करने का आग्रह कर रहे थे। प्रभु की ऐसी उन्मत्तावस्था को देखकर सभी विस्मृति से बन गये। स्वरूप गोस्वामी प्रभु की ऐसी दशा देखकर पद गाना नहीं चाहते थे, प्रभु उनसे बार-बार आग्रह कर रहे थे। जैसे-तैसे रामानन्द जी ने उन्हें बिठाया, उनके ऊपर जल छिड़का और वे अपने वस्त्र से वायु करने लगे। प्रभु को कुछ-कुछ चेत हुआ। तब राय महाशय सभी भक्तों के साथ प्रभु को समुद्रतट पर ले गये। वहाँ जाकर सबने प्रभु को स्नान कराया। स्नान कराके सभी भक्त प्रभु को उनके निवास स्थान पर ले गये। अब प्रभु को कुछ-कुछ बाह्य ज्ञान हुआ। तब सभी भक्त अपने-अपने घरों को चले गये।
मेघा बरस रहे प्रेम रस सऊ आग लगे विरहणी के तन- मन
विरह-ताप से अकुलाई विरहणी देखो भटकत है मन मोहन
बोलत मोर मराली दादुर पपीहा गावत प्रेम तराना ये पवन
विरहणी सुलगे तृण के जैसे और यह पवन बढ़ावे हिय अग्न
इंद्रधनुष की सतरंगी आभा सात रंगों की फहरावे प्रेम पतंग
देखि  देखि  यह प्रेम की लीला अकुलावे मोरे सब अंग- अंग
क्षितिज शोभा प्रेममयी ऐसी तड़पुं देखि धरा अम्बर मिलन
वृंदा सखी भई रे बावरी अब आन मिलो मेरे प्यारे नंदनंदन




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महाप्रभु की गम्भीरा लीला:महाप्रभु की अन्तर्दशा, अर्धबाह्यदशा और बाह्यदशा (Part4)
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