महाप्रभु की श्रीकृष्ण के संग भावसंधि आज के इस लेख में महाप्रभु जी की सभी क्रियाएँ जोकि एक विरहिणी की भाँति होती थीं। उन्ही लीलाओ क...
आज के इस लेख में महाप्रभु जी की सभी क्रियाएँ जोकि एक विरहिणी की भाँति होती थीं। उन्ही लीलाओ का वर्णन करने का प्रयास किया जा रहा है, इन लीलाओ के आस्वादन से निश्चित रूप से महाप्रभु की श्रीकृष्ण के संग भावसंधि होने पर कैसी दशा होती है? इसका सूक्ष्तम अनुभव होगा........
एक दिन स्वप्न में आप रासलीला देखने लगे। अहा ! प्यारे को बहुत दिनों के पश्चात आज वृन्दावन में देखा है।
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स्वप्न में रासलीला |
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राधाभाव से ललिता-विशाखा आदि पुकारना |
जिस प्रकार महारास की रात्रि में गिरधर अंतर्ध्यान हो गए और गोपियों की तड़प के उदगार, विरह की दशा इतनी प्रगाढ़ हो गयी की गोपीगीत की रचना हुयी, ऐसे ही महाप्रभु जी की दशा है, जैसे ही स्वप्न टुटा उन्हें ऐसा ही लगा की अभी मोहन के साथ महारास और नृत्य चल रहा था, हाय ! ये क्या हो गया? मेरे हृदयनाथ कहाँ अंतर्ध्यान हो गए? अभी अभी मेरे अंग-संग संग संग थे, अभी अभी कहाँ चले गए?
आज भौर में जब प्रभु बहुत देर तक जागृत नहीं हुए तो गोविन्द ने कहा– 'प्रभो ! दर्शनों का समय हो गया है, नित्यकर्म से निवृत्त होकर दर्शनों के लिये चलिये।’ इतना सुनते ही उसी भाव में यंत्र की तरह शरीर के स्वभावानुसार नित्यकर्मों से निवृत्त होकर श्रीजगन्नाथ जी के दर्शनों को गये। महाप्रभु गरुडस्तम्भ के सहारे घंटों खड़े-खड़े दर्शन करते रहते थे। उनके दोनों नेत्रों में से जितनी देर तक वे दर्शन करते रहते थे उतनी देर तक जल की दो धाराएँ बहती रहती थीं। आज प्रभु ने जगन्नाथ जी के सिंहासन पर उसी मुरली मनोहर के दर्शन किये। वे उसी प्रकार मुरली बजा-बजाकर प्रभु की ओर मन्द-मन्द मुस्कान कर रहे थे, प्रभु अनिमेषभाव से उनकी रूपमाधुरी का पान कर रहे थे।
इतने में ही एक उड़ीसा प्रान्त की वृद्धा माई जगन्नाथ जी के दर्शन न पाने से गरुडस्तम्भ पर चढ़कर और प्रभु के कन्धे पर पैर रखकर दर्शन करने लगी। पीछे खड़े हुए गोविन्द ने उसे ऐसा करने से निषेध किया। इस पर प्रभु ने कहा– ‘यह आदिशक्ति महामाया है, इसके दर्शनसुख में विघ्न मत डालो, इसे यथेष्ट दर्शन करने दो।’ गोविन्द के कहने पर वह वृद्धा माता जल्दी से उतरकर प्रभु के पादपद्मों में पड़कर पुन:-पुन: प्रणाम करती हुई अपने अपराध के लिये क्षमा-याचना करने लगी। प्रभु ने गद्गद कण्ठ से कहा– मातेश्वरी ! जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिये तुम्हें जैसी विकलता है ऐसी विकलता जगन्नाथ जी ने मुझे नहीं दी। हा ! मेरे जीवन को धिक्कार है। जननी ! तुम्हारी ऐसी एकाग्रता को कोटि-कोटि धन्यवाद है। तुमने मेरे कन्धे पर पैर रखा और तुम्हें इसका पता भी नहीं।’
प्रभु फिर रुदन करने लगे। ‘भावसन्धि’ हो जाने से स्वप्न का भाव जाता रहा और अब जगन्नाथ जी के सिंहासन पर उन्हें सुभद्रा-बलरामसहित जगन्नाथ जी के दर्शन होने लगे। इससे महाप्रभु को कुरुक्षेत्र का भाव उदित हुआ, जब ग्रहण के स्नान के समय श्रीकृष्ण जी अपने परिवार के सहित गोपिकाओं को मिले थे। इससे खिन्न होकर प्रभु अपने वासस्थान पर लौट आये। अब उनकी दशा परम कातर विरहिणी की सी हो गयी। वे उदास मन से नखों से भूमि को कुरेदते हुए विषण्णवदन होकर अश्रु बहाने लगे और अपने को बार-बार धिक्कारने लगे।
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अनिमेषभाव |
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रुदन ‘भावसन्धि’ |
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विरह-वेदना |
गिरधर मेरो दर्द हिये कौ,औषध गिरधर गिरधर उपाय,
जरत हृदय अग्नि गिरधर है,शीतलता गिरधर अगन बुझाये
गिरधर ही अमृत विष गिरधर है,मारत गिरधर गिरधर जिवाये
हाय ! ललिते ! तू ही कुछ उपाय बता। ओ बहिन विशाखे ! अरी, तू ही मुझे धीरज बँधा। मै मर जाऊँगी। प्यारे के बिना मैं प्राण धारण नहीं कर सकती। जोगिन बन जाऊँगी। घर-घर अलख जगाऊँगी, नरसिंहा लेकर बजाऊँगी, तन में भभूत रमाऊँगी, मैं मारी-मारी फिरूँगी, किसी की भी न सुनूँगी। या तो प्यारे के साथ जीऊँगी या आत्मघात करके मरूँगी ! हाय ! निर्दयी ! ओ निष्ठुर श्याम ! तुम कहाँ चले गये?’ बस, इसी प्रकार प्रलाप करने लगे।
इस प्रकार दिनोदिन महाप्रभु की विकलता वृद्धि को अग्रसर हो रही थी, दिन कट जाता तो सांझ डसती, सांझ ढलती तो निशा विरह वेदना को बढ़ा देती, ऐसी दशा के लिए ही वृंदा सखी ने लिखा है,
"आवो हरि जी दर्श दे दो होत आस मोरे हिय माहीं
बचपन नही रह्यो गयो योवन अब ये दशा रही नाहि
ठांनस-धीर धरूँ मैं कैसे? बावरी कबहुँ ते है बिलगाहीं
अब नाहीं मानु जीवन त्यागू आवो हृदय सौ लगाहिं
मैं दीन-हीन कर्महीन बिलपत कहत हूँ तौ सकुचाहीं
निष्ठुर क्यों भये वृंदसखी बेर,हिय अति अकुलाहिं "
रामानन्द जी, आधी रात्रि होने पर गम्भीरा मन्दिर में प्रभु को सुलाकर चले गये। स्वरूप गोस्वामी वहीं गोविन्द के समीप ही पडे रहे। महाप्रभु जोरों से बड़े ही करुणस्वर में भगवान के इन नामों का उच्चारण कर रहे थे– श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
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