महाप्रभु की गम्भीरा लीला:महाप्रभु की कृष्ण-विरह की महादशा (Part5)

  महाप्रभु की कृष्ण-विरह की महादशा  दिनप्रतिदिन  महाप्रभु की दशा गंभीरतम रूप धारण करने लगी, कृष्ण विरह अब उच्चतम स्तर पर है, महाप्...




दिनप्रतिदिन  महाप्रभु की दशा गंभीरतम रूप धारण करने लगी, कृष्ण विरह अब उच्चतम स्तर पर है, महाप्रभु की गम्भीरा की दशा वर्णन करते हुए कविराज गोस्वामी कहते हैं–


अर्थात ‘गम्भीरा मन्दिर के भीतर महाप्रभु एक क्षण के लिये भी नहीं सोते थे। कभी मुख और सिर को दीवारों से रगडने लगते। इस कारण रक्त की धारा बहने लगती और सम्पूर्ण मुख क्षत-विक्षत हो जाता। कभी द्वारों के बंद रहने पर भी बाहर आ जाते, कभी सिंहद्वार पर जाकर पडे रहते तो कभी समुद्र के जल में कूद पडते।’ कैसा दिल को दहला देने वाला हृदयविदारक वर्णन है।कभी-कभी बड़े ही करुण स्वर में जोरों से रुदन करने लगते, उस करुणाक्रन्दन को सनुकर पत्थर भी पसीजने लगते और वृक्ष भी रोते हुए से दिखायी पड़ते। वे बडे ही करुणापूर्ण शब्दों में रोते-रोते कहते–


‘हाय ! मेरे प्राणनाथ कहाँ हैं ? जिनके मुख पर मनोहर मुरली विराजमान है ऐसे मेरे मनमोहन मुरलीधर कहाँ हैं ? अरी, मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ ? मैं अपने प्यारे व्रजेन्द्रनन्दन को कहाँ पा सकूँगा ? मैं अपनी विरह-वेदन को किससे कहूँ? कहूँ भी तो मेरे दु:ख को जानेगा ही कौन? परायी पीर को समझने की सामर्थ्य ही किसमें है? उन प्यारे व्रजेन्द्रनन्दन प्राणधन के बिना मेरा हृदय फटा जा रहा है।’


इस प्रकार वे सदा तडपते-से रहते। मछली जैसे कीचड़ में छटपटाती है, उसी प्रकार वे दिन-रात छटपटाते रहते। रात्रि में उनकी विरह-वेदना और भी अधिक बढ़ जाती। उसी वेदना में वे स्थान को छोड़कर इधर-उधर भाग जाते और जहाँ भी बेहोश होकर गिर पड़ते वहीं पड़े रहते। 

एक दिन की एक अद्भुत घटना सुनिये–
"नियमानुसार स्वरूप गोस्वामी और राय रामानन्द जी प्रभु को कृष्ण-कथा और विरह के पद सुनाते रहे। सुनाते-सुनाते अर्धरात्रि हो गयी। राय महाशय अपने घर चले गये, स्वरूप गोस्वामी अपनी कुटिया में पड़े रहे"। गोविन्द का महाप्रभु के प्रति वात्सल्यभाव था। उसे प्रभु की ऐसी दयनीय दशा असह्य थी। जिस प्रकार वृद्धा माता अपने एकमात्र पुत्र को पागल देखकर सदा उसके शोक में उद्विग्न सी रहती है, उसी प्रकार गोविन्द सदा उद्विग्न बना रहता। प्रभु कृष्ण विरह में दु:खी रहते और गोविन्द प्रभु की विरहावस्था के कारण सदा खिन्न-सा बना रहता। वह प्रभु को छोड़कर पलभर भी इधर-उधर नहीं जाता। प्रभु को भीतर सुलाकर आप गम्भीरा के दरवाजे पर सोता। बहुतों को अनुभव होगा कि किसी यंत्र का इंजिन सदा धक्-धक् शब्द करता रहता है। सदा उसके पास रहने वाले लोगों के कान में वह शब्द भर जाता है, फिर सोते-जागते में वह शब्द बाधा नहीं पहुँचाता, उसकी ओर ध्यान नहीं जाता, उसके इतने भारी कोलाहल में भी नींद आ जाती है।रात्रि में सहसा वह बंद हो जाय तो झट उसी समय नींद खुल जाती है और अपने चारों ओर देखकर उस शब्द के बंद होने की जिज्ञासा करने लगते हैं।
गोविन्द का भी यही हाल था। महाप्रभु रात्रिभर जोरों से करुणा के साथ पुकारते रहते– श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव ! ये शब्द गोविन्द के कानों में भर गये थे, इसलिये जब भी ये बंद हो जाते तभी उसकी नींद खुल जाती और वह प्रभु की खोज करने लगता। स्वरूप गोस्वामी और राय महाशय के चले जाने पर प्रभु जोरों से रोते-रोते श्रीकृष्ण के नामों का कीर्तन करते रहे है। गोविन्द द्वार पर ही सो रहा था।

रात्रि में सहसा उसकी आँखे अपने-आप ही खुल गयीं। गोविन्द शंकित तो सदा बना ही रहता था, वह जल्दी से उठकर बैठ गया। उसे प्रभु की आवाज नहीं सुनायी दी। घबडाया-सा काँपता हुआ वह गम्भीरा के भीतर गया। जल्दी से चकमक जलाकर उसने दीपक को जलाया। वहाँ उसने जो कुछ देखा, उसे देखकर वह सन्न रह गया। महाप्रभु का बिस्तरा ज्यों-का-त्यों ही पड़ा है, महाप्रभु वहाँ नहीं हैं। गोविन्द को मानो लाखों बिच्छुओं ने एक साथ काट लिया हो। उसने जोरों से स्वरूप गोस्वामी को आवाज दी। गुसाईं-गुसाईं ! प्रलय हो गया, हाय, मेरा भाग्य फूट गया। गुसाईं ! जल्दी दौडो। महाप्रभु का कुछ पता नहीं।’

गोविन्द के करुणाक्रन्दन को सुनकर स्वरूप गोस्वामी जल्दी से उतरकर नीचे आये। दोनों के हाथ कांप रहे थे। काँपते हुए हाथों से उन्होंने उस विशाल भवन के कोने-कोने में प्रभु को ढूँढा। प्रभु का कुछ पता नहीं। उस किले के समान भवन के तीन परकोटा थे, उनके तीनों दरवाजे ज्यों के त्यों ही बन्द थे। अब भक्तों को आश्चर्य इस बात का हुआ कि प्रभु गये किधर से। आकाश में उड़कर तो कहीं चले नहीं गये। सम्भव है यहीं कहीं पड़े हों। घबडाया हुआ आदमी पागल ही हो जाता है। बावला गोविन्द सुई की तरह जमीन में हाथ से टटोल-टटोलकर प्रभु को ढूँढने लगा। स्वरूप गोस्वामी ने कुछ प्रेम की भर्त्सना के साथ कहा– ‘गोविन्द ! क्या तू भी पागल हो गया ? अरे ! महाप्रभु कोई सुई तो हो ही नहीं गये जो इस तरह हाथ से टटोल रहा है, जल्दी से मशाल जला। समुद्रतट पर चलें, सम्भव है वहीं पडे होंगे।
इस विचार को छोड़ दे कि किवाड़ें बंद होने पर वे बाहर कैसे गये। कैसे भी गये हों, बाहर ही होंगे’। कांपते-कांपते गोविन्द ने जल्दी से मशाल में तेल डाला, उसे दीपक से जलाकर वह स्वरूप गोस्वामी के साथ जाने को तैयार हुआ। जगदानन्द, वक्रेश्वर पण्डित, रघुनाथदास आदि सभी भक्त मिलकर प्रभु को खोजने चले। सबसे पहले मन्दिर में ही भक्त खोजते थे। इसलिये सिंहद्वार की ही ओर सब चले। वहाँ उन्होंने बहुत सी मोटी-मोटी तैलंगी गौओं को खड़े देखा। पगला गोविन्द जोरों से से चिल्ला उठा– ‘यहीं होंगे।’ किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। भला गौओं के बीच में प्रभु कहां, सब आगे बढ़ने लगे। किन्तु विक्षिप्त गोविन्द गौओं के भीतर घुसकर देखने लगा। वहाँ उसने जो कुछ देखा उसे देखकर वह डर गया। जोरों से चिल्ला उठा– ‘गुसाईं ! यहाँ आओ देखो, यह क्या पडा है, गौएं उसे बडे ही स्नेह से चाट रही हैं। गोविन्द मशाल को उसके समीप ले गया और जोरों से चिल्ला उठा–‘महाप्रभु हैं।’

भक्तों ने भी ध्यान से देखा सचमुच महाप्रभु ही हैं। उस समय उनकी आकृति कैसी बन गयी थी उसे कविराज गोस्वामी के शब्दों में सुनिये–  

अर्थात 'महाप्रभु के हाथ-पैर पेट के भीतर धँसे हुए थे। उनकी आकृति कछुए की सी बन गयी थी। मुख से निरन्तर फेन निकल रहा था, सम्पूर्ण अंग के रोम खड़े हुए थे। दोनों नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी। वे कूष्माण्ड-फल की भाँति अचेतन पड़े हुए थे। बाहर से तो जडता प्रतीत होती थी, किन्तु भीतर ही भीतर वे आनन्द में विह्वल हो रहे थे। गौएं चारों ओर खडी होकर प्रभु के श्रीअंग को सूँघ रही थीं। उन्हें बार-बार हटाते थे, किन्तु वे प्रभु के अंग के संग को छोडना ही नहीं चाहती थीं। फिर वहीं आ जाती थीं।’


अस्तु, भक्तों ने मिलकर संकीर्तन किया। कानों में जोरों से हरिनाम सुनाया, जल छिड़का, वायु की तथा और भी भाँति-भाँति के उपाय किये, किन्तु प्रभु को चेतना नहीं हुई। तब विवश होकर भक्तवृन्द उन्हें उसी दशा में उठाकर निवास स्थान की ओर ले चले। वहाँ पहुँचने पर प्रभु को कुछ-कुछ होश होने लगा। उनके हाथ पैर धीरे-धीरे पेट में से निकलकर सीधे होने लगे। शरीर में कुछ-कुछ रक्त का संचार सा होता हुआ प्रतीत होने लगा।

थोड़ी ही देर में अर्धबाह्य दशा में आकर इधर-उधर देखते हुए जोरों के साथ क्रन्दन करते हुए कहने लगे– ‘हाय, हाय ! मुझे यहाँ कौन ले आया ? मेरा वह मनमोहन श्याम कहाँ चला गया? मैं उसकी मुरली की मनोहर तान को सुनकर ही गोपियों के साथ उधर चली गयी। श्याम ने अपने संकेत के समय वही मनोहारिणी मुरली बजायी। उस मुरली-रव में ऐसा आकर्षण था कि सखियों की पांचों इन्द्रियां उसी ओर आकर्षित हो गयीं ठकुरानी राधारानी भी गोपियों को साथ लेकर संकेत के शब्द को सुनकर उसी ओर चल पडीं। अहा ! उस कुंज-कानन में वह कदम्ब विटप के निकट ललित त्रिभंगीगति से खडा बांसुरी में सुर भर रहा था। वह भाग्यवती मुरली उसकी अधरामृत पान से उन्मत्त सी होकर शब्द कर रही थी। उस शब्द में कितनी करुणा थी, कैसी मधुरिमा थी, कितना आकर्षण था, कितनी मादकता, मोहकता, प्रवीणता, पटुता, प्रगल्भता और परवशता थी। उसी शब्द में बावली बनी मैं उसी ओर निहारने लगी। वह छिछोरा मेरी ओर देखकर हँस रहा था।’

फिर चौंककर कहने लगे– ‘स्वरूप ! मैं कहाँ हूँ ? मैं कौन हूँ ? मुझे यहाँ क्यो ले आये ? अभी-अभी तो मैं वृन्दावन में था। यहाँ कहाँ?’ प्रभु की ऐसी दशा देखकर स्वरूप गोस्वामी श्रीमद्भागवत के उसी प्रसंग के श्लोकों को बोलने लगे। उनके श्रवणमात्र से ही प्रभु की उन्मादावस्था फिर ज्यों की त्यों हो गयी। वे बार-बार स्वरूप गोस्वामी से कहते– ‘हां सुनाओ, ठीक है वाह-वाह, सचमुच हाँ यही तो है, इसी का नाम तो अनुराग है’। ऐसा कहते-कहते वे स्वयं ही श्लोक की व्याख्या करने लगते। फिर स्वयं भी बड़े करुणस्वर में श्लोक बोलने लगते–

इस श्लोक की फिर आप ही व्याख्या करते-करते कहने लगे– ‘हाय ! दु:ख भी कितना असह्य है, यह प्रेम भी कैसा निर्दयी है। मदन हमारे ऊपर दया नहीं करता। कितनी बेकली है, कैसी विवशता है, कोई मन की बात को क्या जाने। अपने दु:ख का आप ही अनुभव हो सकता है। अपने पास तो कोई प्यारे को रिझाने की वस्तु नहीं ! मान लें वह हमारे नवयौवन के सौन्दर्य से मुग्ध होकर हमें प्यार करने लगेगा, सो यह यौवन भी तो स्थायी नहीं। जल के बुद्बुदों के समान यह भी तो क्षणभंगुर है। दो-चार दिनों में फिर अँधेरा-ही-अँधेरा है। हा ! विधाता की गति कैसी वाम है ! यह इतना अपार दु:ख हम अबलाओं के ही भाग्य में क्यों लिख दिया ? हम एक तो वैसे ही अबला कही जाती हैं, रहे-सहे बल को यह विरहकूकर खा गया। अब दुर्बलातिदुर्बल होकर हम किस प्रकार इस असह्य दु:ख को सहन कर सकें।’

इस प्रकार प्रभु अनेक श्लोकों की व्याख्या करने लगे। विरह के वेग के कारण आप से आप ही उनके मुख से विरहसम्बन्धी ही श्लोक निकल रहे थे और स्वयं उनकी व्याख्या भी करते जाते थे। इस प्रकार व्याख्या करते-करते जोरों से रुदन करते-करते फिर उसी प्रकार श्रीकृष्ण के विरह में उन्मत्त से होकर करुणकण्ठ से प्रार्थना करने लगे – " हा हा कृष्ण प्राणधन! हा हा पद्मलोचन ! हा हा दिव्यु सद्गुण-सागर ! हा श्यामसुन्दर, हा हा पीताम्बर-धर ! हा हा रासविलास-नागर ! काहां गेलेतोमा पाई, तुमि कह, ताहां याई ! एत कहि चलिला धाय्या ! हे कृष्ण ! हा प्राणनाथ ! हा पद्मलोचन ! ओ दिव्य सद्गुणों के सागर ! ओ श्यामसुन्दर ! प्यारे, पीताम्बरधर ! ओ रासविलासनागर ! कहाँ जाने से तुम्हें पा सकूँगा ?

तुम कहो वहीं जा सकता हूँ। इतना कहते-कहते प्रभु फिर उठकर बाहर की ओर दौड़ने लगे। तब स्वरूप गोस्वामी ने उन्हें पकड़कर बिठाया। फिर आप अचेतन हो गये।
महाप्रभु की विरह-वेदना अब अधिकाधिक बढ़ती ही जाती थी। सदा राधाभाव में स्थित होकर आप प्रलाप करते रहते थे। कृष्ण को कहाँ पाऊँ, श्याम कहाँ मिलेंगे, यही उनकी टेक थी। यही उनका अहर्निश का व्यापार था। एक दिन राधाभाव में ही आपको श्रीकृष्ण के मथुरागमन की स्फूर्ति हो आयी, आप उसी समय बड़े ही करुणस्वर में राधा जी के समान इस श्लोक को रोते-रोते गाने लगे–  
क्व नन्दकुलचन्द्रमा: क्व शिखिचन्द्रिकालंकत:
क्व मन्दमुरलीरव: क्व नु सुरेन्द्रनीलद्युति:।
क्व रासरसताण्डवी क्व सखि जीवरक्षौषधि
र्निधिर्मम सुहृत्तम: क्व बत हन्त हा धिग्विधिम्।।[2]

इस प्रकार विधाता को बार-बार धिक्कार देते हुए प्रभु उसी भावावेश में श्रीमद्भागवत के श्लोकों को पढ़ने लगे। इस प्रकार आधी रात तक आप अश्रु बहाते हुए गोपियों के विरहसम्बन्धी श्लोकों की ही व्याख्या करते रहे।

अर्धरात्रि बीत जाने पर नियमानुसार स्वरूप गोस्वामी ने प्रभु को गम्भीरा के भीतर सुलाया और राय रामानन्द अपने घर को चले गये।

  
महाप्रभु उसी प्रकार जोरों से चिल्ला-चिल्लाकर नाम-संकीर्तन करते रहे। आज प्रभु की वेदना पराकाष्ठा को पहुँच गयी। उनके प्राण छटपटाने लगे। अंग किसी प्यारे के आलिंगन के लिये छटपटाने लगे। मुख किसी के मुख को अपने ऊपर देखने के लिये हिलने लगा। ओष्ठ किसी के मधुमय, प्रेममय शीतलतापूर्ण अधरों के स्पर्श के लिये स्वत: ही कँपने लगे। प्रभु अपने आवेश को रोकने में एकदम असमर्थ हो गये। वे जोरों से अपने अति कोमल सुन्दर श्रीमुख को दीवार में घिसने लगे। दीवार की रगड़ के कारण उसमें से रक्त बह चला। प्रभु का गला रुँधा हुआ था, श्वास कष्ट से बाहर निकलता था। कण्ठ घर-घर शब्द कर रहा था। रक्त के बहने से वह स्थान रक्तवर्ण का हो गया। वे लम्बी–लम्बी सांस लेकर गों-गों ऐसा शब्द कर रहे थे। उस दिन स्वरूप गोस्वामी को भी रात्रिभर नींद नहीं आयी। उन्होंने प्रभु का दबा हुआ ‘गों-गों’ शब्द सुना। अब इस बात को कविराज गोस्वामी के शब्दों में सुनिये–
विरहे व्याकुल प्रभुर उद्वेग उठिला।
गम्भीरा-भितरे मुख घर्षिते लागिला।।
मुखे, गण्डे, नाके, क्षत हइल अपार।
भावावेश ना जानेन प्रभु पड़े रक्तधार।।
सर्वरात्रि करने भावे मुखसंघर्षण।
गों-गों शब्द करने, स्वरूप सुनिल तखन।।[1]

गों-गों शब्द सुनकर स्वरूप गोस्वामी उसी क्षण उठकर प्रभु के पास आये। उन्होंने दीपक जलाकर जो देखा उसे देखकर वे आश्चर्यचकित हो गये। महाप्रभु अपने मुख को दीवार में घिस रहे हैं। दीवार लाल हो गयी है, नीचे रुधिर पड़ा है। गेरुए रंग के वस्त्र रक्त में सराबोर हो रहे हैं। प्रभु की दोनों आँखें चढ़ी हुई हैं। वे बार-बार जोरों से मुख को उसी प्रकार रगड़ रहे हैं। नाक छिल गयी है। उनकी दशा विचित्र थी–

रोमकूपे रक्तोद्गम दंत सब हाले।
क्षणे अंग क्षीण हाय क्षणे अंग फूले।।

जिस प्रकार सेही नाम के जानवर के शरीर पर लम्बे-लम्बे काँटे होते हैं और क्रोध में वे एकदम खड़े हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रभु के अंग के सम्पूर्ण रोम सीधे खड़े हुए थे, उनमें रक्त की धारा बह रही थी। दाँत हिल रहे थे और कड़-कड़ शब्द कर रहे थे। अंग कभी तो फूल जाता था और कभी क्षीण हो जाता था। स्वरूप गोस्वामी ने इन्हें पकड़कर उस कर्म से रोका। तब प्रभु को कुछ बाह्य ज्ञान हुआ।

 स्वरूप गोस्वामी ने दु:खित चित्त से पूछा– ‘प्रभो ! यह आप क्या कर रहे हैं? मुँह को क्यों घिस रहे हैं?’महाप्रभु उनके प्रश्न को सुनकर स्वस्थ हुए और कहने लगे– ‘स्वरूप ! मैं तो एकदम पागल हो गया हूँ। न जाने क्यों रात्रि मेरे लिये अत्यन्त ही दु:खदायी हो जाती है। मेरी वेदना रात्रि में अत्यधिक बढ़ जाती है। मैं विकल होकर बाहर निकलना चाहता था। अँधेरे में दरवाजा नहीं मिला। इसीलिये दीवार में दरवाजा करने के निमित्त मुँह घिसने लगा। यह रक्त निकला या घाव हो गया, इसका मुझे कुछ पता नहीं।’ 
इस बात से स्वरूप दामोदर को बडी चिन्ता हुई। उन्होंने अपनी चिन्ता भक्तों पर प्रकट की, उनमें से शंकर जी ने कहा– ‘यदि प्रभु को आपत्ति न हो, तो में उनके चरणों को हृदय पर रखकर सदा शयन किया करूँगा, इससे वे कभी ऐसा काम करेंगे भी तो मैं रोक दूँगा।’ उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की, प्रभु ने कोई आपत्ति नहीं की। इसलिये उस दिन से शंकर जी सदा प्रभु के पादपद्मों को अपने वक्ष:स्थल पर धारण करके सोया करते थे। 

प्रभु इधर से उधर करवट भी लेते, तभी उनकी आँखें खुल जातीं और वे सचेष्ट हो जाते। रात्रि-रात्रिभर जाकर प्रभु के चरणों को दबाते रहते थे। इस भये से प्रभु अब बाहर नहीं भाग सकते थे। उसी दिन से शंकर जी का नाम पड़ गया ‘प्रभुपादोपाधान’। सचमुच वे प्रभु के पैरों के तकिया ही थे। 

 जितने अधिक अवर्णनीय महाप्रभु लीला संस्करण है उतने ही अधिक प्रभु के सेवक भी अवर्णनीय है, उनकी भक्ति,श्रद्धा,विश्वास और अखंड सेवा को कोटिशः प्रणाम है,

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DIVINE LOVE: महाप्रभु की गम्भीरा लीला:महाप्रभु की कृष्ण-विरह की महादशा (Part5)
महाप्रभु की गम्भीरा लीला:महाप्रभु की कृष्ण-विरह की महादशा (Part5)
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