लक्ष्मणगीता "कर्म सूत्र" लक्ष्मण गीता रामचरित्रमानस का एक ऐसा प्रसंग है जिसका जिक्र अल्प कथाओ में होता है, भगवतगीता जोकि ...
लक्ष्मणगीता "कर्म सूत्र"
लक्ष्मण गीता रामचरित्रमानस का एक ऐसा प्रसंग है जिसका जिक्र अल्प कथाओ में होता है, भगवतगीता जोकि भगवान् कृष्ण द्वारा बताये गए कर्मयोग पर आधारित है ऐसे ही रामचरितमानस में वन गमन के समय जब निषाद राज और लखनलाल रात्रि के समय पहरेदारी करते है तभी लक्ष्मण और निषाद राज के बीच संवाद होता है जिसमे लखन जी कर्म मीमांसा का उलेख करते है जो लक्ष्मण गीता के नाम से जानी जाती है,
"बोले लखन मधुर मृदु बानी , ज्ञान विराग भगति रस सानी .काहू न कोउ सुख दुःख कर दाता , निज कृत करम भोग सबु भ्राता "(अयोध्या कांड )
जैसे ही निषादराज अति अकुलाये और केकैयी को प्रभु राम और जानकी जी के दुःख का हेतु जानकर उन्हें दोषी कहते है, और भाग्य को कोसते है तब लक्ष्मण जी ज्ञान वैराग और भक्तियुक्त वाणी से कहते है, हे निषाद राज ! इस संसार में कोई भी किसी के सुख और दुःख का कारण नही बन सकता, सब अपने कर्मो से जनित दुःख और सुख भोग करते है, यदि कोई एक दूसरे के सुख और दुःख का कारण बन सकते तो हम अपने प्रिय अर्थात प्रभु और माता जानकी का सब दुःख लेकर उन्हें परम् सुख दे सकते है,लेकिन यह उचित नही है और सब अपने अपने कर्मो का ही फल भोगते है, यदि ऐसा न होता तो कोई भी माता अपनी संतान को दुःख नही भोगने देती क्योंकि माता का हृदय सदैव अपनी संतान का सुख चाहती है किन्तु फिर भी उसकी संतान सुख दुःख भोग करती है क्योकि यह उनके कर्मजनित भोग है, जब कोई कर्ता बन कर कोई कर्म करता है तो उसका परिणाम चाहे वह अच्छा सकारात्मक हो या नकारात्मक भोगना पड़ता है, न ही कोई परिस्थितियां सुख दुःख के लिए दोषी होती है क्योंकि हर प्रस्थिति में कर्ता तो हम स्वयं है इसलिए किसी को दोष देना उचित नही है, बल्कि उचित तो यह है की अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मो को सुधारा जाए और कोई भी कर्म करने से पहले थोड़ा धैर्य रखकर करना चाहिए, कोई भी कर्म करने से पहले राग और द्वेष को निकाल कर उस पर विचार कर लिया जाए गया तो हमारा कर्म सुधर जाता है,
" कर्म प्रभाव विश्व करि राखा I जो जस करिहि सो तस फल चाखा II"
लक्ष्मण जी निषादराज से गंभीर हो कर कहते है, हे निषादराज संसार में जितने भी भोग विलास ऐश्वर्य है सब राग और द्वेष को उत्तपन करनेवाले है,कोई भी कार्य जो इन भावनाओ से प्रेरित होता है परमार्थ नही होता और निज स्वार्थ होता है, ऐसे कर्मो को करके ही जीव कर्मबन्धनों में जकड़ जाता है, एक इच्छा के बाद दूसरी फिर और और और ऐसा करते करते इतने कर्मबन्धन हो जाते है की वह कभी हर्षित तो कभी दुःख भोगता है, जब राग के वशीभूत होता है अर्थात मोह,विषय वासना वात्सल्य,प्रेम, स्पर्श इत्यादि ऐसी भावना जो सुख की इच्छा से उत्पन्न होती है ऐसा कर्म करने पर सुख की अनुभूति होती है और द्वेष अर्थात बदल,अपमान,ईर्ष्या,अभिमान,परपीड़ा,आदि भावो के वशीभूत यदि हम कर्म करते है तो यह सब दुखो ओ उत्तपन करते है अतः हमारे कर्म ही हमारे सुख दुःख का कारण है, हम सांसारिक जिव यदि कर्मो के इस महत्व को समझ लेते है और परोपकार के भाव से कर्म करे तो समभाव में रहते है, और रही बात प्रभु श्री राम और माता जानकी जी की तो यह तो परं परमात्मा है और इनका जन्म तो किसी विशेष उदेश्य से अर्थात भूमि,संत और भक्तो के संताप को हरने के लिए हुआ है अतः प्रभु की कोई भी लीला इन्हें सुख और दुःख नही देती है, और जिसका जन्म ही परमार्थ के लिए हुआ हो उन्हें कौन सुखी या दुखी कर सकता है,इसलिए आप दुखी मत हो यह तो प्रभु की लीला का ही अंश है और प्रभु के कार्य पर किसी भी तरह का संसय नही करना चाहिए, और यह सब विषय तो हम जैसे सांसारिक जीवो के लिए है जिन्हें जानकर हम कुछ सीखे और प्रभु के द्वारा दिखाए गए परमार्थ के मार्ग पर चले, हम जीवों को अपने कर्म और भाव प्रभु चरणों में समर्पित कर देने चाहिए और फल को प्रभु इच्छा पर छोड़कर विवेक से कर्मो को सुधारना चाहिए, इसलिए कभी किसी दूसरे को अपने सुख-दुःख का कारण न जानकर प्रेमपूर्ण, परमार्थयुक्त जीवन जीना ही कल्याणकारी है।
करता था तो क्यों रहा ,अब काहे पछताय ,
बोया पेड़ बबूल का ,आम कहाँ से खाय ।
भगवान गौतम बुद्ध ने कहा कि," प्राणी स्वयं अपने कर्मों के स्वामी हैं। वे अपने कर्मों की ही विरासत पाते हैं। अपने कर्मों से ही उत्पन्न होते हैं और अपने कर्मों के बंधन में बंधते हैं। उनके कर्म ही उनके शरणदाता हैं। कर्म जैसे शुभ-अशुभ होंगे, परिणाम भी वैसे ही शुभ-अशुभ होंगे। और उनके अनुसार ही भोग भोगेंगे। जो कुछ हमें भोगना पड़ता है वह हमारे ही किए का फल है।" व्यर्थ रूप से किसी अन्य जीव को या विधाता को दोष देने से कोई लाभ नहीं होता है क्योंकि ऐसा करने का भार भी हमारा ही है, जब काम,क्रोध,मद-दम्भ और लोभ के नशे में हम कोई कुकृत्य क्र रहे होते है तब थोड़ा धैर्य नहीं रख पाते और जब उन कर्मो का फल मिलता है, तो उस समय भगवान् ने ऐसा क्यों किया? ऐसा आरोप लगते है, स्वयं के कर्मो का स्वामी होने का अभिप्राय यही है की हे! जीव तुम कर्म करने के लिए स्वतंत्र हो, जैसा चाहो करो, क्योंकि तुम अपने मन के स्वामी हो, किन्तु उसके पारितोषिक स्वरुप जो फल मिलेगा, उसके मालिक तुम नहीं हो बल्कि वह कर्म है जो तुमने किये है, किया हुआ चाहे नया हो या पुराना, उसका फल 'अवश्यमेव भोक्तव्यं।' निष्कर्ष यही कि कर्म करना हमारे वश की बात है। भाग्य हमारे आधीन है। हम जैसा चाहें, वैसा भविष्य बना सकते हैं।
कर्म राग और द्वेष के जनक हैं। हमारे मन की अनचाही होती है तो द्वेष उत्पन्न होता है और मनचाही होती है तो राग। इस राग, द्वेष का प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है। चाहे क्षणिक (अल्पकालिक) हो अथवा दीर्घकालिक पर पड़ता अवश्य है। बार-बार होने पर इनका प्रभाव संचयी (क्युमुलेटिव) हो जाता है। इस प्रकार उनके प्रति तृष्णा पैदा हो जाती है। और यह तृष्णा संस्कार डालती है। एक उदाहरण से समझें तो हम इन्हें पानी, रेत या पत्थर पर लकीर की उपमा दे सकते हैं। जो संस्कार जितना गंभीर होता है वह उतना ही गहरा प्रभाव डालता है। अर्थात मन के रुचै होता रहा तो राग अत्यधिक हो जाएगा और अनचाहा हुआ तो द्वेष और यही कर्मबन्धन का कारण है जो हमारे भविष्य के जीवन में होने प्रभाव निश्चित करते है,
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