एक कहानी स्मरण हो आयी, एक बार एक महात्मा जी किसी गृहस्थ के यहां भिक्षा के लिए द्वार पर खड़े है कि भीतर से बर्तन-भांडे फूटने कि आवाज आ ...
एक कहानी स्मरण हो आयी, एक बार एक महात्मा जी किसी गृहस्थ के यहां भिक्षा के लिए द्वार पर खड़े है कि भीतर से बर्तन-भांडे फूटने कि आवाज आ रही थी और पति-पत्नी के झगडे कि जोर-जोर से आवाज होने लगी, अब महात्मा जी से देखा न गया और ऊँची आवाज से भिक्षा मांगने लगे ताकि आवाज सुनकर कोई एक तो बाहर आ जाए, कुछ देर बाद महिला बाहर आयी, तब महात्मा जी ने नम्रता से शांत भाव से पूछा बेटी ऐसे शोर-शराबा और झगड़ा उचित नहीं है, थोड़ी संकोच से वह बोली बाबा, क्या करु, छोटी छोटी बातो से पहाड़ बन जाता है और आये दिन झगड़ा बढ़ जाता है, तब महात्मा जी बोले में एक उपाय देता हूँ कर लोगी? तब वह महिला बोली बाबा कौन अपने घर शांति नहीं चाहता, आप बताइये, बाबा ने एक बोतल अपनी झोली से निकली और बोले जब भी झगड़ा बढ़ने लगे तो कुछ बुँदे इस औषधि कि अपने मुख में डाल लेना और जब तक लगे कि झगड़ा ख़त्म नहीं हो रहा इसे मुँह में ही रखना, बिलकुल भी न निगलना और न बाहर निकलना झगड़ा बंद हो जाए तब पी लेना, ठीक है महाराज जी, ऐसा कहा और महिला ने औषधि की बोतल रख ली, अब जैसे ही झगड़ा शुरू होता वह औषधि मुख में रख लेती और कुछ भी नहीं बोल पाती, बेचारा पति बोल बोल कर कुछ ही क्षण में चुप हो जाता, झगड़ा ख़त्म और महिला औषधि पी लेती और शांति से अपना कार्य करने लगती, कुछ दिनों के बाद बाबा फिर से आये तो एकदम शांति थी, बाबा ने सोचा औषधि काम कर गयी है, भिक्षाम देहि! जैसे ही आवाज़ लगाई महिला पहचान गयी व्ही बाबा आये है, दौड़कर प्रणाम किया और बहुत धन्यवाद दिया की आपकी औषधि से हमारा कल्याण हो गया, बाबा हसने लगे, और रहस्य बताया की बेटी, कोई औषधि मैंने नहीं दिया तुम्हे वह तो केवल गंगाजल है, या कोई भी साधारण जल हो सकता है, असली औषधि तो मौन है,अर्थात जब तुम मुख के जल के कारण शांत रही कुछ बोली नहीं तो झगड़ा कैसे बढ़ सकता था, तुम्हारा मौन रहना ही इस समस्या का हल है, और केवल इस समस्या का ही नहीं जीवन में बहुत सी समस्या का हल मौन है, इसलिए जीवन की शांति के लिए मौन रहने का अभ्यास अवश्य करना चाहिए,
मौन
मौन: मौन शब्द अपने आप में ही शांति का अनुभव देता है, और मौन का अभ्यास किया जाए तो यह अंतर्मन को शांत कर देता है और जब अंतर्मन शांत होता है तो स्वतः ही ध्यान होने लगता है फिर इसे करने की नहीं किन्तु अनुभव की आवश्यकता ही रह जाती है, अतः मौन का अभ्यास हमे ध्यान की और ले जाता है और आध्यात्मिक दृष्टि से मौन हमे भजन की ओर स्वतः ले जाता है भजन करना नहीं पड़ता बल्कि निरंतर हमारे भीतर होने लगता है, "सादर सुनहि ते तरहिं भव सिंधु बिनु जलयान" जैसे सूंदर कांड के लिए कहा है जो इसे सुन लेगा बिना प्रयास भव पार हो जायेंगे, ऐसे ही मौन साधना से कोई प्रयास करना ही नहीं पड़ेगा स्वतः साधना हो जाएगी,
ईश्वर के आलोकिक प्रेम को पाने का अनुभव का सबसे सरल तरीका है मौन साधना, मौन का अर्थ न केवल मुख से मौन बल्कि मन को भी मौन करना क्योंकि हम मुँह तो बंद कर लेंगे लकिन आँखों से हाथो से इशारो से बोलते रहते है वह सही मौन साधना नहीं है, बल्कि मन को भी चुप रखना मौन है,कोई प्रयास नहीं शांत अभ्यास से ही सम्भव है ऐसा लकिन एक बार मौन का आनंद आ गया तो फिर सब आनंद भीतर ही प्रगट हो जाएंगे,
मौन एक ऐसी साधना है जो हमे दुसरो पर विजय पाना नहीं बल्कि स्वयं पर विजय पाना सिखाता है,और जिसने स्वयं पर काबू पा लिया फिर वह किसी भी स्थिति में पराजित नहीं होता, आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी सबसे पहले अपने मन पर काबू पाने के लिए कहता है, क्योंको जब तक स्वयं के मन के घोड़े चारो दिशाओ में भागते रहेंगे कोई भी मंजिल पर पहुंचना सार्थक नहीं होता, इसलिए मन रुपी अश्व को नियंत्रण करने की साधना ही मौन है, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखे तो श्री गीताजी में भी मन पर नियंत्रण के लिए भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है, अपने जीवनशैली की दृष्टि से भी देखे तो हम अपने बच्चो को यही सिखाते है की एकाग्रचित से पढ़ो,या कोई खेल भी खेलते है तो एकाग्रता की बात होती है,यहां पर हमारा ध्येय भी यही है की, कहना तो सरल है एकाग्रता के लिए किन्तु कभी यह भी तो बताना आवश्यक है की एकाग्रता होगी कैसे? और इसका सरल सा जवाब यहीं है की मौन को साधना और मौन से मन को साधना,मन को नियंत्रित करना, मौन से लगाम कसना जोकि हमे ध्यान की और ले जाए और जब ध्यान होने लग गया तो एकाग्रता के लिए कोई प्रयास नहीं, कोई जोर जबरदस्ती नहीं स्वतः ही एकाग्रता जागृत होने लगेगी,यही एकाग्रता स्वयं पर विजय पाना है और यही सब पर विजय पाना है,
ईश्वर के आलोकिक प्रेम को पाने का अनुभव का सबसे सरल तरीका है मौन साधना, मौन का अर्थ न केवल मुख से मौन बल्कि मन को भी मौन करना क्योंकि हम मुँह तो बंद कर लेंगे लकिन आँखों से हाथो से इशारो से बोलते रहते है वह सही मौन साधना नहीं है, बल्कि मन को भी चुप रखना मौन है,कोई प्रयास नहीं शांत अभ्यास से ही सम्भव है ऐसा लकिन एक बार मौन का आनंद आ गया तो फिर सब आनंद भीतर ही प्रगट हो जाएंगे,
मौन एक ऐसी साधना है जो हमे दुसरो पर विजय पाना नहीं बल्कि स्वयं पर विजय पाना सिखाता है,और जिसने स्वयं पर काबू पा लिया फिर वह किसी भी स्थिति में पराजित नहीं होता, आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी सबसे पहले अपने मन पर काबू पाने के लिए कहता है, क्योंको जब तक स्वयं के मन के घोड़े चारो दिशाओ में भागते रहेंगे कोई भी मंजिल पर पहुंचना सार्थक नहीं होता, इसलिए मन रुपी अश्व को नियंत्रण करने की साधना ही मौन है, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखे तो श्री गीताजी में भी मन पर नियंत्रण के लिए भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है, अपने जीवनशैली की दृष्टि से भी देखे तो हम अपने बच्चो को यही सिखाते है की एकाग्रचित से पढ़ो,या कोई खेल भी खेलते है तो एकाग्रता की बात होती है,यहां पर हमारा ध्येय भी यही है की, कहना तो सरल है एकाग्रता के लिए किन्तु कभी यह भी तो बताना आवश्यक है की एकाग्रता होगी कैसे? और इसका सरल सा जवाब यहीं है की मौन को साधना और मौन से मन को साधना,मन को नियंत्रित करना, मौन से लगाम कसना जोकि हमे ध्यान की और ले जाए और जब ध्यान होने लग गया तो एकाग्रता के लिए कोई प्रयास नहीं, कोई जोर जबरदस्ती नहीं स्वतः ही एकाग्रता जागृत होने लगेगी,यही एकाग्रता स्वयं पर विजय पाना है और यही सब पर विजय पाना है,
COMMENTS