कर्म- जिज्ञासा हम सब के जीवन में सदैव ऐसी स्थिति आती रहते है, जिसमे यह निर्णय करना बहुत कठिन हो जाता है की किसी कार्य को ऐसे करन...
कर्म- जिज्ञासा
हम सब के जीवन में सदैव ऐसी स्थिति आती रहते है, जिसमे यह निर्णय करना बहुत कठिन हो जाता है की किसी कार्य को ऐसे करना चाहिए या नहीं करना चाहिए, या किसी के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए या नहीं करना चाहिए, अपने कर्तव्य का निर्णय नहीं कर पाते, ऐसी ही स्थिति कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध के समय अर्जुन को भी हुयी, वह अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा है, क्यों ? क्योंकि जब वह अपने दादा, भाइयो,गुरु और अन्यान्य रिश्तेदारों को अपने समक्ष देखता है तो उसे लगता है इन सब से युद्ध करना गलत है, अपने संबंधियों पर शस्त्र चलना सही नहीं होगा, कैसे इनके साथ युद्ध किया जाए? इत्यादि
सधारणतः कर्म-जिज्ञासा को समझने का प्रयास किया जाए तो यही कहा जा सकता है कि कर्म अर्थात कोई भी कार्य और जिज्ञासा अर्थात उस कर्म को करने की इच्छा, या ऐसा हो सकता है की किसी कार्य को करने या न करने की इच्छा, श्री गीता जी में किसी कर्म को करने या न करने की दुविधा के निवारण को कर्म-जिज्ञासा का नाम दिया गया है, जब अर्जुन को मोह हुआ और वह अपनी कर्तव्य विमूढ़ता से ग्रसित गांडीव रखकर युद्ध न करने की कहता है तब श्री कृष्ण उसे गीता ज्ञान के द्वारा कौन सा कर्म कब करना या कब नहीं करना चाहिए,इन सब बातो का उल्लेख करते है,
मनु जी द्वारा नीतिधर्म के पांच नियम बतलाये है जो सभी वर्णो के लिए कहे गए है, " अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:"
अर्थात 'अहिंसा,सत्य,अस्तेय,काया,वाचा और मन की शुद्धता एवं इन्द्रियनिग्रह'
अभी प्रथम विषय अहिंसा पर ही विचार किया जाए तो अच्छा है, " अहिंसा परमो धर्मः " अहिंसा सभी धर्मो का प्रमुख तत्व है,अर्थात सभी धर्मो में अहिंसा प्रधान तत्व कहलाता है,बौद्ध-ईसाई धर्मग्रंथो में जो आज्ञाएं है, उनमे अहिंसा को,मनु जी के समान पहला स्थान दिया है, हिंसा क्या है? केवल किसी की जान ले लेना हिंसा नहीं है, हिंसा में किसी के मन या शरीर को दुःख देने का भी समावेश किया जाता है,अर्थात किसी सचेतन प्राणी को किसी भी प्रकार से दुखी न करना ही अहिंसा है, इस संसार में सभी मतानुसार अहिंसा सबसे बड़ा धर्म माना गया है,
अहिंसा सर्वोपरि धर्म है, किन्तु कोई दुष्ट आपके घर में घूंस कर आपको या आपके परिवार को हानि पहुँचाने की कोशिश करे,तो ऐसी स्थिति में उसे बलात रोकना या मरना क्या है? हिंसा और क्या ऐसा करना सही है या गलत है? " गुरुं व बालवृद्धो व ब्राह्मणं व बहुश्रुतम I
आततायिनमायान्तं हन्यादेवविचारयन II"
ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर मनु जी ने कहा है," ऐसे आततायी या दुष्ट मनुष्य को अवश्य मार डालना चाहिए, ऐसा विचार न करे कि वह गुरु है, वृद्ध है,बालक है, विद्वान या ब्रह्मण है," शास्त्रकार कहते है कि,
" ऐसे समय हत्या करने वाले को पाप नहीं होता, किन्तु आततायी मनुष्य अपने अधर्म के कारण मारा जाता है, आत्मरक्षा का यह हक , कुछ मर्यादा के भीतर , आज भी कानून में स्वीकृत है, ऐसे मोको पर स्वयं बचाव ( सेल्फ डिफेन्स ) को अहिंशा से अधिक महत्वपूर्ण समझा जाता है, हिंसा में भ्रूण हत्या को सबसे बड़ी हिंसा और निंदनीय घोर पाप मन गया है,"
अर्जुन उवाच,
" सूक्ष्मयोनिनी भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित I
पक्ष्मणोपि निपातें येषां स्यात स्कंधपयर्य II "
" इस जगत में ऐसे सूक्ष्म सूक्ष्मतर जंतु है कि जिनका अस्तित्क यद्यपि नेत्रों से देख नहीं पाते, तथापि तर्क से सिद्ध है, ऐसे जीव जंतु इतने है कि यदि हम पलक भी हिलावे तो तो उनका नाश हो जाता है, ऐसे में यदि हम कहते रहे कि 'हिंसा मत करो" तो क्या लाभ है?"
तभी एक बात और बताई गयी, इस जगत में कौन किसको नहीं खाता? "जीवों जीवस्य भोजनम " यह नियम सर्वत्र दिखाई पड़ता है, आपातकाल में तो "प्राणसयाणमिदं सर्वम" यह नियम स्मृतिकारों ने ही नहीं अपितु उपनिषदों में भी स्पष्ट कहा गया है, यदि सब लोग हिंसा छोड़ दे तो क्षात्र धर्म का क्या होगा? यदि क्षात्रधर्म नष्ट हो गया तो प्रजा का रक्षण कैसे हो सकता है?
अर्थात अभिप्राय यह है कि जैसे निति धर्म के सामान्य नियमो से ही सदा काम नहीं चलता, यद्यपि अहिंसा प्रधान तत्व है धरम का किन्तु इसमें भी कर्तव्य-अकर्तव्य का सूक्ष्म विचार करना पड़ता है,
अहिंसा धर्म के साथ, दया , शांति, आदि गुण शास्त्रों में कहे गए है, किन्तु सभी समय शांति से भी काम नहीं होता जैसे कोई दुष्ट प्रहार करे, या घर-परिवार को लूटने कि कोशिश करे, ऐसे में कोई कैसे शांति धारण कर सकता है,
इस विषय में प्रह्लाद जी ने अपने नाति, राजा बलि से कहा है,
" न श्रेय: सततं तेजो न नित्यं श्रेयसी क्षमाI
तस्मान्नित्यं क्षमा तात पंड़ितैरप्वादिता II "
सदैव क्षमा करना या क्रोध करना श्रेयस्कर नहीं होता, इसीलिए हे तात! पंडितों ने क्षमा के लिए कुछ अपवाद कहे है, कुछ अवसर बताये गए है क्षमा के लिए,
सत्य : सत्य के सिवा और धर्म नहीं है, सत्य ही परब्रह्म है, महाभारत में अनेको बार इस बात का उल्लेख किया गया है कि,' नास्ति सत्यपरो धर्म ' और यह भी लिखा है कि,
" अश्वमेध सहस्त्रम च सत्यम च तुल्य दृतम I
अश्वमेधसहस्त्रादि सत्यमेव विशिष्यते II "
" हजार अश्वमेध और सत्य कि तुलना कि जाए तो सत्य का पलड़ा भारी होगा"
सत्य के विषय में मनु जी ने कहा है कि,
"वाच्यर्था नियतः सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिः: सुता: I
तां तू यः स्तेन येदवाचम स सर्व स्तेय कृण्णर: II"
" मनुष्य के सब व्यवहार वाणी से हुआ करते है, एक के विचार दूसरे को पहुंचाने के लिए शब्द के समान कोई अन्य साधन नहीं है, वही सब व्यवहारों का आश्रय स्थान और वाणी का मूल होता है,जो मनुष्य उसको मलिन कर डालता है, अर्थात जो वाणी को प्रतारणा करता है, वह सब पूंजी ही कि चोरी करता है" इसलिए मनु ने कहा है,"सत्यपूतां वदेद्वाञ्च'" जो सत्य से पवित्र किया गया हो, वही बोलै जाए, धर्म में भी सत्य को पहला स्थान देने के लिए उपनिषद में कहा है,'सत्यम वद,धर्म चर '
यह बात अकल्पनीय सी लगती है कि जो सत्य सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण तत्व है, स्वयं सिद्ध है, चिरस्थायी है,उसके भी कुछ अपवाद हो सकते है, किन्तु यह बात भी सत्य है,क्योंकि दुष्ट जनो से भरे इस जगत का व्यवहार बहुत कठिन है, उदहारण स्वरुप कुछ लोग डाकुओं से बचकर भागे हुए तुम्हारे सामने कहि छिप जाते है,और डाकू तुमसे पूछे जाने पर क्या तुम उन्हें सत्य बता दोगे? या उन निर्दोषो की रक्षा करोगे?
शास्त्र के अनुसार निरपराधी जीवों की हिंसा को रोकना, सत्य ही के समान महत्व का धर्म है, मनु के अनुसार जब तक कोई प्रश्न न करे तब तक किसी से बोलना नहीं चाहिए, और कोई अन्याय से अर्थात जान बूझकर बुलवाने की चेष्टा करे तो तो भी पूछने पर भी उत्तर नहीं देना चाहिए, यदि मालूम भी हो तो पागल बन जाना चाहिए और हूँ हाँ कर के टाल देना चाहिए,ऐसा करना झूट अर्थात असत्य होकर भी असत्य नई कहा जाता है, महाभारत में कई जगह कहा गया है," धारणा से बहाना करके मन का समाधान नहीं कर लेना चाहिए,क्योंकि धर्म को कोई धोखा नहीं दे सकता, तुम स्वयं धोखा खा जाओगे,यदि हूँ हाँ से भी काम न चले तो क्या करना चाहिए? कर्णपर्व में श्री कृष्ण ने अर्जुन को और शांतिपर्व में सत्यव्रत अध्याय में भीष्म युधिष्ठिर से कहते है," यह बात विचपूर्वक निश्चित की गयी है की यदि मौन रहकर मोक्ष अर्थात किसी बात से छुटकारा हो सके तो, कुछ भी हो बोलना नहीं चाहिए, और यदि बोलना आवश्यक हो तो उस समय असत्य भी बोलना सही माना जा सकता है" इसका कारण यह है की धर्म केवल शब्दोच्चार के लिए नहीं है, अतैव जिस आचरण से सब लोगो का कल्याण हो वह आचरण, सिर्फ इस कारण से निंदनीय नहीं माना जा सकता की शब्दोच्चार अयथार्थ है, जिससे सभी को हानि हो,वह न तो सत्य ही है,और न ही अहिंसा है,
शांतिपर्व में नारद जी सनत्कुमार के आधार पर शुकदेव जी से कहते है कि,
'सत्यस्य वचन श्रेय: सत्यादपि हितं वदेत I
यद्भुतहितमतयन्तं एतत्सत्यम मतं मम II "
"सच बोलना अच्छा है,परन्तु सत्य से भी अधिक ऐसा बोलना अच्छा है,जिससे सभी प्राणियों का हित हो, क्योंकि जिससे सब प्राणियों का अत्यंत हित होता है,वही हमारे मत से सत्य है",
अर्जुन के विषय में एक कथा महाभारत में है, अर्जुन ने प्रतिज्ञा कि थी कि जो कोई मुझसे कहेगा कि, तू अपना गांडीव धनुष किसी दूसरे को दे दे, उसका सिर में तुरंत काट डालूंगा, इसके बाद युद्ध में जब युधिष्ठिर कर्ण से पराजित हुआ तब उसने निराश होकर अर्जुन से कहा," तेरा गांडीव हमारे किस काम का है,तू इसे छोड़ दे, ऐसा सुनकर अर्जुन तलवार सहित युधिष्ठिर को मारने के लिए दौड़ा, उस समय भगवान् कृष्ण वही थे, उन्होंने तत्वज्ञान कि दृष्टि से सत्यधर्म का मार्मिक विवेचन किया और अर्जुन को उपदेश दिया कि, तू मूढ़ है, तुम्हे अभी तक सूक्ष्म धर्म मालूम नहीं है, तुम्हे वृद्ध जनो से अर्थात ग्यानी जनो से इस विषय में शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए,' न वृक्ष: सविता-स्त्वया' तुम ने वृद्ध जनो कि सेवा नहीं कि है,यदि तुमने अपनी प्रतिज्ञा कि रक्षा करनी ही है,तो तू युधिष्ठिर कि निर्भरतस्ना कर क्योकि सभ्यजनों को निर्भरतस्ना मृत्यु के समान है, इस प्रकार अर्जुन को ज्येष्ठ भ्राता के वध के पाप से बचाया, इस समय भगवान् श्री कृष्ण ने जो सत्यम्रित-विवेक अर्जुन को बताया है, उसी को आगे चलकर शांतिपर्व के सत्यामृत नामक अध्याय में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा है,
इस प्रसंग में भातृप्रेम को सत्य से अधिक महत्व दिया है,और गीता में यह निश्चित किया गया है,कि बंधू प्रेम कि ओएक्षा क्षात्रधर्म प्रबल है, यह बात विरोधाभासी है किन्तु दोनों ही परिपूर्ण है क्योंकि इनमे निहित सूक्ष्मतर गूढ़ बातो को समझ पाना कठिन है,और अनुभव द्वारा ही इसको स्वयंसिद्ध परिस्थितियों अनुसार प्रयोग किया जाता है,
अस्तेय: अहिंसा और सत्य जैसे तत्व जब निर्विवादित नहीं है, तो क्या अस्तेय निर्विवादित हो सकता है? यह निति धर्म का तीसरा सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, सबसे पहले अस्तेय का अर्थ जानना आवश्यक है, अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना, मन, वचन और कर्म से किसी दूसरे की सम्पति को चुराने की इच्छा न करना, योग के सन्दर्भ में अस्तेय पांच यमो में से एक है,
एक बार बारह सालो तक भयंकर दुर्भिक्ष(अकाल) पड़ा तो महृषि विश्वामित्र पर बड़ी विपत्ति आयी और वे चांडाल के घर का अभक्ष्य भोजन चोरी करने को प्रवृत हुए, तब चांडाल ने उन्हें बहुत कुछ उपदेश दिया और चोरी के विषय में भी ज्ञान देने लगा, तब विश्वामित्र ने उसे डांटते हुए कहा तुम्हे मुझको ज्ञान देने का अधिकार नहीं है, और मेंढ़को के टर्र टर्र करने पर भी गाय पानी पीना नहीं छोड़ देती है, व्यर्थ अपना ज्ञान मत झाड़ और अपनी प्रशंसा मत कर, तभी उन्होंने यह भी कहा की, यदि जीवित रहेंगे तभी धर्म का पालन हो सकता है, यदि यह जीवन ही न रहा तो धर्म का पालन कैसे हो सकता है? इसलिए धर्म की दृष्टि से मरने की अपेक्षा जीवित रहना अधिक श्रेयस्कर है,
हाब्स नामक अंग्रेज ग्रंथकार लिखता है, " किसी कठिन समय में यदि अनाज मोल न मिले या दान में भी न मिले तो जीवन रक्षा के लिए और पेट भरने के लिए यदि छीनकर बलात या चोरी से तो भी यह अपराध क्षम्य है,
'मरने से जीवित रहना श्रेयस्कर है',यह कथन भी कोई विवाद रहित नहीं है, कहि कहि धरम के लिए जीवन त्याग भी श्रेष्ठ माना गया है, उदाहरणार्थ राजा शिवि जब धर्मराज स्वयं श्येन पक्षी बनकर कपोत के पीछे उसे मरने भागा तो वह कपोत राजा शिवि की शरण आ गया, तब राजा शिवि ने अपने शरीर का मांस काट कर उन्हें दिया और कपोत की रक्षा की, राजा दिलीप अपने गुरु वसिष्ठ की गाय की रक्षा करने के लिए सिंह को अपना शरीर बलिदान करने को ततपर हो गए,और बोले की हे सिंह! हमारे समान पुरुषो की इस पांच भौतिक शरीर में अनास्था रहती है, इस शरीर के बदले मेरे यशरूपी शरीर का ध्यान दे, इसलिए मेरे इस जड़ शरीर का भक्षण करो जिससे मेरे यश रुपी शरीर का मान बना रहे,
कथासरित्सागर और नागानंद नाटक में यह वर्णन है की सर्पो की रक्षा के लिए जीमूतवाहन ने गरुड़ को स्वयं अपना शरीर अर्पण कर दिया था,
वृतासुर नाम का देवताओ का एक शत्रु था, उसको मारने के लिए दधीचि ऋषि की हड्डियों द्वारा निर्मित वज्र की आवश्यकता थी, तब सभी देवता मिलकर ऋषि के पास गए और यह सब बताया," शरीर त्यागम लोक हितार्थ भवान करतुमहरती" हे महाराज! लोक के कल्याण के लिए आप देह का त्याग कीजिये" विनती सुनकर ऋषि ने देह त्याग कर अपनी अस्थियो का दान किया,
श्री समर्थ रामदास स्वामी कहते है," कीर्ति की और देखने में सुख नहीं है, और सुख की और देखने में कीर्ति नहीं है," वे यह भी उपदेश करते है की " हे सज्जन मन! ऐसा काम करो जिसमे मरने पर भी कीर्ति बनी रहे",
विरोधाभास के इन विचारो में की धर्म के लिए शरीर त्याग करना उचित है और धर्म के लिए शरीर की रक्षा करना उचित है, इन बातो को समझने के लिए आत्म-अनात्म-विचार में प्रवेश करना होगा और इसी के साथ कर्म-अकर्म शास्त्र का भी विचार करके यह जान लेना होगा की किस मौके पर जान देने के लिए तैयार होना उचित या अनुचित है? यदि इस बात पर विचार नहीं किया जाएगा, तो जान देने से यश की प्राप्ति तो दूर ही रही, परन्तु मूर्खता से आत्महत्या का पाप माथे चढ़ जाएगा,
माता-पिता, गुरु आदि वंदनीय है और पूजनीय भी इन की पूजा और शुश्रुषा करना भी सर्वमान्य धर्मो में से एक प्रधान धर्म समझा जाता है, यदि ऐसा न हो तो कुटुंब,गुरुकुल और सारे समाज की व्यवस्था ठीक नहीं रह सकती, शिष्यों को भी यही सिखाया जाता है, " मातृ देवो भव:, पितृ देवोभव:,आचार्य देवो भव:,
" उपाध्ययन दशाचार्य:अचार्यानं शतम पिता I ,
सहस्रं तू पितृन्माता गौरवनतिरिच्यते II "
" दस उपाध्याय से आचार्य और सौ आचार्यो से पिता, एवं हज़ारो पिताओ से भी माता का अधिक महत्व है,"
ऐसा होने पर भी कुछ परिस्थितियों में इस बात का उलँघन करना धर्मविरुद्ध नहीं है, जैसेकि पिता की आज्ञा से माता का वध परशुराम जी द्वारा, श्री रामचंद्र जी द्वारा पिता की आज्ञा से चौदह वर्ष वनवास जाना, इन तथ्यों में पिता का महत्व अधिक बनता है, किन्तु फिर भी नीतिधर्म के विरुद्ध नहीं है,ऐसा ही न्याय पिता के सन्दर्भ में भी हो सकता है, जैसे की कोई बालक राजा हो गया, और उसके पिता को जुर्म के लिए दण्डित करने के लिए लाया गया तो इस स्थिति में पुत्र क्या करेगा? राजा होने के नाता से अपराधी पिता को दंड दे या अपना पिता जानकर छोड़ दे, इस विषय में मनु जी का कथन है,
" पिताचार्य: सुहृन्माता भार्या पुत्र:पुरोहित: I,
नदंडो नाम राज्ञोास्ति य:स्वधर्मे न तिष्ठति II"
" अर्थात पिता, आचार्य, मित्र, माता,स्त्री और पुरोहित इनमे से कोई भी यदि अपने धर्म के अनुसार न चले तो वः राजा के लिए अदण्डनीय नहीं हो सकता अर्थात राजा उसे उचित दंड दे,"
ऐसी स्थिति में राजधर्म ही पुत्र धर्म से बड़ा माना जाता है, कई बार युवा व्यक्ति विद्वान हो जाता है, तो उसे अपने से बड़ो को उपदेश देने और उच्च आसान पर बैठने का अधिकार होता है, क्योंकि केवल सर के बाल स्वेत होने मात्र से कोई वृद्ध या विद्वान नहीं होता है, बल्कि युवा जो की ज्ञानवान है देवता उसे ही वृद्ध मानते है,
" न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिर: I
यौ वै युवापीढ़ियाँस्ट्म देवा: स्थविरम विदु: II"
माता-पिता आचार्यो के बाद गुरु के विषय में पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा," गुरु,माता-पिता से भी श्रेष्ठ है, किन्तु महाभारत का ही प्रसंग है, एक समय मृत राजा के गुरु ने लोभवश हो कर स्वार्थ के लिए उसका त्याग किया, तब मरुत ने कहा
" गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्यकार्यमजानत:I
उतपतपरतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनं II"
" यदि कोई गुरु इस बात का विचार न करे की क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, और घमंड के वशीभूत नीतिविरुद्ध मार्ग पर चले तो उसका शासन करना अर्थात उसका उपदेश पालन करना उचित नहीं है,
या उन्हें भी दण्डित करना राजा के लिए उचित है",
इसी आधार पर भीष्म ने पशुराम से और अर्जुन ने द्रोणाचार्य से युद्ध किया है, हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद के लिए जो गुरु नियुक्त किये वह उन्हें नीतिविरुद्ध शिक्षा दे रहे थे तब प्रह्लाद ने भी उनका त्याग किया था,
शांति पर्व में स्वयं भीष्म पितामह श्री कृष्ण से कहते है," यद्यपि गुरु पूजनीय है,तथापि उनको भी निति की मर्यादा का अबलम्ब करना चाहिए उनकी अवमानना नहीं करनी चाहिए, नहीं तो,
" समयतयागिने लुब्धान गुरुनपि च केशवI
निहन्ति समरे पापन क्षत्रिय: स हि धर्मवित"
" हे केशव! जो गुप्त मर्यादा, निति और शिष्टाचार को भंग करते है, और जो लोभी या पापी है,उन्हें लड़ाई में मारने वाला क्षत्रिय हि धर्मज्ञ कहलाता है",
इन सभी दृष्टांत का उल्लेख यहां इसलिए किया गया है कि, यद्यपि माता-पिता,आचार्य, गुरु को देवता-तुल्य मानना चाहिए तथापि वे शराब पीते हो, तो पुत्र और छात्र को अपने पिता या आचार्य का अनुसरन नहीं करना चाहिए, क्योंकि निति धर्म और मर्यादा का अधिकार माँ-बाप या गुरु से अधिक बलवान होता है, मनु जी कि निम्न आज्ञा का भी यही रहस्य है," धर्म कि रक्षा करो, यदि कोई धर्म का नाश करेगा, अर्थात धर्म कि आज्ञानुसार आचरण नहीं करेगा,तो वह उस मनुष्य का नाश किये बिना नहीं रहेगा" राजा को गुरु से भी श्रेष्ठ माना गया है,किन्तु वह भी कदापि धर्म से मुक्त नहीं हो सकता,यदि राजा भी धर्म का त्याग कर देगा तो उसका भी नाश होगा, मनुस्मृति में यह बात कहि गयी है,
इन्द्रिय निग्रह :
अहिंसा,सत्य और अस्तेय के साथ इन्द्रिय निग्रह कि भी गणना सामान्य धर्म में कि जाती है, काम, क्रोध,लोभ आदि मनुष्य के शत्रु है," काम क्रोध मद-लोभ सब नाथ नर्क के पंथ " इसलिए जबतक मनुष्य इनको जीत नहीं लेगा,तब तक समाज का कल्याण नहीं हो सकता, क्योंकि काम-क्रोध आदि दुर्गुणों से ग्रसित मनुष्य सामजिक बुराइयों को जन्म देता है, जैसे कि आज के समाज में हम देखते भी है कि किस तरह आये दिन बलात्कार, लूट-पाट, हत्या इत्यादि कि खबरे बढ़ती जा रही है, इन सब कारण धर्म विरोधी नीतियों का होना है, काम-क्रोध जैसे विकारो का हावी होना है, यह उपदेश सब शास्त्रों में किया गया है, विदुरनीति और भगवद्गीता में भी कहा है,
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन: I
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेत्त त्र्यं त्यजेत II"
" काम क्रोध और लोभ ये तीनो नर्क के द्वार है, इनसे मनुष्यमात्र का नाश हो जाता है,इसलिए इन दुर्गुणों का त्याग कर देना चाहिए,"
गीता में हि श्री कृष्ण ने अपने स्वरूप का वर्णन किया है, "धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतषर्भ " है अर्जुन! प्राणिमात्र में जो 'काम' धर्म के अनुकूल है, वही मैं हूँ ,अर्थात धर्म के विरुद्ध काम भाव वासना और विकार है,वही नर्क का द्वार है,धरम निति के अनुसार काम भोग करना ईश्वर को भी मान्य है,
मनु जी ने भी कहा है,"परित्यजेदर्थकामौ यो स्यातां धर्मवर्जितौ" जो अर्थ और काम धर्म के विरुद्ध है,उसका त्याग कर देना चाहिए, सृष्टि का क्रम जारी रखने के लिए, उचित मर्यादित काम और क्रोध कि अत्यंत आवश्यकता होती है, इन प्रबल मनोवृतियों का उचित रीती से निग्रह करना हि सब सुधारो का प्रधान उद्देश्य है,उनका नाश करना कोई सुधार नहीं है,
श्री मद्भागवत में भी कहा गया है,
"लोके व्यवायमिषमयसेवा नित्यास्ति जन्तोर्नहि तत्र चोदना I
व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञ सुरागरहैंरत्मनिवृत्तिरिष्टा II"
अर्थात इस दुनिया में किसी से यह कहना नहीं पड़ता कि तुम मैथुन, मांस और मदिरा का सेवन करो, ये बाते मनुष्य को स्वभाव से ही पसंद है, इन तीनो लोको कि कुछ व्यवस्था करने के लिए अर्थात इन के उपयोग को कुछ मर्यादित कर के व्यवस्थित कर देने के लिए शास्त्रकारों ने अनुक्रम से विवाह, सोमयाग और सौत्रामणी यज्ञ कि योजना कि है, परन्तु इस बात पर भी निवृति अर्थात निष्काम आचरण इष्ट है, कर्मयोग में 'निवृति' विषेशण क्रम ही के लिए उपयुक्त हुआ है,इसलिए 'निवृति कर्म' का अर्थ 'निष्काम बुद्धि' से किया जाने वाला 'कर्म' होता है,
क्रोध के विषय में किरातकाव्य में भारवि का कथन है,
" अमर्षशून्येन जनस्य जांचना न जातहादरेन न विद्विषादर:"
अर्थात जिस मनुष्य को अपमानित होने पर भी क्रोध नहीं आता उसकी मित्रता और द्वेष दोनों बराबर है,
क्षात्रधर्म के अनुसार देखा जाए तो विदुला ने यही कहा है,
" जिस मनुष्य को अन्याय पर क्रोध आता है, जो अपमान को सह नहीं सकता, वही पुरुष कहलाता है,जिसमे क्रोध नहीं है वह नपुंसक कहलाता है, संसार में व्यवहार कि दृष्टि से न ही सदैव क्रोध युक्त न ही सदैव क्षमाशील बन कर रहा जा सकता है, ऐसा ही लोभ के विषय में भी है, क्योंकि सन्यासी को भी मोक्ष प्राप्ति का ही सही लोभ तो होता ही है,
सारांश: सभी सद्गुण यद्यपि अपवाद से परिपूर्ण है,किन्तु इसके बावजूद भी सभी देश काम में मर्यादित है, कोई भी एक सदगुण हर समय शोभा नहीं पाता है, भृतहरि का कथन," विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युध्यि विक्रम:" संकट के समय धैर्य, अभ्युदय के समय अर्थात जब शासन करने वाले का सामर्थ्य हो तब क्षमा, सभा में वक्तुता और युद्ध में शूरता शोभा पाती है,
समता से बढ़कर कोई गुण श्रेष्ठ नहीं है, भगवद्गीता में स्पष्ट रीती से लिखा है," समः सर्वेषु भूतेषु" यही सिद्ध पुरुषो का लक्षण है,परन्तु समता क्या है? यदि कोई मनुष्य योग्यता-अयोग्यता का विचार न करके सब लोगो को समान दान करने लगे तो क्या हम अच्छा कहेंगे? इस प्रश्न का निर्णय भगवद्गीता में दिया है,
" देशे काले च पात्रे च तदानं सात्विकं विदुः " देश काल और पात्र का विचार कर जो दान किया जाता है वही सात्विक कहलाता है,काल कि मर्यादा सिर्फ वर्तमान काल ही के लिए नहीं होती, जो जो समय बदलता है,त्यों त्यों व्यवहारिक धर्म में भी परिवर्तन होता जाता है, इसलिए जब प्राचीन समय कि किसी बात कि योग्यता या अयोग्यता का परीक्षण करना होता है तो उसी समय के धर्म-अधर्म सम्बन्धी विशवास का भी अवश्य विचार करना पड़ता है,
मनु जी और व्यास जी कहते है;"अन्य कृतयुगे धर्मास्त्रेतायं द्वापरे अपरे, अन्य कलियुगे नृणाम यूगनहासानुरूपत" युगमान के अनुसार कृत , त्रेता और द्वापर और कलिकाल के धर्म भिन्न भिन्न है,
सारांश यही है कि धर्म के विभिन्न तत्व अहिंसा,सत्य अस्तेय इन्द्रियनिग्रह इत्यादि कोई भी अपवाद रहित नहीं है किन्तु फिर भी यह सब धर्म के स्तम्भ है, क्योंकि अपवाद केवल विभिन्न विशेष परिस्थितियों में मान्य है अन्यथा सामान्य स्थितियों में धर्म के अंग सुदृढ़ है और इन्ही के रूप में मान्य होते है, यदि इन धर्म के स्तम्भों कि अवहेलना कि जाती है तो न केवल धर्म का नाश होता है, सामजिक कुरीतिया जन्म लेती है और मानव मात्र का पतन होता है, अतः जब भी धर्मानुकूल आचरण कि बात होगी तो इन तत्वों को अपवाद सहित और अपवाद सहित अंगीकार करना ही होगा,
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